ललित मोहन, रुद्रपुर 10 नवम्बर, 2012. उताराखंड स्थापना दिवस की 12 वीं वर्षगाँठ के शुभ अवसर पर स्थानीय गांधी पार्क में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया. शाम 5 बजे के समीप शुरू हुए कार्यक्रम के आरम्भ में अल्मोड़ा के कलाकारों द्वारा छोलिया नृत्य की प्रस्तुति दी गयी. इसके बाद मुंबई से आये कलाकारों ने गज्लें पेश कीं. अपरिपक्व साउंड संचालक गज्लों के पूरे कार्यक्रम में साउंड सही नहीं कर पाया. इस तरह एक सुन्दर गायन ख़राब साउंड व्यवस्था की भेंट चढ़ गया. श्रोता संगीत का आनंद नहीं उठा पाए.
मुशायरे के लिए साउंड में बैलेंस की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए साउंड वाले के पाप धुल गए. लोग गज्लों में साउंड की घटिया बैलान्सिंग को भूल; शायरों और कवियों की वाणी के जादू में खोते चले गए. लगभग 10 बजे शुरू हुआ मुशायरा रात के 2 बजे समाप्त हुआ.
मुशायरे की शुरुआत शायरा ‘शबीना अदीब’ के द्वारा गायी सरस्वती वंदना से हुई. इसके बाद कार्यक्रम के संचालक डॉक्टर निर्मल दर्शन ने सबसे पहले डॉक्टर तारिक कमर उनके कलाम पेश करने के लिए आमंत्रित किया. डॉक्टर तारिक कमर ने अपने शेर कुछ इस तरह पढ़े-
रिश्तों की तहज़ीब निभाते रहते हैं, दोनों रस्मन आते जाते रहते हैं,
तेज़ हवा चुपचाप गुज़रती रहती है, सूखे पत्ते शोर मचाते रहते हैं
कागज़ की एक नाव आर पार हो गयी, इसमें समन्दरों की कहाँ हार हो गयी
तारिक तुम्हारे मिटने से दुश्मन ही खुश नहीं, कुछ दोस्तों की राह भी हमवार हो गयी
डॉक्टर तारिक कमर के बाद शशांक प्रभाकर को बुलाया गया उनका अंदाज़-ए-बयां कुछ यूँ रहा-
मौत तो मैंने इस मुट्ठी में दबा रक्खी है, और ये ज़िंदगी गीतों में सजा रक्खी है
कोइ तलवार मुझे काट नहीं सकती है, मेरे माथे पे मेरी माँ की दुआ रक्खी है
चराग अब तो अंधेरों की जुबां बोलते हैं, लोग चांदी की तराजू में धरम तोलते हैं
शशांक प्रभाकर के बाद बारी आयी शायरा शबीना अदीब की, जिन्होंने अपनी रचनाओं को खूबसूरत
धुनों में पेश किया-
हमें बना के तुम अपनी चाहत, खुशी को दिल के क़रीब कर लो,
तुम्हें हम अपना नसीब कर लें, हमें तुम अपना नसीब कर लो
गरीब लोगों की उम्र भर की गरीबी मिट जाए ऐ अमीरों
बस एक दिन के लिए तुम ज़रा सा खुद को गरीब कर लो
तुम्हारा चेहरा चिरागों में कौन रखता है, मेरी तरह तुम्हें आँखों में कौन रखता है
खुदा की ज़ात पे हमको यकीन है वर्ना, दिए जला के हवाओं में कौन रखता है
इन शेरों के बाद शबीना अदीब ने एक नज़्म पढ़ी-
ख़ामोश लब है झुकी हैं पलकें, दिलों में उल्फ़त नयी-नयी है
अभी तकल्लुफ़ है गुफ्तगू में, अभी मुहब्बत नयी-नयी है
अभी न आयेगी नीद तुमको, अभी न हमको सुकून मिलेगा
अभी तो धड्केगा ये दिल ज्यादा, अभी मुहब्बत नयी-नयी है
जो ख़ानदानी रईस हैं वो मिज़ाज रखते हैं नर्म अपना
तुम्हारा लहज़ा बता रहा है तुम्हारी दौलत नयी-नयी है
