भोपाल, 10 नवम्बर| भारतीय दार्शनिक अनुसन्धान परिषद् और भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद् के सदस्य सचिव प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल ने कहा कि पश्चिमी ज्ञान की अवधारणा में मनुष्य को सामाजिक प्राणी और पशु के सामान ही माना गया है, लेकिन भारतीय ज्ञान परंपरा में ऐसा नहीं है| भारत की ज्ञान परंपरा के अनुसार धर्मं ही एक मात्र ऐसा आधार है जो मनुष्य और पशु के बीच अन्तर करता है|
श्री शुक्ल दत्तोपन्त ठेंगडी शोध संस्थान द्वारा आयोजित दत्तोपन्त ठेंगडी स्मृति राष्ट्रीय व्याख्यानमाला के प्रथम सत्र में बोल रहे थे| ‘भारतीय ज्ञान परम्परा का वैशिष्टय’ विषय पर उन्होंने कहा कि हमारी ज्ञान परम्परा में इतिहास में जीने की परंपरागत नहीं, इतिहास के साथ जीवन जीने की परंपरा और निरन्तर ज्ञान में अभिवर्धन करना है। यूरो सेंट्रिक नॉलेज पूर्ण नहीं है| संस्कारित करना ही भारतीय ज्ञान परंपरा है। भारत की परंपरा में दर्शन का अर्थ जानना है। यह ईगो सेंट्रिक नहीं है। ज्ञान तभी होगा जव वह अस्तित्व में होगा। जव तक प्रत्यक्ष नहीं होता है तब तक ज्ञान नहीं है। वस्तुनिष्ठता को प्रस्तुत करने का सरलीकरण प्रक्रिया ही ज्ञान है। ज्ञाता और ज्ञान के मध्य चेतना का ऐंद्रिक अनुभव से ही ज्ञान प्रकट होता है। सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट के मध्य भेद करना, सत्य और असत्य के मध्य अंतर करना, नित्यता और अनित्यता के मध्य अंतर करने की दृष्टि ही ज्ञान है। भारतीय ज्ञान परंपरा वाचिक है। यह जड़ वस्तु में मूल्य को जोड़ने की परंपरा है। जो भी अच्छा है उसे जोड़ने की परंपरा भारतीय पंरपरा है, यही हमारी आस्था है। भारतीय ज्ञान परंपरा में लक्ष्य ही मोक्ष है।
द्वितीय सत्र में ”तुलनात्मक अध्ययनों का निहितार्थ’ विषय पर उन्होंने कहा कि अंग्रेंजों ने भारत से ही तुलनात्मक अध्ययन की शुरुआत की| उन्होंने अपने लिए और भारत के जन को समझने के लिये संस्कृत को पढ़ा और फिर तुलनात्मक भाषा विज्ञान की शुरुआत की| लेकिन तुलनात्मक अध्ययन के भ्रम पैदा कर दिए और भारत की विद्या को पश्चिम की विद्या की तुलना में हीन बना दिया गया| कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए महर्षि पाणिनी संस्कृत विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलपति प्रो. रमेश चन्द्र पंडा ने कहा कि भारतीय वांग्मय में वेद से लेकर 18वी सदी तक तुलनात्मक शव्द नहीं था। यह उधार लिया गया है। भारत को समझे बिना भारत की बात नही करना चाहिए। उत्तम पुरूष का विचार भारतीय संस्कृति में है। सदैव कुछ न कुछ जानने की इच्छा रखना ही भारत है। भारत शब्द का अर्थ जो ज्ञान में रत है| मैं जानता हूं और मुझे ज्ञान है, दोनों में अन्तर है। ज्ञान निरंतरता है,जानने की इच्छा है। ज्ञान प्राप्ति के अनेक उपाय है। दत्तोपन्त ठेंगड़ी शोध संस्थान के निदेशक डा. मुकेश मिश्रा ने व्याख्यानमाला की रुपरेखा प्रस्तुत की| संसथान के अध्यक्ष श्री अनिल तामडू भी मंच पर उपस्थित थे| व्याख्यानमाला के दूसरे दिन रविवार को सुबह ११ बजे तृतीय सत्र में ‘भारतीय ज्ञान परम्परा का वैश्विक स्वरूप’ एवं चतुर्थ सत्र में ‘भारतीय ज्ञान सम्पदा की अर्वाचीन प्रासंगिकता’ विषय पर प्रो. अभिराज राजेन्द्र मिश्र का व्याख्यान होगा। सत्र की अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार वि.वि. के कुलपति श्री जगदीश उपासने करेंगे।