डा. अशोक आर्य : इस सूक्त का प्रारम्भ हम सब मिलकर उस प्रभु का गायन करने के निर्देशन के साथ करते हैं तथा कहते हैं कि हम सामुहिक रुप से मिल कर
प्रभु का कीर्तन करें तथा उपदेश किया है कि हमारे यह प्रभु पालकों के भी पालक हैं अर्थात जिस माता पिता ने हमारा पालन किया है , उनके साथ ही साथ
हमारा भी पालन उस पिता ने किया है , जिसने हमारे माता पिता का भी पालन किया है ।
जब हम उस पिता के ह्रदय में निवास करते हैं तो हमारे अन्दर काम, क्रोध आदि शत्रु हमारी इन्द्रियों को किसी प्रकार की भी हानि नहीं पहुंचा सकते , पराजित नहीं कर सकते । इस प्रकार के व्यवहार से जो सोम का रक्शन होता है , वह इस की रक्शा करने वाले का सहायक हो जाता है । इस सोम की रक्शा करने वाले प्राणी को सदा सात्विक अन्न का ही सेवन करना चाहिये । उसे इन ईशान = इन्द्रियों का स्वामी बनकर उसे हमारे शरीरों को असमय अर्थात समय से पूर्व नष्ट नहीं होने देना चाहिये । इन सुरक्शित शरीरों , जिन में हमारा शरीर , हमारा मन तथा हमारी बुद्धि भी सम्मिलित है , को हम किन कार्यों में , किन कर्मों में लगावे , व्यस्त करे ।
प्रतिदिन सामूहिक रुप से प्रभु स्मरण करें
मानव अकेले तो प्रभु के चरणों में बैटकर उसका स्तुतिगान करता
है किन्तु आज के युग में सामुहिक रूप में प्रभु के समीप जाने से न जाने
क्यों भयभीत सा होता है । रिग्वेद के प्रथम मण्डल का यह पांचवा सूक्त
अपने प्रथम मन्त्र द्वारा उपदेश कर रहा है कि हम सामुहिक रुप से एक साथ
सम्मिलित हो कर उस प्रभु का गुण्गान करें । इस आश्य को इस सूक्त के प्रथम
मन्त्र में इस प्रकार व्यक्त किया गया है : –
आ त्वेता षीदतेन्द्रमभि प्र गायत ।
सखाय: स्तोम्वाहस: ॥ रिग्वेद १.५.१ ॥
इस मन्त्र में दो बातों की ओर वोशेष द्यान देने का आदेश दिया गया है : –
१. हे परमात्मा के स्तोमों को धारण करने वाले मित्रो ! यहां पर न
तो उस पिता को सम्बोधन किया है तथा न ही परिवार को । यहां तो केवल
मित्रों को सम्बोधन किया गया है । मित्रों से अभिप्राय: उस समूह से लिया
जाता है , जो हमारे समीप निवास करता है , हमारा हितचिन्तक है , एक दूसरे
का सहायक है अथवा जिन पर वह विशवस करता है , एसे लोगों को वह व्यक्ति
आमन्त्रित करते हुए कह रहा है कि आप सब लोग निश्चय से आईये । इन शब्दों
में उन्हें प्रभु प्रार्थना के लिए आह्वान करते हुए कह रहा है कि आप एक
द्रट निश्चय से यहां आवें क्योंकि यहां आने के लिए अधिक सोच -विचार की
आवश्यकता नहीं है । मन में एक संकल्प से , एक निश्चय से यहां आईये । यहां
आकर आप सब लोग अपने अपने आसन पर बैट जावें । आप के बैटने के लिए यहां जो
आसन लगा रखे हैं , जो आसन बिछा रखे हैं, उन पर विरजमान हो जाईये । इन
आसनों पर बैटते हुए एक बात का ध्यान रखिये कि यहां पर आने वाले को, यहां
पर बैटने वाले को नम्र होना , नत होना चाहिये , । इस लिए यहां नम्रता
पूर्वक बैटिये । यहां नम्रता पूर्वक केवल विश्रान्ति के क्शण समझ कर नहीं
बल्कि प्रभु का गुण गान करने के लिए बैटिये । प्रभु का गुण्गान नम्र हुए
बिना नहीं किया जा सकता क्योंकि अपने से बडे के आगे याचक बन कर ही जाया
जाता है , इसलिए यहां याचक बन कर , अपने में नम्रता ला कर ही बैटिए ओर
फ़िर उस पिता के गुणों का सामूहिक रुप से गान कीजिए , उसका स्मरण कीजिए ,
उसका आराधन कीजिए । यह सब कैसे करें , इस की पद्धति , इस का तरीका , इसका
टंग भी बताते हुए मन्त्र कहता है ,आदेश देता है कि उस प्रभु का स्मरण न
केवल मन से ही करें अपितु वाणी से भी करें । इस प्रकार स्पष्ट किया गया
है कि अपने मन से हम सदा प्रभु स्तवन करें तथा जब सामुहिक प्रार्थना मे
आते हैं तो इसे हम अपनी वाणी से भी बोल कर प्रभु स्तुति का गायन करें ।
२. मन्त्र के इस दूसरे चरण में एक शब्द ” स्तोमवाहस:” का प्रयोग
किया गया है । यह शब्द संकेत कर रहा है कि हम प्रभु के स्तवनों को ,प्रभु
के गुण गान में जो प्रार्थनाएं कर रहे हैं ,उन प्रार्थनाओं को हम हम
अपनी क्रियाओं में अनूदित करने वाले हों । हम जब प्रभु की सामुहिक रुप से
, सम्मिलित रूप से प्रार्थना कर रहे है तो हम इसे अपनी क्रिया में , अपने
व्यवहार में , अपनी भाव भंगिमा में बदल देवें । अकेले तो हम केवल मन में
ही उसे याद करते हैं , स्मरण करते हैं किन्तु जब हम सामूहिक रुप से उसको
याद कर रहे है तो यह सब हमारे भावों में स्पष्ट दिखाई दे , इस रुप में हम
इसे बदल दें ।
यह सम्मिलन प्रभु का स्मरणण करते हुए उस प्रभु को दयालु बता कर
, उसका स्मरण करते है । स्पष्ट है कि जिस रुप में हम स्मरण करते है ,
वैसा ही बनने का हम यत्न भी करते हैं । जब हम प्रभु को दयालु मानकर उसका
स्मरण करते है तो हम भी दयालु बनने का यत्न करें । इस का भाव है हम भी
दूसरों पर दया करें , दूसरों की सहायता करे , उनके कष्टों को बांटे । जब
हम दूसरों के दु:खों के साथी बनते हैं तो ही हम प्रभु को दयालु कहने के
सच्चे अर्थों मे अधिकारी होते हैं ।
हम मन्त्र मे प्रभु को सखाया अर्थात मित्र भी कहते हैं । एक
मित्र अपने दूसरे मित्र को अपने समान ही मानता है । यदि वह नीचे है तो
उसे उटाने का यत्न करता है ओर यदि वह उपर है तो स्वयं भी उस जैसा बनने का
यत्न करता है । अत: जब हम मित्र भाव से प्रभु का स्मरण करते हैं तो हम
निश्चय ही उस प्रभु के गुणों के समान के से गुण अपने में भी लाने वाला
बनना चाहते हैं तथा इन गुणों को पाकर हम अपने मित्र उस प्रभु जैसा बनना
चाहते हैं । यह हमारी उन्नति का सर्वोत्तम मार्ग है ।
एसे ही साथियों को , एसे ही व्यक्तियों को प्रभु के निकट बिछाए
गए इन आसनों पर बैटने का निर्देश यह मन्त्र दे रहा है तथा कह रहा है कि
आप सब मिलकर इन आसनो पर बैटो तथा उस पिता की स्तुति का गायन करो । आप ने
जो कुछ भि अपने मन में विचार कर रखा है , उस के अनुरूप गीतों से , उसके
अनुरूप भाषण से हाथ जोड कर स्तुति गायन करो । यह मित्रता क्या है ? यह
सम्मिलित रुप से किया जाने वाला प्रभु स्तवन ही इस मित्रता का मूल है ,
आधार है , मूल आधार है । इस लिए इन आसनों पर बैट कर मिलकर प्रभु के गुणों
का गायन हम नम्रता पूर्वक करते हैं ।