इसके बाद एक नज़्म पढ़ी-
तू किसी रास्ते का मुसाफिर रहे, में एक-एक ठोकर उठा लाऊँगी
अपनी बेचैन पलकों से चुन-छु के मैं, तेरे रस्ते से पत्थर उठा लाऊँगी
मैं बराक प्यार का मोड़ सकती नहीं, ज़िंदगी में तुझे छोड़ सकती नहीं,
तू अगर मेरे घर तक नहीं आयेगा, में तेरे पास ही घर उठा लाऊँगी
एक गीत मुंबई शहर की कट्टरवादिता के खिलाफ पेश किया-
आग धुआँ फ़ैली और जीत हुई शैतान की,
ये कैसी तस्वीर बना दी तुमने हिन्दुस्तान की
इसी गीत में आगे कहा-
हिन्दुस्तान का कोना-कोना हर हिन्दी का सपना है,
कन्याकुमारी से कश्मीर तक सब अपना है,
ये धरती जागीर है धरती के हर इंसान की
शबीना अदीब के बाद इटावा से आये कुमार मनोज ने अपने काव्य पाठ की शुरुआत कुछ इस तरह की-
पसीना पोछने की भी जिन्हें मोहलत नहीं मिलती,
उन्हें के पेट को रोटी सरों को छत नहीं मिलती
हिन्दुओं में फ़िराक, मोमिनों में रसखान मिल जाते हैं,
गोकुल की गलियों में गाय चराते भगवान् मिल जाते हैं
कुमार मनोज के बाद बारी थी डॉक्टर पॉपुलर मेरठी की जिन्होंने हर श्रोता को जी भर के ठहाके
लगाने पर मजबूर कर दिया-
मैं हूँ जिस हाल ए में मेरे सनम रहने दे,
चाकू मत दे मेरे हाथ में क़लम रहने दे
में तो शायर हूँ मेरा दिल बहुत नाज़ुक है,
मैं तो पठाखे से ही मर जाऊँगा बम रहने दे
राग तोड़ी क्या था जाने क्या गाते रहे,
प्यार का इज़हार करने को ज़िंदगी भर,
वो भी हकलाते रहे, हम भी हकलाते रहे
डॉक्टर पॉपुलर मेरठी के बाद कार्यक्रम का संचालन कर रहे डॉक्टर निर्मल दर्शन ने अपनी रचनाएँ सुनाई-
ये दिल सब कुछ गवाना चाहता है, न जाने क्या ये पाना चाहता है,
वो आँसू तो बहाना चाहता है, मगर कोई बहाना चाहता है
क़फ़स हो या कोइ ठिकाना, परिंदा तो आशियाना चाहता है
वो बैठा है ग़मों को भुलाने, वो शायद मुस्कुराना चाहता है
तुम इस तरह मेरी यादों के दरमियान उगे,
की जैसे ज़र्रे के अन्दर से एक जहाँन उगे
इसके बाद एक गीत प्रस्तुत किया-
जो तुम भी करते मुझसे प्यार,
तुम माझी के गीतों को गाते, मैं खेता पतवार…
स्वप्न हमारे आज नहीं तो कल पूरे हो जाते
आशाओं के महल कभी तो हम तामीर कराते
तुम होते तो स्वर्ग से सुन्दर लगता ये संसार
जो तुम भी…
मैं भी अकेला तुम भी अकेले, राह कठिन जीवन की,
और व्यथा भी एक ही जैसी, हम दोनों के मन की
अधरों पर आने को आतुर अंतस के उदगार
याद तुम्हें भी आती होंगी वो मद्पूरित यादें,
बिना कहे ही हो जाती थीं कितनी सारी बातें
क्यूँ होता उस सुखमय युग का अर्थरहित व्यापार
एकाकी जीवन क्या देगा कुछ सोचो तो निर्मल
गरजे लेकिन बरस न पाए नीर बिना ये बादल
मैं बैठा हूँ तुम भी आओ स्वप्न महल के द्वार,
जो तुम भी…
डॉक्टर निर्मल दर्शन के बाद अगले शायर थे जौहर कानपुरी-
मुहब्बत आज भी जिंदा है इन कच्चे घरानों में,
मेरा बेटा बड़ा होकर भी मेरा सर दबाता है
बहन हो भाई हो बेटा हो बीवी हो या महबूबा,
किसी का प्यार माँ के जैसे हो नहीं सकता
