अरुण कान्त शुक्ला : छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव :
पहला चरण :
मतदान तिथी : 11 नवम्बर 2013, विधानसभा क्षेत्र : 18 , प्रत्याशी : 143
भाजपा और कांग्रेस दोनों में मचा है घमासान
क्या हुआ निर्मला बुच कमेटी की रिपोर्ट का?
घोषणा-पत्रों से गायब आदिवासी मुद्दे
दक्षिण बस्तर में स्थानीय मुद्दों पर मुखर हैं मतदाता
आकार में केरल से भी बड़ा, 10 लाख से ज्यादा आदिवासियों के घर बस्तर के 12 विधानसभा क्षेत्रों में 11 नवम्बर को परा मिलिट्री फोर्सेज की बंदूकों के साये में आदिवासी मतदाता अपने मत का प्रयोग करेंगे। यह वो क्षेत्र है, जहां से पिछले चुनावों में भाजपा को 12 में से 11 विधानसभा क्षेत्रों में जीत मिली थी। यही वो क्षेत्र है जहां 5 महिने पहले परिवर्तन यात्रा के दौरान कांग्रेस के काफिले पर माओवादी हमला हुआ था और कांग्रेस को अपने प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल सहित अनेक वरिष्ठ नेताओं को खोना पड़ा था, जिसमें माओवादी अराजकता के खिलाफ बस्तर में लगातार लड़ने वाले आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा भी शामिल थे। लोगों की याददाश्त में वो घटना अभी भी बनी हुई है। कांग्रेस ने उस हादसे के भावनात्मक दोहन की पूरी तैय्यारी के साथ बस्तर की दंतेवाड़ा सीट से दिवंगत महेंद्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को चुनावी मैदान में उतारा है। इसी चरण में मुख्यमंत्री रमनसिंह के गृह जिले राजनांदगांव के 6 विधानसभा क्षेत्रों में भी मतदान होना है। मुख्यमंत्री रमनसिंह स्वयं राजनांदगांव से प्रत्याशी हैं और कांग्रेस ने उनके खिलाफ झीरम हादसे में मृत पूर्व विधायक रहे दिवंगत उदय मुदलियार की पत्नी अलका मुदलियार को चुनाव में उतारा है।
बस्तर में 2003 में 9 और 2008 में 12 में से 11 सीटें जीतने के बाद, भाजपा की चिंता अब उस परफार्मेंस को दोहराने की है। भाजपा ने अपने मौजूदा 11 में से 9 विधायकों को दोबारा टिकिट दी है| कांग्रेस की सोच के अनुसार इस बार बस्तर में भाजपा आधे से भी कम सीटों पर वापस होगी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जिसका हमेशा ही एक असर इस क्षेत्र में बना रहा है और अविभाजित मध्यप्रदेश में जो विधायक भी यहाँ से भेज चुकी है, उसकी सोच भी कुछ ऐसी ही है। भाकपा यहाँ 12 में से 8 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और उसे पूरा विश्वास है कि उसके लोकप्रिय नेता मनीष कुंजाम आदिवासी के लिए आरक्षित कोंटा विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के वर्तमान विधायक कवासी लखमा को हराकर इस बार विधानसभा में जरुर पहुंचेंगे।
भाजपा और कांग्रेस दोनों में मचा है घमासान
पहले चरण के 18 विधानसभा क्षेत्रों में से सत्तारूढ़ भाजपा व कांग्रेस को एक-एक क्षेत्र में अपने बागियों की खुली चुनौती का सामना करना पड़ेगा, तो बाकी 16 सीटों पर अंदुरुनी मतभेद उसे अंत तक नुकसान पहुचाएंगे। टिकिट वितरण के बाद से उपजे असंतोष ने दोनों ही दलों के अधिकृत प्रत्याशियों से लेकर रणनीतिकारों की चिंता बढ़ा दी है। लाख प्रयासों के बावजूद दोनों दलों के टिकिट वंचितों और उनके समर्थकों की नाराजगी कम नहीं की जा सकी है। रायपुर में एकात्म परिसर, जहां भाजपा का मुख्यालय है, टिकिट घोषणाओं के साथ ही विरोध प्रदर्शनों का ही नहीं, मार-पीठ और सिर फुटोवल का अखाड़ा बना रहा। एक बार तो पोलिस तक बुलानी पड़ी| कांग्रेस का भी कमोबेश यही हाल रहा है। भाजपा और कांग्रेस के लिहाज से खरीन्यूज के दवारा किये गए आंकलन के मुताबिक़ सत्तारूढ़ भाजपा को पहले चरण में 8 सीटों पर तो कांग्रेस को 4 सीटों पर जबर्दस्त विरोध और भीतरघात का सामना करना पड़ेगा। भाजपा के खुज्जी के तीन बार के पूर्व विधायक राजिंदर पाल भाटिया व मानपुर मोहला से कांग्रेस के शिवराज उसारे ने निर्दलीय के रूप में खड़े होकर बगावत की है और जानकारों के अनुसार दोनों के जीतने की संभावना काफी अधिक हैं।
क्या हुआ निर्मला बुच कमेटी की रिपोर्ट का?