जब हम सम्मिलित होकर , इन आसनों पर बैटकर प्रभु स्तवन करते हैं
तो इससे मानव का जीवन दीप्त होता है । इस प्रकार के प्रभु स्तवन से मानव
जीवन मे एक प्रकार का प्रकाश पैदा होता है, आबा पैदा होती है , उसमे
अनेक प्रकार की उमंगें हिलोरे मारने लगत्ती हैं । इस प्रकार सम्मिलित
होने तथा प्रभु स्मरण करने का मूल ही सम्मिलित रुप से प्रभु स्मरण व गायन
करना ही होता है । आह । क्या सुन्दर आधार है यह प्रभु स्तवन का ! जब हम
सब मिलकर अनेक प्रकार की सफ़लताएं प्राप्त करते हैं , तो देखते हैं कि
हमारी इन सफ़लताओं के पीछे वह प्रभु स्वयं खडा है । इन सफ़लताओं का कारण वह
प्रभु ही होता है । हमारे सामुहिक गायन का यह कितना सुन्दर परिणाम है कि
प्रभु स्वयं अपने हाथ से पकड कर हमें सफ़लता के मार्ग पर ले जाता है तथा
हमे सफ़लताएं प्राप्त करने मे मित्र के समान हमारा सहायक बनता है । इस
प्रकार हम अपने सब कार्यों की सफ़लता मे प्रभु का हाथ देखते है । हमारे
प्रत्येक कार्य की पूर्णता का कारण हम उस पिता को ही पाते हैं । यह क्यों
? क्योंकि मन्त्र कह रहा है कि हम अपनी सफ़लताओं को देख कर फ़ूल न जावें ।
हम अभिमानी न हो जावें । अभिमान विनाश का मार्ग होता है । इस मार्ग पर
चलकर हम अपना नाश न कर लें । इस लिए हम अपनी इन सफ़लताओं का श्रेय उस पिता
को देंगे तो हम अभिमान से बचे रहेंगे तथा नत हो कर इन सफ़लताओं को प्राप्त
कर हम प्रसन्न रहेंगे ।
हम सूक्शम बुद्दि से प्रभु दर्शन करें
डा. अशोक आर्य
प्रभु दर्शन के लिए बुद्धि का सूक्शम होना आवश्यक है , जो शरीर
में सोम की रक्शा करने से बनती है । यह ही प्रभु की सच्ची प्रार्थना है ।
वह प्रभु ही वरणीय वस्तुओं के इशान है तथा हमारे वह प्रभु ही पालन करने
वालों में सब से उत्तम पालक हैं । इस बात का ही वर्णन यह मन्त्र इस
प्रकार कर रहा है : –
पुरूतमं पुरूणामीशानं वार्याणाम ।
इन्द्रं सोमे सचा सुते ॥ रिग्वेद १.५.२ ॥
इस मन्त्र में चार बातों पर विशेष प्रकाश डाला गया है ।
१. जब हम प्रभु को मित्र मानकर सब मित्र वत एकत्र होकर प्रभु के
समीप जाते हैं , उसका गायन करते हैं , उस की उपासना करते हुए हम उपासक
कहते हैं कि वह प्रभु पालकों में सब से अधिक श्रेष्ट पालक है । हम जानते
हैं कि माता पिता अपने बच्चे का पालन करते हैं , इस कारण वह पालक कहलाते
हैं । व्यवसाय में कार्यरत कर्मचारियों का पालक होता है उस व्यवसाय का
मलिक , इस लिए उस के कर्मचारी तथा उसका परिवार उसे पालक मानते हैं । इस
प्रकार ही हमारा वह परमात्मा भी हमारा पालक होता है क्योंकि उसने न केवल
हमें इस संसार में पैदा ही किया है बल्कि हमें अनेक प्रकार के सुगन्धित
फ़ूल , खाने के लिए भरपूर फ़ल , सब्जियां व वनस्पतियां दी हैं तो पहनने के
लिए उत्तम वस्त्र भी दिए हैं । इस प्रकार वह प्रमात्मा भी हमारा बडे
उत्तम प्रकार से पालन कर रहा है । वह भी हमारा पालक है । वह प्रभु ही
हमारे सब प्रकार के शल्यों , दोषों को , शत्रुओं को यथा काम ,क्रोध ,लोभ
, मोह , अहंकार आदि सहस्रों शत्रुओं को क्शीण करता है , उनका नाश करता है
, उनके भय से हमें बचाता है । इस लिए हम उस प्रभु का गायन करते हैं ।
उसकी कीर्ति का , यौसकी विशेषताओं का ,उसके उपहारों का स्मरण करते हुए उस
के यश का हम गायन करते हैं , स्मरण करते हैं ।
२. हमारे सब शत्रुओं का प्रभु नाश कर देते हैं । जब प्रभु की
क्रपा से हमारे सब शत्रु कमजोर हो जाते हैं , उनकी शक्ति क्शीण हो जाती
है । सोम द्वारा उत्पन्न की गई शक्ति से वह मारे जाते हैं तो प्रभु से
प्राप्त इस शक्ति से हम पुरुषार्थ करते हैं , मेहनत करते हैं , यत्न करते
हैं ,प्रयास करते हैं तथा हम अनेक प्रकार के धनों को पाने में हम सफ़ल हो
जाते हैं । इस प्रकार वह प्रभू न केवल हमारे शत्रुओं की शक्ति को ही नश्ट
करता है बल्कि हमें अनेक प्रकार के धनों का स्वामी बना कर हमें धनवान भी
बनाता है । इस लिए हम उस प्रभु की स्तुति करते हैं , प्रार्थना करते हैं
, उपासना करते हैं । हम उस प्रभु के गुणों का गायन , उस प्रभु के निकट
अपना आसन लगा कर ,उसके पास जाकर करते हैं ।
३. वह प्रभु वरण करने के , धारण्करने के योग्य है । वह प्रभु ही
सब प्रकार के धनों का स्वांइ है । जगत में वह प्रभु सर्वाधिक धन्वान हओ ।
उसकी प्रतिस्पर्धा मेम कोई अन्य धन्वान नहीं है । जिसके पास जो भी धन है
,वह सब उस प्रअभु आ ही दिया हुआ है । एसे पर्म एशवर्य वाले प[रभु , ए४से
शत्रुओं का नाश करने वाले उस प्रभु का हम कीर्तन करते हैं , उसे
स्मरन्करते हुए उस के गुणों को हम अपने गीतों में स्म्जोकर गाते हैम ।
एसे प्रभु के यश व कीर्ति हमारे भजनों का, हमारे गीतों का अंग होते हैं ,
केन्द्र होते हैं , जिन्हेम हम गाते हुए अत्यन्त खुशी अनुभव करते हैं ।
४. उस पभु आ स्तवन , उस प्रभु के गुणों का गायन हम तब ही कर
पाते हैं , जब हम्ने विपुल मात्रा मेम सोम का पान किया होता है । यह सोम
भि न एवल प्रभु से मेल होने पर ही होता है अपितु प्रभु पाने का साधन भि
है । हम पहले भी बता चुके हैं कि सोम शक्ति का स्रोत होता है । जिसके
शरीर में शक्ति होती है वह ही किसी काम मेम दिल लगा कर परिश्रम करता है ।
प्रभु स्तवन , प्रभु के गुणों का गायन भी वह ही कर सकता है ,जिसने सों को
अपने शरिर मेम धारन किया है । अत: उस प्रभु सेमेल ए लिए शरीर का सशक्त
होना आवश्यक है तथा श्रीर को शक्तिशाली रकने के लिए शस्रिर में सोम की
विपुलता का होना भी आवश्यक है ।
इस प्रकार मन्त्र यह उपदेश कर रहा है कि हम सोम का अपने शरीर
में सम्पादन करने वाले , निर्माण करने वाले बनें । सोम का निर्माण कर हम
सोम की रक्शा के उपायों को भी जानें तथा इस बनाये गए , पैदा किए गए सोम
को शरीर में सम्भालने का भी उपाय हम करें । जब यह सोम हमारे शरीर में
सुरक्शित हो जाता है तब यह सोम ही हमारा उस पिता से मेल कराने वाला ,उस
पिता के पास ले जाने वाला बनता है । इस प्रकार अपने शरिर में सोम को पैदा
करना, उसकी रक्शा करना जब हो जाता है तो हमारे शरीर में सोम के विपुल
भण्डार हो जाते हैं तब यह सोम ही हमें प्रभु की ओर ले जाता है । यह सोम
ही हमारा उस पिता से मेल कराता है । इस प्रकार जब हम सोम को पैदा कर उसे
