डा. अशोक आर्य : हम मित्र तथा वरुण रुप प्रभु की आराधना करें तथा इस प्रकार प्रभु के पास बैटते हुये रितयुक्त अर्थत स्नेह तथा द्वेष्भाव रहित कार्य करते हुये हम व्रिद्धि को , उन्नति को प्राप्त करें तथा सदा उन्नति पथ पर ही रहें । यह बात इस मन्त्र का मुख्य विषय है , जो इस प्रकार बता रहा है :-
रितेन मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्शया ।
दक्शं दधातेअपसम ॥ रिग्वेद १.२.८ ॥
पीछे हम ने कहा था कि मित्र व वरुण स्नेह, प्रेम तथा बिना किसी द्वेष्ग भाव के हमारे जीवन में रित के साथ व्रिद्धि अथवा उन्नति के मूल कारण हो कर उत्तम कर्यों तथा उत्तम संकल्पों को व्याप्त करते हैं । वेद के रित क ही अंग्रेजी में right बना है । इस से स्पष्ट है कि इस का भाव थीक से होता है । रित , जिसका अर्थ टीक बनता है ,यह वही ही होता है , जिसे टीक स्थान पर किया जावे । इस का बाव यह है कि स्नेह अथवा प्प्रेम तथा द्वेष्भाव से र्हित होने पर , इन के न होने पर ही हम में रित अर्थात थीक से कर्म करने में व्रिद्धि होती है । अत: हम अपना प्रत्येक कार्य टीक उस समय आम्भ करते हैं जो समय उस के लिए सही होता है , टीक होता है । इतना ही नहीं उस कार्य के आरम्भ करने का स्थान भी हम टीक ही टंटते हैं । अत: इस कार्य को हम आरम्भ भी तद्नुरुप समय पर ही करते हैं । इस कारण ही एसा करने के साथ्ही हमारे सब कार्य सफ़लता के साथ सही टंग से सम्पन्न होते हैं ।
जो कुछ देते हैं , उसे हम देव कहते हैं । इस आधार पर हम मित्र ओर वरुण को भी देव ही मानते हैं क्योंकि यह सद रित क उत्तम का , जोटीक है ,उसका सदा वर्धन ही तो करते हैं , उसे बटाने वाले ही तो हैं । इतना ही नहीं यह उन कार्यों क ही स्पर्श करते हैं , उन कार्यों को ही छूते हैं , उन कार्यों को ही करने के लिए प्रेरित करते हैं , जो कार्य रित से युक्त हों , टीक हों । जहं स्नेह हो, प्रेम हो, जहां किसी प्रकार के द्वेष को स्थान ही न हो , वहां अन्रित का, वहां द्वेष भावना का, वहां शत्रु भव का होना तो सम्भव हीनहीं हो सकता । इस प्रकार हमारे जितने भी कर्म होते हैं , जितने भी कार्य होते हैं उन सब में रित सम्मिलित हो जाता है , रित कासमावेश हो जाता है , रित की भागीदारिता हो जाती है । अन्रित अथवा बुरे व स्नेह र्हित कार्यों में संकुचितता होती है तो रित्युक्त कार्यों में सदा विशालता ही मिलती है । जब हम कोयी अन्रित कार्य करते हैं तो हम कुछ अपवित्र कार्य कर रहे होते हैं ,जिस्द का सम्बन्ध ह्रास से, अवन्ति से अथवा अधोगति से होता है जब की रित के रुप में किये गये कार्य सदा ही पवित्र होते हैं , सदा ही आगे ले जाने वाले होते हैं , स्नेह बताने वाले होते हैं , उन्नती शील अथवा उन्नत करने वाले होते हैं । रित के कार्य सदा व्रिद्धि का, उन्नति का कारण बनते हैं , मित्र बटाने वाले बनते हैं ।
ओ३म
मित्र व वरुण के उपासक हो हम तुविजात व उरुक्शय बनें
डा. अशोक आर्य