अप्रैल 2012 में सुकुमा के कलेक्टर अलेक्स मेनन पॉल का माओवादियों ने अपहरण कर लिया था। छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने मध्यप्रदेश केडर के अधिकारियों निर्मला बुच और एस के मिश्र को माओवादियों से बात करके कलेक्टर को छुड़ाने के लिए नियुक्त किया था। कलेक्टर की रिहाई के पश्चात इन्हीं दोनों अधिकारियों के ऊपर जिम्मेदारी दी गयी थी कि वे पूर्ण छान-बीन करके उन मामलों को राज्य सरकार को सौंपें, जहां वर्षों से आदिवासियों को बिना ट्रायल माओवादी-नक्सलाईट बताकर जेल में बंद रखा गया है। कुछ माह पश्चात निर्मला बुच ने एक रिपोर्ट राज्य शासन को सौंपी, जिनमें अनेक उन मामलों का जिक्र था, जिसमें उन आदिवासियों को रिहा करने की सिफारिश थी, जिन्हें बिना कारण , बिना ट्रायल जेल में बंद करके रखा गया है। कुछ दिनों के प्रोपेगेंडा के बाद उस रिपोर्ट पर आज न तो कांग्रेस कुछ कहती है और न ही भाजपा उसे लागू करने के मूड में है। ज्ञातव्य है की छत्तीसगढ़ की जेलों में दो हजार से ज्यादा ऐसे आदिवासी बंद हैं, जिन्हें बिना ट्रायल माओवादी होने के संदेह में रखा गया है और ये समूचे आदिवासी बेल्ट में खासा असंतोष का कारण है। आज दक्षिण बस्तर में ये सवाल प्रमुखता से पूछा जा रहा है कि निर्मला बुच की उन सिफारिशों का क्या हुआ?
घोषणा-पत्रों से गायब हैं आदिवासी मुद्दे
कांग्रेस ने हाल ही में जारी घोषणा-पत्र में अपनी सरकार बनने पर शिक्षाकर्मियों के लिए समान काम समान वेतन की व्यवस्था लागू करने, धान का समर्थन मूल्य बढ़ाने, महिलाओं के लिए कोष की स्थापना, बिजली दरों में कमी, बस्तर के लिए विकास योजना और पत्रकारों के लिए दुर्घटना राशि में बढ़ोतरी की घोषणाएं की हैं।
घोषणा पत्र में मीडिया कर्मियों का विशेष ध्यान रखा गया है। इसमें कहा गया है कि कांग्रेस की सरकार बनने के बाद मीडिया कर्मियों को दी जाने वाली दुर्घटना राशि पांच लाख रुपये से बढ़ाकर 10 लाख रुपये कर दी जाएगी। इसके साथ ही नई राजधानी में मीडिया कर्मियों को रियायती दरों पर आवासीय भूखंड उपलब्ध कराए जाएंगे। यह भी कहा गया है कि आम लोगों की राय से प्रदेश के विकास के लिए दीर्घकालीन योजनाएं बनाई जाएंगी। सिर्फ आदिवासी क्षेत्र ही नहीं, पूरे प्रदेश में व्याप्त किसानों की जमीनों को जबरिया और झूठी जन-सुनवाईयों के जरिये हड़पने के खिलाफ, जन-स्वास्थ्य सुविधाओं में मूल सुधार और मेडिकल स्टाफ की नियुक्तियों, शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थाओं की मनमानी रोकने के सवाल पर, खेतिहर भूमि में लगातार कमी आने, आदिवासियों को वनाधिकार क़ानून के तहत पत्ता प्रदान करने, उन्हें पेसा और अन्य कानूनों का लाभ दिलाने जैसे सवालों पर यदि कांग्रेस का घोषणा पत्र मौन है तो भाजपा से भी इन सवालों पर कोई उम्मीद की जानी बेकार है, क्योंकि पूरी विकास यात्रा के दौरान न तो मुख्यमंत्री रमनसिंह ने और न ही उनके किसी मंत्री ने इन सवालों को छुआ है।
दक्षिण बस्तर में स्थानीय मुद्दों पर मुखर हैं मतदाता
2003 के चुनावों से अमूमन सभी राज्यों में और केंद्र के चुनाव विकास के मुद्दों को हाईलाईट करके लड़े जा रहे हैं। भाजपा ने पूरे छत्तीसगढ़ में जहां विकास यात्रा निकालकर सैकड़ों करोड़ रुपयों की योजनाओं की घोषणा की थी, वहीं कांग्रेस ने भाजपा के शासनकाल के भ्रष्टाचार और कुशासन को मुद्दा बनाया था। जैसा की खरीन्यूज ने अपने पिछले अंक में बताया था की पिछले दस वर्षों में जहां सत्तारूढ़ भाजपा आदिवासियों को उनके वनाधिकार कानूनों के तहत देय को मुहैय्या कराने में असफल रही है, वहीं कांग्रेस इन मुद्दों को सक्षमता के साथ उठाने में हिचकिचाते रही है| 2008 के चुनावों में रमनसिंह का चाऊर वाले बाबा का रूप दो रुपये किलो चावल की योजना के चलते काफी वोट बटोरने में कामयाब हुआ था| पर, इस बार का चुनाव राष्ट्रीय अथवा प्रांतीय मुद्दों के बजाय स्थानीय मुद्दों पर केन्द्रित होते दिखाई दे रहा है। स्थानीय स्तर पर महंगाई, सड़क, पुल-पुलिया के साथ-साथ जन सुविधाएं भी लोगों में चर्चा का विषय हैं। शिक्षा, जन-स्वास्थ्य सुविधाओं का टोटा, पोलिस का कहर जैसे विषय इस बार के चुनावों को प्रभावित करते नजर आ रहे हैं और निश्चित रूप से स्थानीय मुद्दों पर केन्द्रित चुनावों का विपरीत असर हमेशा सत्तारूढ़ दल पर ही अधिक पड़ता है।
अरुण कान्त शुक्ला