सम्भालते हैं तो यह ही वास्तव में सच्चे अर्थों में प्रभु का सच्चा स्तवन
है , सच्ची प्रार्थना है , सच्चा कीर्तन है , सच्चा गायन है । हमारे शरीर
के इस सोम से जब हम उस महान प्रभु रुपी सोम को प्राप्त करते हैं तो यह ही
जीवन की सब से महान सफ़लता मानी जाती है , यह ही सब से बडी सफ़लता होती है
।
योग ,धन,पुरन्धी व वाजों ओ प्राप्त कराते हैं
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्म हमें योग व धन प्राप्त कराते हैं । पुरन्धि
की प्राप्ति भी हमारे वह पिता ही कराते हैं तथा वाजों को दिलाने वाले ही
वह पिता ही हैं । इस तथ्य का प्रकाश यह मन्त्र इस प्रकार करता है :-
स घा नो योग आ भुवत्स राये स पुरन्ध्याम ।
गमद वाजेभिरा स न: ॥रिग्वेद १.५.३ ॥
वह पिता वरणीय वस्तुओं के इशान हैं , यह ग्यान हमें इस सूक्त
के दूसरे मन्त्र से मिलता है । इस बात को ही आगे बटाते हुए यह मन्त्र तीन
प्रकार के उपदेश करते हुए कह रहा है कि :-
१. जो पिता हमारे सब के लिए सदा स्मरणीय हैं , जिनके पास जा कर
हम मित्र के समान व्यवहार करते हुए ,उससे बहुत सा धन आदि पाने का यत्न
करते हैं । हमारे वह प्रभु निश्चय ही हमें जो अप्राप्त वस्तुएं हैं ,
जिन वस्तुओं को हम अब तक प्राप्त नहीं कर पाए हैं तथा जिन्हें हम पाने की
अभिलाषा करते हैं , जिन्हें पाने की हम इच्छा करते हैं , हमारे वह प्रभु
इन वस्तुओं का योग करने वाले हैं । हम जिन वस्तुओं को पाने की कामना करते
हैं किन्तु अब तक पा नहीं सके हैं , उन वस्तुओं को प्राप्त कराने वाले ,
योग कराने वाले , जोडने वाले हमारे यह प्रभु ही तो हैं । वह यह
प्राप्तियां कराने वाले हमारे कार्य साधक हैं । यह सब सिद्धियां , यह सब
उपलब्धियां , यह सब जोड ,यह सब योग , हम कैसे प्राप्त करते हैं ? यह
मन्त्र इस का उतर देते हुए कह रहा है कि यह सब हमें तब ही मिलता है , जब
हम पर उस प्रभु की क्रपा हो जाती है । स्पष्ट है कि प्रभु की क्रपा के
बिना हम कुछ भी पा नहीं सकते । अत: हम सदा प्रभु की क्रपा ,प्रभु की दया
प्राप्त करने का यत्न करते हैं , प्रयास करते हैं ताकि हम मन वांछित
वस्तुओं को प्राप्त कर सकें । जो वस्तुएम अब तक हम्ने प्राप्त नहीं की ,
उन्हें पाने का नाम ही जोड है , योग है । यह योग , यह जोद प्रभु की
सहायता के बिना, प्रभु के आशीर्वाद के बिना हम प्राप्त नहीम्कर सकते ।
२. हमें धन प्राप्ति के लिए हमारे वह पिता सदा सहायक होते हैं ।
जितने प्रकार के भी धन हैं , उन सब को प्रभु ही विजय करते हैं , प्राप्त
कराते हैं । जीव सदा अधिकतम धन पाना चाहता है किन्तु अनेक बार वह यत्न से
भी इसे प्राप्त नहीं कर पाता । इस से स्पष्ट होता है कि जब तक प्रभु का
आशीर्वाद नहीं मिल जाता, तब तक हम यह धन प्राप्त नहीं कर सकते । अत: सब
प्रकार के धनों को विजय करने वाले , प्राप्त कराने वाले हमारे यह पिता ही
हैं ।
३. जो प्रभु सब प्रकार के धनों को प्राप्त कराने वाले हैं , वह
प्रभु की वेद के इस सूक्त के इस तीसरे मन्त्र के तीसरे भाग में बता रहा
है कि वह प्रभु हमारा पालन करने वाले भी हैं । हमारे पालन के लिए , हमें
स्वावलम्बी बनाने के लिए जहां धनों की आवश्यकता होती है , वहां उत्तम
पालन के साथ ही साथ हमें पूर्ण बनाने वाली उत्तम बुद्धि की भी आवश्यकता
होती है किन्तु उत्तम बुद्धि सात्विक भोजन के बिना , सात्विक अन्न के
बिना नहीं मिल सकती । अत: वह प्रभु हमें सात्विक अन्नो के साथ मिलती है ।
अत: प्रभु हमारे लिए उत्तम व सात्विक अन्न की व्यवस्था करके देता है ताकि
हम पूर्ण व उत्तम बुद्धि के स्वामी बनकर उत्तम पालन के योग्य बन सकें ।
जो उत्तम व सात्विक अन्नों का उपभोग किया जाता है तो हमारी
बुद्धि भी सात्विक बनती है । जब बुद्धि में किसी प्रकार की बुराई नहीं
होती , किसी प्रकार का छल – प्रपंच नहीं होता तो एसी बुद्धि को सात्विक
बुद्धि कहते हैं । एसी सात्विक बुद्धि ही सब प्रकार के उत्तम धनों को
प्राप्त कराती है । सात्विक बुद्धि के बिना जो धन नहीं मिल सकते , वह
उत्तम धन इस सात्विक बुद्धि से ही मिलते हैं । इस का भाव यह है कि जो अब
तक हमने प्राप्त नहीं किया था , वह सब हम ने इस सात्विक बुद्धि से ,
प्रभु की आशीर्वाद से पा लिया किन्तु जो पाया उस पर हम गर्व नहीं करते ,
उस पर हम अभिमान नहीं करते । हम इन सब उपलब्धियों का , इन प्राप्तियों का
, इन सफ़लताओं का करण उस पिता का , उस प्रभु का वरदान ही समझते हैं ।
प्रभु स्मरण से विजयी बनो
डा. अशोक
आर्य
जब हम प्रभु के गुणों का गायन करते हैं तो हम अध्यात्मिक
संग्रामों मे विजयी होते हैं । काम क्रोधादि शत्रु हमारी इन्द्रियों को
बन्धक नहीं बना पाते तथा इस स्मरण से ही हम आद्यात्मिक संग्राम में विजयी
होते हैं । इस क उल्लेख ही यह मन्त्र इस प्रकार करता है :-
यस्य संस्थे न व्रण्वते हरी समत्सु शन्नव: ।
तस्मा इन्द्राय गायत ॥ रिग्वेद १.५.४ ॥
इस मन्त्र में दो बातों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि :-
१. जब मानव अपने परमपिता परमात्मा का स्मरण करता है , उसके गुणों
का गायन करता है , उसके गुणों को धारण करने का यत्न करता है तो वह प्रभु
भी प्रसन्न हो कर उसके ह्रदय में आ कर आसन जमा लेते हैं , उसके ह्रदय
स्थल पर आ कर स्थित हो जाते हैं ।
हम अपने एक छोटे से परिवार में ही देखें । जब परिवार का एक
नन्हा सा बालक अपने पिता के बताये मार्ग का अनुसरण करता है तथा उस पिता
से कुछ पाने के लिए उस का अनुसरण करते हुए उस के गुणों की चर्चा करने
लगता है तथा स्वयं को भी उनके अनुरुप बनाने का यत्न करने लगता है तो इस
छोटे से परिवार के पालक भी उसे स्नेह देते हैं , उसे आदर – प्यार देते
हुए , उसकी इच्छाएं पूर्ण करने का यत्न करते हैं । फ़िर वह प्रभु तो जगत
पालक हैं , वह प्रभु तो इस जगत रुपी सम्पूर्ण परिवार का पालन करते हैं ।
जब इस पालक का , उसका कोई बालक स्मरण करता है तो वह उस से स्नेह क्यों न
करेंगे ? वह उसकी इच्छाएं पूर्ण क्यों न करेंगे ? अत: वह पभु भी अपने
गायन करने वाले भक्त के ह्रदय में आकर बैट जाते हैं ।
जिस के ह्रदय में प्रभु अवस्थित होते हैं , निवास कर रहे होते
