भाजपा आलाकमान की ढुलमुल नीति से उत्तराखण्ड में गुटबाजी परवान चढती रही
देहरादून , चन्द्रशेखर जोशी : उत्तराखण्ड में नेताओं के बीच गतिरोध खत्म न होने पर भाजपा आलाकमान की असमंजस की स्थिति गुटों में बंटे नेताओं का मनोबल बढा रही है, अगर भाजपा आलाकमान किसी तीसरे नाम पर अपनी मुहर लगा दे और गुटबाजी से दूर मजबूत दावेदार पूर्व मंत्री मोहन सिंह रावत 'गांववासी' को घोषित कर दे तो गुटबाजों में इतनी हिम्मत नहीं कि वह पार्टी के निर्णय से इतर जा सके, क्योंकि वह भी जानते हैं कि पार्टी के अंदर रहकर ही दबाव बनाया जा सकता है, पार्टी से बाहर आते ही उनका वजूद समाप्त हो जाएगा, शायद यही कारण है कि गुटों में बंटे नेता पार्टी के अन्दर रहकर पार्टी का वजूद समाप्त करने की रणनीति में लगे हैं। एक गुट ने सामूहिक इस्तीफा की धमकी देकर भाजपा हाईकमान को ब्लेकमैल करने का खुला खेल खेला। हंगामा बढने पर आखिरकार यह भी गुटों ने माना कि हाईकमान का फैसला सबको स्वीकार्य होगा। सर्वसम्मति न बन पाने की वजह से पार्टी को फजीहत से बचाने के लिए देर शाम तक दिल्ली के जरिए दोनों खेमों में समझौते की कोशिश होती रही जो प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव रूकवाने में ही सफल हुई। प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव का निरस्त हो जाना इस बात का साफ संकेत निशंक-कोश्यारी खेमों के दावपेंच के बीच खंड़ूड़ी खेमा बुरी तरह उलझा कहा जा रहा है कि कोश्यारी भी प्रदेश संगठन की कमान संभालने ही वियतनाम दौरे से देहरादून आए थे। मगर जब उनके नाम पर सर्वसम्मति नहीं बनती दिखी तो वह दिल्ली लौट गए। त्रिवेंद्र सिंह रावत का भी नामांकन के समय से 10-15 मिनट पहले ही आनन फानन में नामांकन करना दरअसल चुनाव प्रक्रिया पर ब्रेक लगाने की ही तरकीब थी। उत्तराखंड भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में ठीक उसी तरह के हालात पैदा हो गए वह उत्तराखण्ड भाजपा में गुटबाजी की इंतहा थी। पार्टी गुटों में बंटे नेताओं के सामने ब्लेकमैल होती आ रही है, उत्तराखण्ड में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव को लेकर भाजपा की साख पर बहुत प्रभाव पडा है। पार्टी के नेताओं ने जिस तरह भाजपा की लोकतांत्रिक परंपराओं को दरकिनार किया, उससे भी आम जनता में कोई अच्छा संदेश नहीं गया और जनता में छवि खराब हुई। उत्तराखण्ड भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की छवि सत्तालोलुप बन कर उभरती रही है, राज्य गठन के उपरांत से वर्तमान समय तक भाजपा के नेताओं के कार्यो पर नजर डाले तो साफ नजर आ जाएगा कि उत्तराखण्ड भाजपा के नेताओं ने पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचाने का ही काम किया। राज्य के अस्तित्व में आने के बाद के बारह सालों के इतिहास देखें तो साफ दिखता है कि भाजपा के नेता समय आने पर अनुशासन से बाहर जाने में भी नहीं हिचकते हैं, इससे भाजपा की छवि पर गलत असर पडता है और जनता पार्टी को सत्ता में आने लायक जनादेश देने से बचने लगती है। उत्तराखंड भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में जिस तरह गुटबाजी खुलकर सतह पर आई, उसने भाजपा की अनुशासित पार्टी की छवि को धूमिल कर दिया। यह उत्तराखण्ड भाजपा की फजीहत ही थी कि केंद्रीय पर्यवेक्षक की मौजूदगी में आलाकमान के हस्तक्षेप के बाद भी सर्वानुमति न बन पाने के कारण घोषित चुनाव प्रक्रिया को दो दिन आगे बढ़ाना पड़ा। एक तरह से आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई देने वाली पार्टी के लिए यह एक और झटका साबित हुआ। पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथों सत्ता गंवाने के बाद भी भाजपा ने कोई सबक नहीं सीखा, यह सांगठनिक चुनाव को लेकर शुक्रवार को देहरादून में हुए घटनाक्रम ने साबित कर दिया। गत विधानसभा चुनाव में भी पार्टी के भीतर भारी गुटबाजी नजर आई और टिकट बंटवारे तक पर अंगुलियां उठी। एक-तिहाई सिटिंग विधायकों के टिकट कटने पर यहां तक कहा गया कि अगर टिकट सही तरीके से बांटे गए होते तो पार्टी की यह गत नहीं बनती। इसके बावजूद पार्टी नेताओं ने कोई सीख नहीं ली, जिसकी परिणति आज देखने को मिली। भाजपा ने मंडल व जिला स्तर पर सांगठनिक चुनाव निबटने के बाद तीन बार प्रदेश अध्यक्ष चुनाव का कार्यक्रम घोषित किया लेकिन फिर इसे टाल दिया। यानी शुरू से ही सर्वानुमति की कोशिशें परवान नहीं चढ़ीं। अब जबकि शुक्रवार को चुनाव प्रक्रिया शुरू हुई भी तो इसे अजीबोगरीब तरीके से टाल दिया गया। यह शायद ही कहीं देखने को मिले कि नामांकन के बाद नामवापसी के लिए निर्धारित दो घंटे की अवधि को दो दिन के लिए आगे बढ़ा दिया जाए। साफतौर पर
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