मैं मर भी जाऊँ तो ये धरती माँ गोदी में रखती है,
अब इतना गैर का बच्चा तो प्यारा हो नहीं सकता
जौहर कानपुरी के बाद श्रोताओं को डॉक्टर सुरेन्द्र दुबे ने अपने अनोखे अंदाज़ से श्रोताओं को खूब हँसाया-
सुखी रहो आनंद में जियो बरस हज़ार,
तुम ऐसे फूलो फलो जैसे भ्रष्टाचार
नारी के मन में मिली दो इच्छाएं ख़ास,
श्रुत तो श्रवण कुमार हो पति तुलसीदास
नवयुग की फ़ितरत नयी आज गए सब भाँप,
कौवा काटे झूठ पर सत्य कहो तो सांप
केवल होते ही नहीं दीवारों के कान,
होती हर दीवार में चुगुलखोर जुबान
डॉक्टर सुरेन्द्र दुबे के बाद डॉक्टर कीर्ति काले ने मंच समभाला और अपने काव्यपाठ की शुरुआत इस तरह की-
ऐसा सम्बन्ध जिया हमने जिसमें कोइ बंध नहीं…
और एक की प्रस्तुत किया-
है बड़ा आनन्द इस मीठी थकन के बाद,
तन किसी गोबर लिपि दीवार सी था साथिया,
आत्म पावन लगे जैसे हवन के बाद
है बड़ा आनन्द…
नर्म वासंती छुवन मिल जाए पतझड़ को,
राग की सरगम मिले भटके हुए स्वर को,
छाँह मिल जाए घनी जैसे तपन के बाद
सिलवटें मिट जाएँ जाए सिलवटों के बीच,
बर्फ सी पिघले दहकती आहटों के बीच
चंदनी आलेप हो जैसे जलन के बाद
है बड़ा आनन्द…
डॉक्टर कीर्ति काले के बाद डॉक्टर राहत इन्दौरी को उनकी शायरी पर श्रोताओं की खूब दाद मिली-
किसने दस्तक दी ये दिल पर कौन है,
आप तो अन्दर हैं बाहर कौन है
शहर में तो बारूदों का मौसम है,
गाँव चलो अमरूदों का मौसम है
सरहदों पर बहुत तनाव है क्या,
कुछ पता करो चुनाव है क्या
मेरी साँसों में समाया भी बहुत लगता है,
और शख्स पराया भी बहुत लगता है,
उससे मिलने की तमन्ना भी बहुत है,
लेकिन आने जाने में किराया भी बहुत लगता है
जुबां तो खोल नज़र तो मिला, जवाब तो दे मैं कितनी बार लुटा हूँ,
मुझे हिसाब तो दे
तेरे बदन की लिखावट में है उतार चढ़ाव, में तुझे पढूँगा,
मुझको किताब तो दे
फैसला कुछ भी हो मंज़ूर होना चाहिए,
जंग हो या इश्क भरपूर होना चाहिए
भूलना भी है ज़रूरी याद रखने के लिए,
पास रहना है तो थोड़ा दूर होना चाहिए
कट चुकी है उम्र सारी जिनकी पत्थर तोड़ते,
अब तो इन हाथों में कोहिनूर होना चाहिए
नयी हवाओं की सोहबत बिगाड़ देती है,
कबतूरों को खुली छत बिगाड़ देती है
जो जुर्म करते हैं इतने बुरे नहीं होते,
सज़ा न दे के अदालत बिगाड़ देती है
कश्ती तेरा नसीब चमकदार कर दिया,
इस पार के थपेड़ों ने उस पार कर दिया
अफ़वाह थी कि मेरी तबीयत ख़राब थी,
लोगों ने पूछ-पूछ के बीमार कर दिया
दो ग़ज़ सही मगर ये मेरी मिलकियत तो है,
ए मौत तूने मुझको ज़मींदार कर दिया
रोज़ वही कोशिश ज़िंदा रहने की,
मरने की भी कुछ तय्यारी किया करो
चाँद ज़्यादा रोशन है तो रहने दो,
जुगनू भय्या जी मत भारी किया करो
उंगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो,
खर्च करने से पहले कमाया करो
ज़िंदगी क्या है खुद ही समझ जाओगे,
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो
चाँद सूरज कहाँ, अपनी मंजिल कहाँ,
ऐसे वैसों को मुंह मत लगाया करो
मेरे हुजरे [कुटिया] में नहीं और कहीं पर रख दो,
आसमाँ लाये हो, ले आओ ज़मीं पर रख दो
अब कहाँ जाओगे ढूँढने हमारे क़ातिल,
आप तो क़त्ल का इल्ज़ाम हमीं पर रख दो
हो वो जमना का किनारा ये कोइ शर्त नहीं,
मिट्टी-मिट्टी ही में रखनी है कहीं पर रख दो
मैंने जिस ताक पे कुछ दिए रक्खे हैं,
चाँद तारों को भी ले जाकर वहीं पर रख दो
डॉक्टर राहत इन्दौरी के बाद एक और विश्वप्रसिद्ध शायर डॉक्टर वसीम बरेलवी का रुद्रपुर जैसे शहर के मुशायरे में एक के बाद एक कई शेरों को पढ़ना मुशायरे में चार चाँद लगाता रहा. रुद्रपुर में संजीदा शायरी के क़द्रदानों की भारी कमी है. लेकिन इस महफ़िल में उपस्थित श्रोताओं के उन्हें बड़ी तन्मयता के साथ सुना.
तआल्लुक के तक़ाज़े कितने पीछे छूट जाते हैं,
बहुत दिन साथ रहने से भी रिश्ते टूट जाते हैं.
तुम्हारे हुस्न की तफ़सील कौन बतलाये,
जो देखता है वो आँखों में डूब जाता है
ये हममें तुममें जो दूरियाँ हैं तो आओ इसका सबब भी जानें,
किसी के हाथों में तुम भी खेले हुए किसी के शिकार हम भी
क़तरा अब एह्तजाज़ [आन्दोलन] करे भी तो क्या मिले,
अरे दरिया जो लग रहे थे समंदर से जा मिले
हर शख्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ़,
फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले
इस दौरे मुंसिफी में ज़रूरी नहीं वसीम
जिस शख्स की ख़ता हो उसी को सज़ा मिले
शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ
कीजिये मुझे कुबूल मेरी हर कमीं के साथ
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों के लहज़े में बात करता है
खुली छतों के दिए कब के बुझ गए होते
कोई तो है जो हवाओं के पर कुतरता है
शराफ़तों की यहाँ कोई एहमियत ही नहीं
किसी का कुछ ना बिगाड़ो तो कौन डरता है
ज़मीं की क़ौमी विकालत हो फिर नहीं चलती
जब आसमाँ से कोई फैसला उतरता है
तुम आ गए हो तो चाँदनी सी बातें हों
ज़मी पे चाँद कहाँ रोज़-रोज़ उतरता है
शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं
इतने समझौतों पे जीते हैं की मर जाते हैं
फिर वही तल्खि-ए-हालात मुक़द्दर ठहरी
नशे कैसे भी हों कुछ दिन में उतर जाते हैं
एक जुदाई का वो लम्हा जो मरता ही नहीं
लोग कहते हैं की सब वक़्त गुज़र जाते हैं
घर की गिरती ही दीवारें ही मुझसे अच्छी हैं
रास्ता चलते हुए लोग ठहर जाते हैं
हम तो बेनाम इरादों के मुसाफिर हैं ‘वसीम’
कुछ पता हो तो बताएं किधर जाते हैं
खुद को मनवाने का मुझको हुनर आता है,
मैं वो क़तरा हूँ समंदर मेरे घर आता है
मेरी नज़रों को बरतना कोइ तुमसे सीखे
जितना मैं देख सकूँ उतना नज़र आता है
गीत ‘पछतावे’
सपने जैसा यौवन तितली जैसा प्यार
कहीं मिल जाए फिर एक बार
फूलों में बस कर रह जाऊँ, खुशबू के पर क़तरूं
पायल की आवाज़ को अपने पाँव से बाँध के रक्खूं