हैं ,उस पर काम क्रोध आदि उसके आन्तरिक शत्रु अपना अधिकार नहीं जमा सकते
क्योंकि अन्दर तो प्रभु का निवास हो चुका है । प्रभु के निवास के कारण
अन्दर अन्य कोई स्थान बचा ही नहीं , जहां आकर वह अपनी सता जमा सकें ।
प्रभु ने हमारे अन्दर निवास भी तो तब ही किया है , जब यह काम क्रोध आदि
हमारे अन्दर के शत्रु हमारे आध्यात्मिक संग्रम में हमसे पराजित हो गये
है, हम ने इन्हें विजय कर अपने बस में कर लिया है । यदि यह शत्रु हमारे
बस में न होते तो प्रभु हमारे अन्दर प्रवेश ही न करते । इस प्रकार प्रभु
गुणगान से जब वह प्रभु हमारे अन्दर रहने लगते हैं तो हमारे अन्दर के
शत्रु उनके कोप से ,उनके तेज से भयभीत हो कर दूर भाग जाते हैं , कहीं जा
कर छुप जाए हैं , सामने आने का उनमें साहस ही नहीं रहता ।
मन्त्र कहता है कि जब हम अध्यात्म संग्राम कर रहे होते हैं , जब
हम अपने अन्दर के शत्रुओं से लडने के लिए उस पिता के गुणों का गायन कर
रहे होते हैं तथा जब वह प्रभु ह्मारे ह्रदय में आकर निवास करने लगते हैं
तो हमारे काम – क्रोड आदि अन्दर के शत्रु हमारे आध्यात्मिक संग्रामों में
अपने ग्यानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय रुपी अश्वों को , घोडों को इस
आक्रमण में , इस लडाई में प्रयोग करने के लिए नहीं चुनते , उन्हें हम पर
आक्रमण करने के आदेश की स्थिति में ही नहीं होते अर्थात हमारी
ग्यानेन्द्रियां तथा हमारी कर्मेन्द्रियां इस क्रोधादि के आक्रमणों से
मुक्त हो जाती हैं । यह काम क्रोधादि अब इन पर आक्रमण नहीं करते । इस लिए
आओ इन आक्रमणों से हमें मुक्त कराने वाले उस परम एशवर्य शाली प्रभु का हम
मिलकर गुणगान करें, उस का स्मरण करने के लिए उसके निकट अपना आसन लगाएं ।
२. मन्त्र का दूसरा भाग हमें उपदेश करते हुए बता रहा है कि जहां
प्रभु का गायन होताहै , जहां आध्यात्मिक उपदेश होता है , जहाम के लोग उस
पित के समीप आकर बैट जाते हैं , वहाम पर काम क्रोध आदि प्रवेश अरने का
साहस ही नहीं करते । यह कामादि हमारे अन्दर के शत्रु प्रभु स्मरण करने
वाले , प्रभु भक्त से सदा ही भयभीत रहते हैं , उससे सदा ही डरते हैं । इस
कारण प्रभु स्मरण इन शत्रुओं रुपी रोग की सर्वोतम , सब से उत्तम औषध होती
है । इस ऒष्ध के निरन्तर सेवन से कभी भी काम रोधा आदि हमें प्रेशान नहीं
करते । इस प्रकार प्रभु स्नरण हमारे शरीर की सब व्याधियों को , सब रोगों
को दूर कर देता है । इस प्रकार हमारा मन आधियों से बच जाता है ।
हम सुतपावा शुद्ध मन,शान्त,कान्त ,दीप्त बन दोष से शून्य हों
डा. अशोक आर्य
इन्द्रियों को वासनाओं से बचाकर हम दोष रहित होंगे तब हम
सुतपावा बनने के लिए शरीर में उत्पन्न सोमकणों को शरीर में ही व्याप्त
करेंगे । एसा करने से हमारे मन शुद्ध हो जावेंगे , हमारा मस्तिष्क शान्त
व कान्त होगा , इससे हमारे अन्दर का ग्यान दीप्त होगा , तीव्र होगा तथा
शरीर में भरपूर बल होने से हम सब प्रकार के दोषों से छूट जावेंगे । इस
बात को यह मन्त्र इस प्रकार बता रहा है :-
सुतपाव्ने सुता इमे शुचयो यन्ति वीतये ।
सोमासो दध्याशिर:॥ रिग्वेद १.५.५ ॥
यह बात तो स्पष्ट हो ही चुकी है कि सोम ओर इन्द्र्य वासना एक
दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी हैं । जब तक वासना रहित नहीं होते तब तक सोम इस
शरीर में प्रवेश नहीं कर सकता । इसलिए शरीर को वासनाओं से दूर करना आवशयक
है । जब हमारे सोमकणों के अत्यधिक होने से सब वासनाएं अशक्त हो जाती हैं
, सब प्रकार से निर्बल हो जाती हैं , सब प्रकार से कमजोर हो जाती हैं ,
तब ही सोम हमारे शरीर में न केवल प्रवेश करता है , तब ही शक्ति न केवल
हमारे शरीर में प्रवेश ही करती है अपितु सब ओर फ़ैल भी जाती है । पूरे
शरीर में फ़ैल कर हमारे शरीर को सुरकशित करती है , शक्ति सम्पन्न करती है
। अब हम अपने शरिर में सोम को सुरक्शित रखने की स्थिति में आ जाते हैं ।
इस बात को आगे बटाते हुए यह मन्त्र तीन बातों पर विशेष रुप से प्रकाश
डालता है यथा : –
१. यह जो सोमकण उतपन्न हुए है , यह जो सोमकण हमारे शरीर में उत्पन्न
हुए हैं , इन में इतनी शक्ति होती है कि आगे जो ओर सोम के कण पैदा होते
हैं उनकी भी रक्शा कर पाने में यह सशक्त होते हैं । इस प्रकार इस सोम की
अपने ही शरीर में रक्शा करने वाले के लिए , इस सोम का भली प्रकार से पान
करने वाले के लिए , इस सोम को पी जाने वाले के लिए यह सोम पवित्रता करने
वाले होते हैं । इस का भाव यह है कि जो वयक्ति सोम का पान करता है , वह
सब प्रकार की वासनाओं से रहित हो कर ही इस का पान करता है क्योंकि वासनाए
ओर सोम एक साथ एक शरीर में नहीं रहते । जब शरीर वासना रहित हो जाता है तो
शरीर में सब ओर सोम फ़ैल जाता है । इस से शरीर पवित्र हो जाता है । जब
शरीर पवित्र हो जाता है तो जीवन की व्रतियां भी पवित्र होने लगती है
क्योंकि खरबूजे को देख कर ही खरबूजा रंग पकडता है । जब शरीर पवित्र है तो
व्रतियों में मलिनता आ ही नहीं सकती । अत: हमारा जीवन भी पवित्र व्रति
वाला बन जाता है ।
जिस मानव का जीवन पवित्र व्रतियों से भर जाता है , वह कभी भी धन
आदि पाने के लिए कभी भी कोई अपवित्र उपाय नहीं करता । धन प्राप्त करने के
लिए भी वह सदा पवित्र व शुद्ध साधनों का ही प्रयोग करता है । अब हम गल्त
मार्ग की ओर देखते तक भी नहीं । गल्त साधनों की ओर हमारा किंचित भी झुकाव
नहीं होता । जब मानव का संयम समाप्त हो जाता है , संयमित नहीं रहता तो
हमारी पवित्रता भी कम होने लगती है तथा हम गल्त मार्ग पर चलने लगते हैं ।
इस लिए हम सदा संयमित जीवन बिताते हुए शरीर में सोंम कणों को एकत्र कर
पवित्र बने तथा पवित्र धन को ही एकत्र करने का यत्न करते हुए पवित्र उपाय
ही प्रयोग करें । अपने पास आर्थिक अपवित्रता को कभी न आने दें ।
२. यह सोम चमकने के लिए , प्रकाश के लिए हमें मिलते हैं । जब हम
सोम को पा लेते हैं तो हमारा चेहरा चमकते लगता है , मुख मण्डल प्रकाशित
होने लगता है । एक विचित्र प्रकार की सी आभा हमारे शरीर से टपकती सी
अनुभव होती है , एक विचित्र प्रकार सी दीप्ति सी आ जाती है । इससे ही
स्पष्ट होता है कि हमारे अन्दर ग्यान की अग्नि दीप्त हो चुकी है , ग्यान
