भारत के समस्त
शासन प्रमुखों से विनम्र अनुरोध
मान्यवर ,
जन शिकायतों पर कार्यवाही या खानापूर्ति
मैं आपका का ध्यान देश की शासन प्रणाली और जन शिकायतों के प्रति उसकी संवेदनहीनता की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ| सर्प्रथम तो मेरा निवेदन है कि निचले स्तर के अधिकारी उन्हें दी गयी शिकायतों पर समान्यतया तब तक कोई कार्यवाही नहीं करते हैं जब तक कि उन्हें ऊपरी स्तर से कोई निर्देश नहीं मिलें| यह सब इसलिए संपन्न हो रहा है कि अधिकारीगण अपने आपको जनता का सेवक समझने की बजाय वरिष्ठ अधिकारी का निजी सेवक समझते हैं|
जब नागरिकों को निचले स्तर पर समय पर वांछित राहत नहीं मिल पाती तो वे राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, विधायिका, मुख्य मंत्री, मुख्य सचिव, राज्यपाल, विभागीय मंत्री, उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय आदि को इस विश्वास के साथ शिकायत भेजते हैं कि इस बार उन्हें राहत मिलेगी| किन्तु इन उच्चाधिकारियों के सचिवालयों द्वारा भी इन पर कोई सम्यक कार्यवाही नहीं की जा रही है और जन शिकायतों को, बिना उन पर कोई समुचित निर्देश दिए ही, डाकघर की भांति मात्र अग्रेसित कर कोरी औपचारिकता की पूर्ति की जा रही है| शिकायतकर्ता को यह निर्देश दिए जाते हैं कि वह भविष्य में उक्त अधिकारी से ही संपर्क करे| यहाँ तक कि राज्य सभा में जन शिकायतों पर अलग से एक कमिटी कार्यरत है किन्तु यह कमिटी सचिवालय भी निर्लज्जतापूर्वक यही जन विरोधी मार्ग अपनाती है मानो कि यह राज्य सभा न होकर कोई स्वयम्भू तानाशाह सभा हो| विचारणीय है कि यदि शिकायत के मात्र अग्रेषण या सम्बंधित विभाग में प्राप्ति से ही यदि कोई हल निकलता तो व्यथित व्यक्ति उच्चाधिकारी से संपर्क क्यों करता और क्यों ही यह लंबा घुमावदार रास्ता अपनाता|
इन उच्चाधिकारियों के पद और सचिवालयों के संचालन में जनता का बड़ा भारी धन खर्च हो रहा है और उनसे आम नागरिक को मात्र डाकघर के डाकिये, जिसे अत्यंत कम वेतन दिया जाता है, जैसी सेवाएं मिल रही हैं| डाकघर के संचालन के लिये देश की दो तिहाई गरीब जनता इतना भारी भरकम खर्चा वहन करने में असमर्थ है| जिस व्यथा पर सुनवाई की शक्ति मात्र उच्चतम पदाधिकारी में हो उसका निपटान भी, काम चलाऊ सरकार की भांति, सचिव द्वारा निस्संकोच दिया जा रहा है जो स्वस्थ लोकतंत्र और चुनी गयी सरकार के अस्तित्व पर बड़ा प्रश्न चिन्ह खडा कर रहा है| किसी अधिकारी के दुराचरण के मामले में उसे हटाने के निवेदन को भी इन अधिकारियों द्वारा अग्रेसित करते समय पत्र में “आवश्यक कार्यवाही की बजाय”, एक सोची समझी युक्ति और कूटनीति के तहत, मात्र “आवश्यक ध्यान हेतु” लिखा जाता है जिसे प्राप्तकर्ता विभाग अग्रिम कार्यवाही के लिए अपर्याप्त आदेश बताकर नत्थी कर देता है|
केन्द्रीय सचिवालय मेनुअल के पैर 66 (5) में यह स्पष्ट कहा गया है कि जन शिकायतों को मात्र प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण से नहीं अपितु जनता के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए| ठीक इसी प्रकार अध्याय 3 पैरा 5 (3) में भी कहा गया है कि सचिव मंत्रालय का सर्वोच्च सलाहकार होता है| किन्तु उसे नीतिगत मामले में निर्णय का अधिकार किसी भी नियम में नहीं दिया गया है फिर भी वे अपने अधिकार क्षेत्र के अतिक्रमण में नीतिगत मामलों में निर्णय ले रहे हैं | देश के संविद्धन ने अनुच्छेद 350 में यद्यपि जनता को अपनी व्यथाएं के निराकरण का प्रावधान किया है| किन्तु नियमो-कानूनों की जनता के सेवकों द्वारा कोई अनुपालना नहीं हो रही है यहाँ तक कि स्वयम प्रधान मंत्री के आधीनस्थ्य में कार्यरत प्रशासनिक सुधार और जन शिकायत विभाग के अज्ञानी, जन विरोधी और दुर्बुद्धि अधिकारी कहते हैं कि जन शिकायतों का निराकरण आवश्यक (Mandatory ) नहीं है | ऐसा लगता है कि देश में जनता को राहत वाले कानून तो मात्र दिखावे के लिए व शेष कानून किसी तानाशाह और निरंकुश सरकार द्वारा जनता को रौंदने –कुचलने के लिए मात्र के लिए बनाए जा रहे हैं|
यदि उच्च लोक पदधारी जनता को वास्तव में कोई राहत देना चाहते हैं तो अपनाई जाने वाली सम्पूर्ण प्रक्रिया पारदर्शी व जनानुकूल होनी चाहिए और जन शिकायत के सम्बन्ध में किसी भी कनिष्ठ या अधीनस्थ कार्यालय को स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि शिकायतकर्ता की शिकायत की जांच कर उचित पाए जाने पर प्रार्थना 15 दिन में स्वीकार कर उसे, इस कार्यालय को प्रति भेजते हुए, सूचित किया जाए| यदि निर्धारित अवधि में कोई जवाब प्राप्त नहीं होता है तो मनुएल के पैरा 155 (10) के अनुसरण में अग्रिम अनुवर्ती कार्यवाही की जाए| अब कम्प्यूटरीकृत माहोल में ऐसा करना अत्यंत आसान है|
इस प्रसंग में आप द्वारा की गयी कार्यवाही का मात्र मुझे ही नहीं सम्पूर्ण जनता को उत्सुकता से इंतज़ार रहेगा|
आपका शुभेच्छु
मनीराम शर्मा