जब हम मित्र की उपासना करते हैं , मित्र के पास बैटते है तथा जब हम वरुण की उपासना करते हैं अथवा वरुण के पास बैतते हैं तो हम कवि, तुविजात तथा उरुक्शय बनते हैं । इस बात पर ही यह मन्त्र हमें इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
कवि नो मित्रावरुणा तुविजाता उरुक्शया ।
द्क्शं दधाते अपसम ॥ रिग्वेद १.२.९ ॥
विगत मन्त्र में मित्र व वरुण को बलों को बटाने वाला तथा हिंसात्मक व्रितियों का नाश करने वाला बताया गया था । इसी भावना ्का ही इस मन्त्र में भी धयान किया गया है । इस मन्त्र में इस भावना को चार बातों पर आधारित उपदेश करते हुये स्पष्ट किया गया है : –
१. मित्र व वरूण रुपि यह स्नेहता तथा निर्द्वेष की भावना हमारे लिए बल को तथा अत्यधिक व्यापक व उदार कर्म को व्रिहत क्रतु को धारण का्रते हैं । स्पष्ट है कि जहां मित्र होंगे, वहा सामने वाले व्यक्ति में सदा ही स्नेह की भावना रहती है , जहां द्वेष रहित , प्रेम भाव से कार्य होगा, वहां भी स्नेह का ही प्रदर्शन होता है, मिलता है । इस प्रकार मित्र व वरुण के सहयोग से हम जो भी कर्म करते हैं , वह सदा ही व्यापक कर्मों को करते हैं क्योंकि एसे व्यक्ति सदा ही अपने जीवन में व्यापक कर्मों को करने वाले होते हैं किन्तु इस समय यह आवश्यक होता है कि हम द्वेष भाव से ऊपर उट कर कार्य कर रहे हों । इस अवस्था में होने वाले हमारे सब कर्म अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं क्योंकि यह सब कर्म स्नेह से , प्रेम से तथा द्वेष भावना से उपर उट के किये जाते हैं , किये हुए होते हैं । इस प्रकार मित्र अर्थात हमे यह देवता व स्नेह हमें दक्शता को धारण कराता है जबकि वरूण अर्थात निर्द्वेष्ता से किये गए कर्म जो होते हैं , वह कर्मों को व्यापक बनाते हैं ।
२. यह मित्रावरुणा अर्थात मित्रता तथा द्वेष रहितता क्रान्तदर्शी कवि के समान होते हैं । यह हमारी बुद्धि को तीव्र करते हैं , तेज करते हैं । इस प्रकार जो बुद्धि सूक्शम हो जाती है, वह बुद्धि ही अन्त में हमें उस पिता के , उस प्रभु के दर्शन कराती है ।
३. वेद में वर्णित यह मित्र ओर वरूण तो एसा लगता है कि मानो यह बहुतों के उपकार के लिए पैदा हुए हैं , भाव यह है कि जब इन दो भावनाओं को सामने रखते हुए या इन दो भावनाओं के वशीभूत होकर जो भी कार्य किया जाता है , वह कार्य अधिक से अधिक प्राणियों, अधिक से अधिक व्यक्तियों के हित साधने वाला , हितकारक होता है क्योंकि इनके कार्यों में किचित भी स्वार्थ भावना का समावेश नहीं होता । कहीं भी कोई संकुचित या सीमित भावना या द्रिष्टि नहीं होती । यह सदा परोपकार की विशाल भावना को सामने रख कर किये जा्ते हें , विशाल भावना से प्रेरित होते हैं ।
४. ये सब अत्यधिक विशाल निवास वाले होते हैं । भाव यह है कि एसे कर्म करने वाले सदा विशाल ह्रिदय वाले होते हैं । इन के द्वारा किये जाने वाले कर्मों क निवास अत्यन्त ही विशाल होता है, जिसे विशाल ह्रिदय कहते हैं । यह संकुचित व स्वार्थी भावनाओं को तो अपने में पैदा ही नहीं होने देते । इस का ही परिणाम होता है कि यह विशाल गति वाले होते हैं तथा इन के द्वारा होने वाले कर्म सदा उदार ही होते हैं ।