का प्रकाश करने की भावना बलवती हो गई है ।
३. दध्याशिर: ही हमारे शरीर को धारण करने वाले होते हैं । यह वह
शक्तियां होती हैं जो हमारे शरीर के दोषों को नष्ट करती हैं । अत: जब यह
शक्तियां हमारे शरीर में आ जाती हैं तो हमारे शरीर के सब दोष , हमारे
शरीर के प्रत्येक अंग से , प्रत्येक प्रत्यंग से नष्ट होने लगते हैं, दूर
होने लगते हैं तथा हम पूर्ण स्वस्थ व पूर्ण सुद्रट हो जाते हैं ।
इस प्रकार सोम से शरीर को तीन प्रकार के लाभ इस मन्त्र के अनुसार
मिलते हैं । यह सोम हमारे मन में कभी अपवित्र भाव , अपवित्र विचार नहीं
आने देते । यह सोम ही है जो हमारे मस्तिष्क में ग्यान की अग्नि को
प्रदीप्त करता है , ग्यान की अग्नि को जलाता है , ग्यान प्राप्ति की
भावना को उग्र करता है , तेज करता है । यह सब करने के साथ ही साथ शरीर को
सशक्त कर इस के अन्दर के दोषों को नाश कर हमारे शरीर को स्वस्थ रखने का
काम भी करता है ।
सब उन्नतियों का अधार सोम
डा. अशोक आर्य
जब सोम की हम अपने शरीर में ही रक्शा करने में सफ़ल हो
जाते हैं तो हम व्रद्धि की ओर बटने लगते है तथा इससे हम में ज्येष्टता भी
आती है । हम महानता की ओर अग्रसर होते हैं । इस तथ्य का प्रकाश यह मन्त्र
इस प्रकार कर रहा है :-
त्वं सुतस्य पीतयो सद्यो व्रद्धो अजायथा: ।
इन्द्र ज्यैष्ट्याय सुक्रतो ॥ रिग्वेद १.५.६ ॥
यह मन्त्र तीन बातों पर प्रकाश डालते हुए कह रहा है कि :-
१. हे उत्तम भावनाओं से भरे हुए जीव !, हे उत्तम कर्मों को
करने वाले जीव !, हे उतम संकल्पों वाले जीव !, हे उतम ग्यान से भरपूर जीव
! तूं इस उत्पन्न हुए सोम का रक्शक है । तेरा निर्माण ही , तेरा जन्म ही
सोम के रक्शण के लिए हुआ है । यह सोम तेरा रक्शक है किन्तु केवल तब जब
तूं द्रट निश्चय से इस सोम की रक्शा करेगा ।
हम जानते हैं कि शरीर की सब्शक्तियों का केन्द्र सोम ही
होता है । जिसके शरीर मे सोम की जितनी मात्रा अधिक होगी , उसका शरीर उतना
ही अधिक बलिष्ट होग । बलिष्ट शरीर में ही ग्यान का प्रकाश होता है ,
स्वाध्याय की शक्ति आने से बुद्धि तीव्र होती है तथा शरीर में पवित्रता
आती है । इस प्रकार की ओर भी अनेक उपलब्धियों को पाने के लिए हम सोम के
रक्शक बनें ।
२. जब जीव सोम को अपने शरिर में विपुल मात्रा में धारण कर
लेता है तो एसे शरीर मे सब प्रकार की शक्तियां आ कर केन्द्रित हो जाती
हैं । मानव सब प्रकार की शक्तियों की द्रष्टि से बटा हुआ , उन्नत व
अग्रगामी हो जाता है । इतना ही नहीं एसे मानव के मन शुद्ध शक्तियों से
भरे होंगे । एसे व्यक्ति के मन शुद्ध होंगे , किसी प्रकार की गन्दगी इस
के मन में नहीं होगी । इसका विकसित शक्तियों वाला शरीर सदा निरोग रहेगा ।
किसी प्रकार के रोग के इस शरीर में प्रवेश का साहस ही नहीं होगा अपितु
जो रोगाणु पहले से शरीर में हैं , उनका यह सोम नाश कर देगा । एसे व्यक्ति
के मन निश्चल होंगे । मन एकाग्र हो कार्य करेगा , इधर उधर भटकेगा नहीं ।
एक ही स्थान पर केन्द्रित मन ही सब सफ़लताओं का कारण होता है , निश्चल मन
ही सब सफ़लताओं का आधार होता है तथा एसे व्यक्ति की बुद्धि सूक्शम व इतनी
दीप्त हो जाती है कि बडी से बडी समस्या का समाधान भी वह क्शनों में ही कर
लेती है । दीप्त अर्थात तीव्र बुद्धि वाला व्यक्ति ही सर्वत्र सफ़लता
प्राप्त करता है । एसी बुद्धि विपुल मात्रा में सोम के स्वामी को ही
मिलती है । इस लिए हम सोम की अत्यधिक मात्रा में एकत्र कर अपने शरीर मे
सम्भालें ।
३. हे इन्द्रियों के अधिष्टाता जीव । तूं इन्द्रियों का पान
करने वाला है अर्थात इन्द्रियों का अधिष्टाता होने के कारण तेरी सब
इन्द्रियां तेरे बस मे हैं , तेरे इंगित पर , तेरे इशारे पर ही कुछ भी
कार्य करती हैं । जब तक तूं इन्हें आदेश नहीं देता , तब तक यह कुछ भी
नहीं करतीं । इस कारण जीवन के तीनों काल , चाहे यह बाल्य काल हो , चाहे
यह यौवन का समय हो अथवा तेरे जीवन का स्थविर्भाव अर्थात बुटापा का समय हो
किन्तु जीवन में सोम का पान करने वाले , सोम को सम्भालने वाले अर्थात
अपने शरीर में शक्ति रुपा वीर्य की रक्शा करने वाले ही ज्येष्टता को पाते
हैं , बडे माने जाते हैं ।
जो जीव अपने जीवन में सोम की रक्शा कर लेते हैं वह ही
उन्नत होते हैं , वह ही ब्राह्मण बनता है तथा जो ब्राह्मण होता है , वह
ही ग्यान से ज्येष्ट बनता है अर्थात एसा व्यक्र्ति ही उन्नत ग्यान को पा
कर बडे व महान के रुप में समाज में पूज्य होता है । एसा व्यक्ती ही
क्शत्रिय बनेगा । इस सोम के कारण वह भरपूर शक्ति का स्वामी हो जाता है
तथा इस कारण ही वह बलवान क्शत्रिय की श्रेणी में आकर अपनी शक्ति के ही
कारण सब का पूज्य बन जाता है । यह सोम ही वैश्य जनों का मूल आधार है ।
भाव यह है कि इस प्रकार सोम पर अधिपत्य रखने वालों में से ही विद्या का
दान करने वाले ब्राहमण बनते हैं , इनमें से ही देश को सम्भालने वाले
क्शत्रिय निकलते हैं तथा इन में से ही धन अर्जन करने वाले ,एशवर्यों के
स्वामी , सब प्रकार की सम्रद्धियों वाले वैश्य भी बनते हैं । हम जानते
हैं कि सब प्रकार से अग्रणी बनने का कारण यह सोम ही होता है । इसलिए हम
इस सोम का पान करें , इस सोम को अपने शरिर में सम्भाल कर रखें ।
सोमकण हमें क्र्मशील व शान्त रखते हैं
डा. अशोक आर्य
जब हम अपने शरीर में सोमकणों को संभाल लेते हैं तो हमारा
शरीर अत्यधिक क्रियाशील हो उत्तम कर्म करता है । हमारा मन सदा शान्त रहता
है । शान्त मन वाले होने से हम प्रक्रष्ट चेतना वाले बनते हैं । इस बात
की ओर ही यह मन्त्र संकेत करते हुए कह रहा है कि : –
आ त्वा विशन्त्वाशव: सोमास इन्द्र गिर्वण: ।
शं ते सन्तु प्रचेतसे ॥ रिग्वेद १.५.७ ॥
इस मन्त्र में चार बातों पर प्रकाश डालते हुए मन्त्र उपदेश कर रहा है कि
१. हे इन्द्रिय विजेता जितेन्द्रिय पुरुष ! , हे आसुरी प्रव्रतियों
का संहार , नाश करने वाले जीव ! यहां पर जितेन्द्रिय तथा आसुरी
प्रव्रतियों को नष्ट करने वाला शब्द का सम्बोधन करते हुए जीव को पुकारा
गया है । जितेन्द्रीय कौन होता है ?, जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर
लिया हो अर्थात जो व्यक्ति सोमकणों की रक्शा कर इन्द्रिय संयम में सक्शम