पतझड़ पर अब कभी न खुलने दूंगी अपने द्वार
कहीं मिल जाए फिर एक बार…
सावन को चुनरी कर लूं , साँसों में रख लूं बूँदें
बाहों के घर में ले लूं चाँद की प्यारी किरणें
उम्र से अबके छीन लूंगी ढलने का अधिकार
कहीं मिल जाए फिर एक बार…
कैसे-कैसे भावुक पल अभिमान की भेंट चढ़ाए
साजन मैं खुद सोई और तुझे तारे गिनवाए
अब न कभी जीतूंगी मैंने मानी ऐसी हार
कहीं मिल जाए फिर एक बार…
कार्यक्रम के अंत में पद्मविभूषण गोपाल दास नीरज ने मंच संभाला. लोग उनके गीतों का इन्तेज़ार शुरू से ही कर रहे थे. जब नीरज जी ने माइक की तरफ क़दम बढ़ाए तो उस क्षण मंच संचालक डॉक्टर निर्मल दर्शन ने उन पलों अत्यंत दुर्लभ और सभी श्रोताओं के लिए सौभाग्य की बात कहा. नीरजजी ने भी देर न करते हुए तुरंत अपना काव्य पाठ शुरू कर दिया. 88 बरस की उम्र में भी उन्हें सब याद था. एक प्रवाह में वह अपने चिरपरिचित अंदाज़ में गीत सुनाते गए. संचालक ने बीच में जब उन्हें जिलाधिकारी की ‘ऐ भाई ज़रा देख के चलो’ की फरमाइश से अवगत कराया तो उन्होंने अपनी धुन में कहा- ‘पहले इसे सुनो’-
जितना कम सामान रहेगा, उतना सफ़र आसान रहेगा
जब तक भारी बक्सा होगा, तब तक तू हैरान रहेगा
उससे मिलना नामुमकिन है जब तक खुद में ध्यान रहेगा
हाथ मिले हों और दिल न मिले हों, ऐसे में नुक्सान रहेगा
समय ने जब भी अंधेरों से दोस्ती की है,
जला के घर हमने रोशनी की है
सुबूत हैं मेरे घर के ये धब्बे
कभी यहाँ उजालों ने खुदखुशी की है
कभी भी वक़्त ने उनको नहीं माफ़ किया
जिन्होंने गरीबों से दिल्लगी की है
हर धर्म के आदेश को माना मैंने
दर्शन के हर सूत्र को छाना मैंने
जब जान लिया सब कुछ
मैं कुछ भी नहीं जानता ये जाना मैंने
आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है कवि होना सौभाग्य
तन से भारी सांस है इसे संभालो खूब
मुर्दा जल में तैरता जिंदा जाता डूब
अब तो एक ऐसा वरक मेरा तेरा ईमान हो
एक तरफ़ गीता हो एक तरफ क़ुरान हो
गीत-
हाय ये कैसा मौसम आया, पंछी गाना भूल गए
बुलबुल भूली गज्लें पपीहे प्रेम तराना भूल गए
जाने हवा चली ये कैसी कैक्टस उगे गुलाबों में
नफ़रत पढ़ने लगी पीढियां खुशबू भरी किताबों में
बम और बारूद की भाषा इतनी भाई दुनिया को
कि आग लगाना याद रहा हम आग बुझाना भूल गए
दूध दही वाली धरती पर बारूदों के दाग़ मिले
और बुझते हुए चिराग़ मिले,
इधर बिलखती है ये गुड़िया तडपे उधर खिलौना वो
कौन है वो जो बच्चों को भी गोद उठाना भूल गए
हाय ये कैसा…
पूजा बनी अर्थ की सेवा मज़हब एक जूनून हुआ
मंदिर मस्जिद के दरवाज़े इंसानों का खून हुआ
झूठे क्षेत्रवाद ने बढ़कर यूँ भरमाया लोगों को
ईंटों का घर याद रहा हम दिल का ठिकाना भूल गए
हाय ये कैसा…
लड़ना हमें गरीबी से था और हम लड़े गरीबों से,
जिन्हें मिलाना दिल हमसे था वो जा मिले रक़ीबों से
नानक और चिश्ती के बेटे सूर-तुलसी के वंशज
ऐसे बने विदेशी अपना गाँव पुराना भूल गए
हाय ये कैसा…
