भोपाल, 12 सितम्बर| आदिवासियों के बीच पिछले 35 वर्षों से झारखण्ड में कार्य कर रहे पद्मश्री अशोक भगत ने कहा कि आज आदिवासियों को लेकर हम लोगों की सोच बदलने की आवश्यकता है| वे और हम अलग नहीं है| ये जो विभाजनकारी भावना पैदा कर दी गई है उसने आदिवासी और अन्य समाज को अलग खड़ा कर दिया है| वे दया के भी पात्र नहीं है| वे राजा रहे है| वे स्वायत्त शासन के हक़दार है और स्वतंत्र जीवन जीना चाहते है|
श्री भगत आज मेपकास्ट में दत्तोपंत ठेंगडी शोध संस्थान और संस्कृति विभाग, म. प्र. द्वारा आयोजित आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी ‘मध्यवर्ती भारत : नये आयाम (इतिहास -संस्कृति एवं जनजातीय परम्पराएं)’ के समापन सत्र को संबोधित कर रहे थे| नक्सल आन्दोलन से आदिवासियों को जोड़े जाने को लेकर उन्होंने कहा कि आदिवासी हिंसा के पक्षधर नहीं है| अहिंसा और सत्य के साथ उन्होंने ही सबसे पहले 1883 में अंग्रेजो के खिलाफ आन्दोलन चलाया था| उन्होंने कहा कि किसी समाज का विकास करना है तो उसकी गौरवशाली परंपरा बनाये रखे, आत्महीनता का शिकार न बनाये| सत्र में शोध संस्थान के सह सचिव श्री दीपक शर्मा ने संगोष्ठी के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला| समापन सत्र में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति श्री जगदीश उपासने और अन्य गणमान्य नागरिक उपस्थित थे| आभार प्रदर्शन संस्थान के निदेशक डॉ मुकेश मिश्र ने किया|
जनजातियों के गौत्र पहाड़, पशु, पक्षियों के नाम पर: ‘जनजाति समाज और संस्कृति’ विषय पर आयोजित सत्र में प्राध्यापक डॉ धर्मेन्द्र पारे ने कहा कि जनजातियों के लोग आपस में मिलने पर परिचय में अपनी बोली में स्वयं को मनुष्य बताते है और उनके गौत्र पहाड़, पशु, पक्षियों के नाम पर हैं| वे प्रकृति के प्रति गहरी कृतज्ञता से भरे हुए है| उनके जीवन में कोई भी गीत एकल नहीं हैं, नृत्य एकल नहीं है और खेल भी एकल नहीं है| जो भी होता है, सामूहिकता और बराबरी से होता है| जनजाति के लोग समुदाय के विरुद्ध अपराध को सबसे गंभीर मानते है| जनतातियों की भाषा को लेकर उन्होंने कहा कि कोरकू भाषा में एक अक्षर से ही शब्द बन जाते है| चार और पांच अक्षरों से मिलकर बनाने वाले शब्द बहुत कम हैं| उनके समाज में स्त्री पक्ष का बहुत सम्मान है| इस सत्र में ‘स्वतंत्रता के पूर्व जनजातियों की स्थिति’ विषय पर चर्चा करते हुए डॉ दीप्ती श्रीवास्तव ने जनजातियों की भाषा के संरक्षण के लिए कार्य किये जाने की आवश्यकता बताई| उन्होंने कहा कि नक्सलवादी जनजातियों की भाषा सीखकर उनके माध्यम से अपने मनसूबे पूरे कर रहे हैं| उन्हें कथित विकास से जोड़ेने की बजाय उन्हीं की संस्कृति, भाषा में जीवन यापन के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए|
जनजातियों में है अद्वैत, समावेशिता: सत्र की अध्यक्षता करते हुए संस्कृति विभाग के अपर मुख्य सचिव श्री मनोज श्रीवास्तव ने कहा के वनवासियों में अपनी तरह का अद्वैत और समावेशिता है, लेकिन अंग्रेजों ने इन ग्रुप और आउट ग्रुप बना दिए और यह दर्शाया कि ये वे लोग है जो समय की दौड़ में पीछे रह गए| उन्होंने ही ऐसी समूह अन्धता पैदा कि वे देखी जानेवाली वस्तु बन गए| अंग्रजों ने जनजातियों की कैटेलॉगिंग की ताकि विभेद पैदा किया जा सके| जनजाति के लोगों ने उनके आध्यात्मिक संतों के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ आन्दोलन किये|
स्व निर्भर था जनजातिय समाज: संगोष्ठी के दूसरे दिन सत्र में ‘जननायकों का संघर्ष और उपलब्धियां’ विषय पर डॉ ममता चंसोरिया ने कहा कि जनजाति समाज स्वनिर्भर था, लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद स्थितियां बदल गई| जनजातियों के लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ 70 विद्रोह किये| सभी आंदोलनों का नेतृत्व उन्हीं के बीच से ही निकले लोगों ने किया| डॉ बी. के. श्रीवास्तव ने ‘ब्रिटिश प्रतिरोध के आयाम’ विषय पर बुंदेलखंड में हुए प्रतिरोध पर विस्तार से प्रकाश डाला| सत्र की अध्यक्षता करते हुए डॉ सुरेश मिश्र ने कहा कि 1757 से 1900 तक 95 विद्रोह हुए लेकिन इतिहास में हमें सीधे 1857 का प्रथम स्वत्रंतता संग्राम पढ़ाया जाता है| ऐसे कई नायक है जिनका उल्लेख इतिहास की पुस्तकों में नहीं हैं|
वनवासी समुदाय की भाषा ब्रह्मांड की भाषा: तीसरे सत्र में ‘नागर, ग्रामीण एवं आरण्यक समाज : सामाजिक अंतर्संबंध’ विषय पर बोलते हुए डॉ कपिल तिवारी ने मातृ भाषा, लोक संस्कृति पर बल दिया। श्री तिवारी में कहा कि मातृ भाषा केवल साहित्य की लौकिक व मौखिक परम्परा मात्र नही है। वाचिकता को विस्तार से समझने की जरूरत है। लोक ज्ञान का भले ही कोई शास्त्र नही है, परंतु वो पुर्णतः सत्य व प्रमाणिक है। इस सत्र में ‘लोकजीवन के विविध आयाम’ विषय पर बोलते हुए डॉ बसंत निर्गुण ने कहा कि वैदिक भाषा सृष्टि की भाषा है जबकि वनवासी समुदाय की भाषा ब्रह्मांड की भाषा है। वनवासी प्रकृति के बिना जिंदा नही रह सकता। वनवासी समुदाय ने कभी आपस मे कोई महायुद्ध नही किया। शान्ति, भाईचारे, प्रेम के लिये वनवासी संस्कृति जरूरी है। डॉ श्रीराम परिहार ने कहा कि जो लोक में था वो वेद में लिखा गया। वनवासी समुदाय प्रकृति से सामंजस्य के लिए जीता है। वह प्रकृति से जब उपभोग करता है तब उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखता है। प्रकृति की विशिष्टता से ही मनुष्य ने सब कुछ सीखा है। वनवासी समुदाय प्रकृति के प्रति वचनबद्धता के लिए जाना जाता है। सत्र की अध्यक्षता करते हुए श्री भगवतीलाल राजपुरोहित ने वर्तमान परिवेश में विकास के साथ आ रहे विकारों को बताया|