हो गया हो , वह व्यक्ति ही जितेन्द्रीय कहलाता है । दूसरी बात जो कही गयी
है , वह है आसुरी प्रव्रतियों के संहार करने वाले पुरु्ष । अब प्रश्न
उटता है कि आसुरी प्रव्रतियों का संहारक कौन है ?, यहां भी उपर वाली बात
ही आती है । मानव शरिर में काम , क्रोध आदि अनेक प्रकार की आसुरी
प्रव्रतियां होती हैं , जो सदा उस मनव का नाश करने का यत्न करती रहती हैं
किन्तु इन प्रव्रतियों को वह व्यक्ति नष्ट कर देता है , जिसने सोम को
अपने शरीर में व्याप्त कर इसे पवित्र बनाकर कर्मशील बन गया हो । यहां भी
सोम की ही उपयोगित का वर्णन है । अत: मानव जीवन में सोमकणॊं के महत्व को
ही प्रतिष्टित किया गया है ।
अत: मन्त्र कह रहा है कि हे पुरूष तुझे जितेन्द्रिय बनाने के
लिए तथा तुम्हें आसुरी प्रव्रतियों से बचाने के लिए यह सोमकण तुझ में सदा
तथा सामान्य रूप से प्रवेश करें । यह सोमकण तेरे शरीर में केवल प्रवेश ही
न करें बल्कि तेरे शरीर में सब ओर फ़ैलकर अपनी शक्ति की सत्ता स्थापित
करें ताकि :
२. इन सोम कणों के कारण तू सदा कर्मशील बन कोई न कोई कर्म अथवा
कार्य करता रहे । कभी निटल्ला न रहे । जब यह सोम तेरे शरीर में रक्शित हो
जाता है तो तुझे कभी अकर्मण्यता आ कर नहीं घेर सकती । तेरा मन सदा किसी न
किसी कर्म में लगना ,किसी कार्य मे लगे रहना ही पसन्द करता है ,कभी खाली
व निटला नहीं रहना चाहता । यह सोम कण ही तुझे कर्मशील बनाते हैं । इससे
यह तथ्य सामने आता है कि जो व्यक्ति सोम को अपने शरीर मे धारण करने से
सोमी बन जाता है वह सदा कर्म में लगा रहता है , इस प्रकार वह कभी आलसी तो
हो ही नहीं सकता ।
३. सोमरक्शण का उद्देश्य ग्यान को एकत्र करना होता है क्योंकि इस
की रक्शा से बुद्धि तीव्र हो कर ग्यान का संग्रह करने में , स्वाध्याय
में जुट जाती है । इस प्रकार यह सोम ग्यान का भण्डार एकत्र करने वाला भी
होता है । इस लिए यहां कहा है कि ग्यान की वाणियों का सेवन करने वाले जीव
अथवा पुरुष ! यह जो सोमकण तूंने अपने शरीर में एकत्र किये हैं , रक्शित
किये हैं , यह तुझे शान्ति देने वाले हों क्योंकि सोम ही मानवीय शक्तियों
का कारण होते हैं तथा शक्ति सम्पन्न व्यक्ति कभी भयभीत नहीं होता ।
जिसमें भय नहीं है , वह ही शान्त रह सकता है । इससे स्पष्ट होता है कि
सोम की रक्शा का उद्देश्य बुद्धि को सम्पन्न कर मानव को शान्त बनाना ही
है । स्पष्ट है कि सोम से युक्त प्राणी का शरीर सदा निरोग रहता है , उसका
मन सब बुराईयों के धुल जाने के कारण निर्मल हो जाता है तथा मस्तिष्क में
ग्यान का दीप जलने लगता है जिससे उसका ग्यान भी दीप्त हो जाता है । इससे
ही यह शान्ति प्राप्त करने वाले बनेंगे ही ।
४. यह सोम कण तेरे अन्दर चेतना पैदा करने वाले हों । मानव शरीर
की चेतना का कारण सोम ही तो होते हैं , जो ग्यान को दीप्त कर उसे चेतन
बनाते हैं । अत: मन्त्र कहता है कि यह सोम तेरे लिए भरपूर चेतना देने
वाले हों , चेतना को प्रकाशित करने वाले हों । इस सोम की रक्शा से तूं
सदा आत्म स्मरण , आत्म चिन्तन करने वाला हो । सदा अपने विषय में विचार
करने वाला , चिन्तन करने वाला बन कर इस तथ्य को समझने का यत्न करता रह कि
तूं कौन है ? तूं कहां से आया है तथा तूं क्यों आया है ? सदा इन बातों पर
विचार करता रह । कभी इन बातों को भूल न जाए क्योंकि इस चेतना को भूलने से
ही तो हमारे जीवन का क्रम ऊट – पटांग सा हो जाता है , अस्त व्यस्त सा हो
जाता है , जीवन उलझ सा जाता है । इस प्रकार के बिगडे हुए क्रम के जीवन
वाले होने से हमारे जीवन में प्रभु का स्थान धन ले लेता है । अब हम प्रभु
चिन्तन के स्थान पर धन का चिन्तन करने लगते हैं । अब हमारा धन ही सब कुछ
बन जाता है । हम धन संग्रह को ही अपना एक मात्र उद्देश्य बना लेते हैं ।
हम जीवन मूल्यों को ऊंचा उटाने वाले धन को भूल कर भौतिक धन के पीछे भागने
लगते हैं ।
जहां हम इस अवसर पर भौतिक भोगों को ही धन समझने लगते हैं वहां
हम योग के स्थान पर भोग प्रधान बन जाते हैं । जब हम ने सोम की रक्शा करने
के लिए योग का साधन अपनाना होता है ,वहां हम भोग के द्वारा संकलित किए ,
एकत्र किये सोम का नाश करने लगते हैं क्योंकि योग तो सोम को जोडने का काम
करता है तथा भोग से सोम का क्रम टूट कर एकत्रण के स्थान पर टूटन पैदा
करता है । सोम के संग्रह के कारण मानव का जो मन प्रेम वाला होने के कारण
सब जगत के प्राणियों को अपनी ओर खैंचता था , वह मन अब भोग के कारण राग ,
द्वेष में फ़ंस जाता है । इस प्रकार राग – द्वेष में फ़ंसा मन कभी प्रेम की
ओर बट ही नहीं सकता अत: इस में ईर्ष्या व द्वेष का निवास होने से यह लडाई
झगडा , कलह व क्लेष का केन्द्र बन जाता है । जो व्यक्ति इस प्रकार की
व्याधियों से ग्रसित होता है , वह निरन्तर अपने अन्दर के सोम का नाश करता
रहता है । इस प्रकार सोम से मुक्त होने से वह शिथिल पड जाता है ।
सोम के नष्ट होने से मानव में जो नम्रता थी , वह भी नष्ट हो
जाती है । इस नम्रता का स्थान अब अभिमान ले लेता है । जिस आध्यात्मिक धन
से हम उस पिता से जुडकर उसे पिता मानते थे, उसे दाता मानते थे तथा नम्र
होकर उसके सान्निध्य को , उसकी निकटता को पाने का यत्न करते थे , इस
भौतिक धन को पाने की लालसा ने हमारी यह सब नम्रता दूर कर दी । हम अत्यधिक
भौतिक धन के स्वामी होने पर भी ओर धन एकत्र करना चाहते हैं , हमारी यह धन
एकत्रण की भावना ने हमें अभिमानी बना दिया । अब हम अपने धन एशवर्य पर
गर्व कर उस परम पिता परमात्मा को भूल गये । अब हम अपने को ही ईश्वर मानने
लगे ओर कहने लगे कि यह धन ही है , जिससे हम कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं ।
हम अपरीमित , असीमित धन के स्वामी हैं । अब हम कुछ भी कर सकते हैं ।
ईश्वर नाम की कोई वस्तु इस संसार में नहीं है ओर यदि है तो वह है धन ,
जिसके स्वामी हम हैं ।
इस प्रकार हम ही ईश्वर हैं , हम ही इस संसार को चलाने वाले हैं
। इस प्रकार का अभिमान हमारे अन्दर आ जाता है । इस का परिणाम यह होता है
कि एक ओर तो हमारा सोम हम से दूर होता चला जाता है दूसरी ओर संसार में
धनवान के अत्याचार बटने लगते हैं , बटने लगते ही नहीं निरन्तर बट जाते