कौन हिन्दू कौन मुस्लिम कौन सिख इसाई रे
एक तरह से ही होती है सब की यहाँ विदाई रे
जब तक डेरा पड़ा यहाँ पर धरती का कुछ क़र्ज़ चुका
उनका जीना क्या जो माँ का क़र्ज़ चुकाना भूल गए
हाय ये कैसा…
ग़ज़ल-
हम तेरी चाह में ए यार वहाँ तक पहुँचे
होश ये भी न रहा है कहाँ तक पहुँचे
सदियों-सदियों न वहां पहुँचेगी दुनिया सारी
एक ही घूँट में मस्ताने जहां तक पहुँचे
वो न ज्ञानी न ध्यानी न बिरहमन न शेख
वो कोई और थे जो तेरे मकान तक पहुँचे
चाँद को छू के चले आये हैं विज्ञान के पंख
देखना है की इंसान कहाँ तक पहुँचे
अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ कर कुल शहर में बरसात हुई
ज़िंदगी भर तो हुई ग़ैरों से मगर
आज तक हमसे हमारी न मुलाक़ात हुई
आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुज़री
था लुटेरों का जहाँ गाँव वहीं रात हुई
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए
आग बहती है यहाँ गंगा में झेलम में भी
कोई बताये कहाँ जा के नहाया जाए
मेरा मकसद है ये महफ़िल रहे रोशन यूँ ही
ख़ून चाहे मेरा दीपों में जलाया जाए
मेरे दुःख दर्द का तुझ पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी न खाया जाए
फौलाद की मूरत भी पिघल सकती है
पत्थर से भी रसधार निकल सकती है
इंसान अगर अपनी पे आ जाए
तो कैसी भी हो तकदीर बदल सकती है
चुप-चुप अश्रु बहाने वालो मोटी व्यर्थ लुटाने वालो
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मारा करता है
सपना क्या है नैन सेज पर सोया हुआ आँख का पानी
कुछ भी मिटता यहाँ पर, केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी, पहने सुबह धुप की धोती
चाल बदल कर जाने वालो, वस्त्र बदल कर आने वालो
चंद् खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मारा करता है
लाखों बार गगरिया फूटी, शिकन न पर आयी पनघट पर
लाखों बार कश्तियाँ डूबीं चहल-पहल वही है तट पर
तन की उम्र बढ़ाने वालो…
अब फरमाइश पूरी करने की बारी थी, इसलिए अंत में नीरज जी ने अपना मशहूर गीत ‘ए भाई ज़रा देख के चलो’ सुनाया साथ की उसकी व्याख्या भी की और अभिनेता और फिल्मकार स्वर्गीय राज कपूर से जुड़े अपने संस्मरण सुनाए. यह गीत नीरजजी ने राज कपूर की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के लिए लिखा था. उस दौर की मशहूर संगीतकार जोड़ी शंकर-जयकिशन ने इसे संगीत से सजाया था.
रुद्रपुर में यह कार्यक्रम पूरी तरह एक सरकारी कार्यक्रम था. परन्तु मुशायरे में जो समां बंधा वो कम ही बंध पाता है. सुनने वाले बहुत कम थे. क्यूंकि कार्यक्रम का प्रचार घोर गरीबी के साथ किया गया था. वर्ना तराई के नाम से जाने जाने वाले परन्तु संस्कृतिप्रेमियों के घोर अकाल वाले इस क्षेत्र में सुनने वाले कुछ और भी थे. प्रचार की कमीं के कारण एक कमाल का मुशायरा चंद सरकारी कर्मचारियों और कुछ बाद खुशनसीबों तक सिमट कर रह गया.