रहते हैं । इस से इस संसार में अन्याय का घर बन जाता है , यह अन्याय ही
अभाव का कारण बनता है । अन्याय से ग्रसित व्यक्ति कर्म को भूल जाता है ,
अकर्मी के भी सोम कण नष्ट होते हैं , वह भी शिथिल हो जाता है । जब कोई
कर्म करने वाला नहीं रह्ता तो उपभोग के लिए कुछ पैदा भी करने वाला कोई
नहीं होता । इससे सब ओर अभाव ही अभाव हो जाता है ओर जो थोडा कुछ होता है
, उसे यह धनवान व्यक्ति अपने भण्डारों में भर लेता है जिससे साधारण
व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है । परिणाम स्वरूप जिस संसार ने स्वर्गिक
आनन्द देना था वह संसार दु:ख रुपा बन कर घोर नरक का चित्र पेश करता है ।
हम सब प्रकार से प्रभु महिमा गायन करें
डा. अशोक आर्य
प्रभु भक्त अपने स्तोमों से, ग्यानी लोग अपने शस्त्र ग्यान
से तथा कर्मकाण्डी लोग अपनी गिराओं से अर्थात अपने सब साधनों से हम प्रभु
के गुणों का, उस की महिमा का वर्धन करें , गायन करें । इस बात को इस
मन्त्र में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है :-
त्वं स्तोमा अवीव्रधन त्वामुक्था शत्क्रतो ।
त्वां वर्धन्तु नो गिरा:॥ रिग्वेद १.५.८ ॥
इससे पूर्व के इस सूक्त के तीन मन्त्रों में उपदेश किया गया
था कि सोमपान तथा अपने शरीर में सोम की रक्शा से क्या क्या लाभ होते हैं
? इन मन्त्रों में यह निष्कर्ष निकाला गया था कि सोम रक्शा का सब से
महत्वपूर्ण कार्य या परिणाम है कि हम वासनाओं को जीत लें , इन पर विजय पा
लें , इन पर हमारा पूर्ण आधिपत्य हो तथा हम संयमित जीवन जीवें । इस के
लिए यह आवश्यक बताया गया है कि हम आपना पूरा समय कर्म करने में लगाते हुए
प्रत्येक क्शण प्रभु का स्मरण करते रहें । इस बात को ही आगे बटाते हुए यह
मन्त्र तीन बातों पर चर्चा करने के साथ यह उप्देश कर रहा है कि :-
१. अनन्त कर्मों तथा प्रग्यानों वाले प्रभु ! हमारा वह पिता
सीमा रहित कर्म करने वाला है , वह असीमित कर्म करता है तथा उसके ग्यान भी
असीमित ही हैं , जिनका कोई अन्त नहीं है । इसलिए उसे सम्बोधन करते हुए
अनन्त कर्म करने वाला तथा अनन्त ग्यान वाला कहा गया है । हम साम गो: के
स्तुति समूह अर्थात हम आप के साम गायन के माध्यम से हम आपके गुणों का
गायन करने वाले बनें, आपका स्मरण करने वाले बनें । आप की विशेषताओं को
आगे बटाने वाले , अपके गुणों को ग्रहण करने वाले बनें । इससे स्पष्ट होता
है कि मानव, उस्के उस गुण का ही गायन करता है, जिसे उसने धारण करना होता
है । जिसे धारण ही नहीं करना होता , उसकी तो वह चर्चा भी नहीं करना चाहता
। इसलिए साम गो: के गायन का यहां वर्णन किया गया है ।
हम साम गो: के स्तुति कतने वाले हों , इस प्रकार की प्रार्थना
करते हुए आगे मांगते हुए उसका स्मरण कर रहे हैं कि हमारे ह्रदय हमारे
शरीर का सब से उत्तम अंग है , स्थान है । इसलिए सब से उत्तम कर्म , जिसे
भक्ति कहते हैं , प्रभु आराधना कहते हैं उसकी मांग की गई है तथा कहा गया
है कि हमारे ह्रदय में सदा ही प्रभु का स्मरण , प्रभु की भक्ति निवास
करती है । ज भक्ति की प्रधानता रखने वाला एक व्यक्ति प्रभु का स्मरण
करता है तो उसे ही स्तोम कहा गया है । अर्थात जब हम शुद्ध भाव से प्रभु
का ह्रदय से गायन करते हैं तो हम स्तोम बन जाते हैं । एक सच्चे उपासक को
ही स्तोम कहा गया है । इस प्रकार स्तोम रुपा प्रभु का यह भक्त , यह आराधक
साम मन्त्रों का , उत्तम तथा गुणों को बटाने वाले मन्त्रों का , इस प्रभु
के गुणों का गायन करता है , सामुहिक रुप से कीर्तन करता है ।
२. मानव के मस्तिष्क में ग्यान का प्रकाश होता है । हमारे सब
प्रकार के ग्यान का केन्द्र मस्तिष्क ही होता है । इसलिए सब प्रकार के
ग्यान का प्रकाश भी हमारे शरीर के इस भाग में ही होता है । मानव ग्यान
प्राधन होता है । इस कारण यह ग्यान प्रधान व्यक्ति जगती को प्रकाश देने
वाले सूर्य, चन्द्र तथा तारागण ही नहीं बल्कि इस ब्राह्माण्ड के अन्य सब
पदार्थों में , अन्य सब वस्तुओं में भी उस प्रभु की महिमा देखता है । वह
सूर्य के प्रकाश को देख कर उस प्रभु की महिमा को गाते हुए कहता है कि जिस
प्रभु ने सारे संसार को प्रकाशित करने वाला यह सुन्दर सूर्य बनाया है ,
वह प्रभु स्वयं तो इस सूर्य से भी सुन्दर होगा , इस सूर्य से भी अधिक
प्रकाश देने वाला होगा । इस प्रकार जगत की प्रत्येक वस्तु में वह उस
प्रभु की कलम को , उस प्रभु के गुणों को , उस प्रभु की महिमा को देखता है
। इस सब की रचना से ही उसे इनके रचियता का आभास होता है ।
जगती के प्रत्येक पदार्थ की रचना का सौन्दर्य देखकर उसे उस
महान प्रभु के सौन्दर्य दिखाई देते हैं , उस प्रभु के महत्व प्रकट होते
हैं , इसमें उसे उस प्रभु की महानता के दर्शन होते हैं । इस सब को देख कर
वह ग्यान युक्त मानव अनायास ही यह कह उटता है कि यह बर्फ़ से टकी हुई
पर्वतों की गगन को चूमने वाली ऊंची चोटियां , यह किसी भी सीमा में न
बंधने वाले विशाल सागर तथा अनेक प्रकार से सुन्दर फ़लों व फ़ूलों ओर
वनस्पतियों से टकी यह प्रथ्वी , यह सब हे प्रभु आप की महिमा का , आपकी
विशेषताओं का , आपकी अद्वितीय रचना का, आपके गुणों का ही वर्णन कर रहे
हैं । आपके गुणों का ही गायन कर रहे हैं । इस प्रकार यह ग्यान से
प्रबुद्ध व्यक्ति यह जो आप की स्तुति में गायन कर रहा है, हे प्रभो ! यह
सब भी आपके गुणों का वर्णन करने वाले , इन्हें बटाने वाले हों ।
३. मानव के हाथों में ही कर्म का निवास होता है । मानव जितने
प्रकार के भी कर्म करता है , जितने प्रकार के भी कार्य करता है , वह सब
हाथों से ही करता है । उसके हाथ होते ही कार्य करने के लिए हैं । अत: वह
हाथों का सदुपयोग करने के ही लिए यह सब कर्म करता है । इस प्रकार अपने
हाथों से कर्म करने वाले यह कर्म काण्डी मानव इन हाथों से ही यग्य आदि
कर्म करते हैं । यह इन हाथों से ही अग्न्याधान करते हैं , अग्नि को जलाते
हैं , यग्य की अग्नि को जलाते हैं तथा फ़िर इन हाथों से ही इस अग्नि में
अनेक गुणों से युक्त पदार्थों को दालते हैं । इस यग्य की अग्नि में डाले
गए पदार्थों के महत्व को तथा इन के विचित्र गुणों का गायन करते हुए,
ध्यान करते हुए , उस परम पिता की महिमा का तथा उस प्रभु की विचित्रता का
भी गायन करते हैं , स्माण करते हैं , उसकी स्तुति करते हैं ।
मानव कर्मकाण्डी है । अत: हम कर्मकाण्डियों की जो प्रभु महिमा
का , प्रभु गुणगान करने वाली , प्रभु स्तवन करने वाली , उसके गुणों का
गायन करने वाली हमारी यह वाणियां भी हे पिता ! आपको ही आगे बटाने वाली
हों , आपका ही गायन करते हुए आगे ले जाने वाली हों ।
सोमपान से हमारा जीवन आनन्द्मय तथा शक्तिसम्पन्न
डा. अशोक आर्य
मानव परम्पिता परमात्मा का स्तवन करने से , उसाका गायन करने
से , उसके समीप बैटने से , उसका कीर्तन्करने से ही अपने३ आप ई रक्शा करने
के योग्य बन पाता है , अपनी रक्शा करने की शक्ती प्राप्त करता है । प्रभु
स्तवन से वह अपने आप की , स्वयं की रक्शा के योग्य बनने के साथ ही साथ वह
कभी वासनाओं का , कभी विषयों का शिकार नहीं होत , सदा इनका शिकार होने से
बचा रहता है । इस प्रकार वासनाओं सेद बचकर वह सोअम का अपने शरीर में
रक्शण्कर पाता है ।
इससे बात को ही आगे बटाते हुए कहा गया है कि हम सुख व प्रीति
वर्धक अन्न्का सेवन करं जो बल बटने वाला भी हो । एसा अन्न ही ह्जम,एं
सोम्पान के योग्य बनाता है तथा इससे हमारा जीवन आनन्द से भर जाता है व
शक्ति सम्पन्न हो जाता है । इस बात को मन्त्र इस प्रकार समझाने का
यत्न्कर रहा है : –
अक्शितोति: सनेदिमं वाजमिन्द्र: सहस्त्रिणम ।
यस्मिन विश्वानि पौंस्या ॥ रिग्वेद १.५.९ ॥
इस मन्त्र में दो बातों पर बल देते हुए बताया गया है कि जब
हम विगत मन्त्रानुसार जब हम उस पिता का स्तवन करने से अपनी रक्शा के
योग्य बन जाते है तो हम सब वासनाओं से दूर हो जाते हैं । इनए शिकार न
होकर सोम का अपने शरीर में रक्शण करने में सक्शम होते हैं । अब इस तथ्य
को ही आगे बटाते हुए यह मन्त्र उपदेश कर रहा है कि : –
१. यह जो कभी न नष्ट हुए सोम वाला, यह जितेन्द्रिय पुरूष सदा एसे
अन्न का सेवन करता है , जो अन्न उसे प्रसन्नता देने वाला होता है , खुशी
देने वाला होता है , आनन्द देने वाला होता है , उसे खुश करने वाला होता
है । एसे सात्विक अन्न का वह सेवन करता है , जो उसे सब प्रकार के बलों को
दिलाने वाला हो । भाव यह है कि मानव जितेन्द्रिय होकर , जब वासनाओं को
छोड देता है तो वह एसे पवित्र अन्न का सेवन करता है , जिस अन्न के सेवन
से हमारे अन्दर सोम की व्रिद्धि होती है तथा हम सब प्रकार की शक्तियों के
स्वामी बनते हैं ।
२. एसा कहा जाता है कि जैसा खाओ अन्न , वैसा बने मन । भाव
स्पष्ट है कि हम जिस प्रकार का अन्न खाते हैं तो हमारा शरीर भी उस प्रकार
का ही बनता है । अन्न हम एसा प्रयोग करते हैं कि जो अन्न चोर ने चोरी से
लाया होता है तो हमारे अन्दर भी बुरे विचार ही आने लगते हैं । यदि हम एसा
अन्न खाते हैं , जिसमें पौष्टिक तत्व ही नहीं होते , इस अन्न से पेट तो
अवश्य बर जाता है किन्तु शरीर में इससे किसी प्रकार की शक्ति नहीं आती ।
इस लिए सदा पवित्र व शति वर्धक अन्न का ही प्रयोग करना चाहिये । इस
समबन्ध में मन्त्र अपने दूसरे भाग में इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
सुख , प्रीति व बल बटाने के लिए हमें अन्न भी एसे का ही
उपभोग करना आवश्यक है , जो अन्न हमारे सुखों को बटाने की शक्ति से
सम्पन्न हो । हम एसे अन्न का अपने लिए प्रयोग करें जो हमारे अन्दर प्रीति
अथवा भ्रात्र भाव बटाने वाला हो तथा हम एसे अन्न को उपयोग में लावें कि
जिससे हमारे अन्दर बल , वीर्य आदि को बटाने वाला हॊ । यह सुख , शान्ति ,
सम्रद्धि, प्रीति तथा शक्ति आदि बटाने वाला अन्न ही सात्विक होता है तथा
सात्विक अन्न का उपभोग ही हमारे जीवन को यह सब शक्तियां देने वाला होता
है । इसलिए हमें सदा एसा अन्न ही अपने खाने में उपयोग में लाना चाहिये ।
जब इस सात्विक अन्न को खाया जाता है तो इससे हमारे अन्दर सात्विक
व्रतियां बटती हैं । सात्विक व्रतियां जब बट जाती है तो हम अपने अन्दर
सोम की रक्शा बडी सरलता से कर पाने में सक्शम होते हैं । इस लिए हमें सदा
सात्विक अन्नों का ही सेवन करना चाहिये ।
हम इस शरीर को असमय नष्ट न होने दें
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा ने हमें यह जीवन , यह शरीर कर्म करने के
लिए दिया है । इसलिए हम प्रतिदिन वेद आदि उत्तम ग्रन्थों का स्वाध्याय
करें तथा जितेन्द्रिय बन विषयों से उपर उटते हुए प्रभु के दिए इस शरीर की
रक्शा करें । इसे समय से पूर्व नष्ट न होने दें । इस भावना को ही स्पष्ट
करते हुए यह मन्त्र इस प्रकार उपदेश कर रहा है : –
म आ नो मती अभि द्रुहन तनूनामिन्द्र गिर्वाण: ।
ईशानो यवया वधम ॥ रिग्वेद १.५.१० ॥
मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हे जितेन्द्रिय मानव ! जिस
मनुष्य ने अपनी वासनाओं पर अधिकार स्थापित कर लिया हो , अपनी वासनाओं को
पराजित कर दिया हो तथा जिस व्यक्ति ने अपने अन्दर के शत्रुओं को यथा काम
, क्रोध, मद , लोभ , अहंकार आदि पर विजय पा ली हो , उसे जितेन्द्रिय कहा
जाता है । मन्त्र एसे ही व्यक्ति को सम्बोधन करते हुए उसे कह रहा है कि
विगत मन्त्र के अनुसार तूंने सात्विक अन्नों का प्रयोग किया है । इन
सात्विक अन्नों के सेवन से तूं सोम का रक्शण करने वाला बन गया है तथा सोम
के रक्शण से तूने विषयों को पीछे छोड दिया है तथा कहा है कि जो लोग
विष्यों के पीछे मरते फ़िरते हैं , उन्हें छोडते नहीं , वह हमारे इस शरीर
का हनन करने की इच्छा न करें ।
इस से एक तथ्य सामने आता है , वह है कि सात्विक आन्न का जो
लोग सेवन न कर सदा ताम्सिक अन्न का ही सेवन करते हैं , वह न केवल अपने
शरीर में अनेक दोषों को ही स्थान दे देते हैं बल्कि एसे दुर्गुण भी भर
लेते हैं , जो विनाश कारी होते हैं । एसे लोग सदा दूसरों का बुरा ही
चाहते हैं , दूसरों के धन पर अधिकार जमाने का यत्न तथा दूसरों की सम्पति
पर सदा बुरी नजर रखते हैं । इन्हें दूसरों को मारने में भी आनन्द का ही
अनुभव होता है क्योंकि दूसरे को मार कर ही उसे धन मिलता है । मन्त्र कहता
है कि हम न तो ताम्सिक अन्न का ही सेवन करें तथा न ही एसे अन्न का सेवन
करने वालों के हाथों हम अपने नाश को प्राप्त…