दर्शना देवी डा. अशोक आर्य :
जो कुछ्देने वल्र होते हैं , एसे देवता न्तो क्भी हिंसाही करते
हैं तथा न ही द्रोह या धोखा ही करते हैं । जब यह किसी कार्य को हाथ्में
लेते हैं तो उसे पूर्णता तक समाप्ति तक ले जाते हैं । इन देवताओं की
प्रग्या अर्थात्बुद्धि भी व्यापक , विस्त्रित्व उन्नति कीओर ले जाने वाले
कर्म्मों की सिद्धि में ही रहती है । इस बात को यह्मन्त्र इस प्रकार कह
रहा है : –
विश्वेदेवासो अस्त्रिध एहिमायासो अद्रुह: ।
मेधं जुषन्त वह्नय: ॥रिग्वेद १.३.९ ॥
विगत मन्त्र में बताया गया था कि जब मनुश्य पुरुशार्थ से कार्य
काता है तो उसे दिव्यगुण्मिलते हैं, जिन्हें पाने के लिए वह क्रियाशील
,आलस्य रहित हो पुरुषार्थी बन्कर सोम की रक्शा करने वाला बन “सुज्त”यग्य
करने की योग्यता पा लेता है । इस मन्त्र में पांच बातों पर प्रकाश डालते
हुए कहा है कि : –
१. मानव ने यत्न कर के प्रयत्न करके , पुरुषार्थ करके जिन
दिव्यगुणों को प्राप्त किया है , यह सब दिव्यगुण क्शय से , नाश से , हानि
से , नष्टता से रर्हित होते हैं । भाव यह है कि दिव्य गुण कभी नष्ट नहीं
होते , कभी इन गुणों का हरण नहीं होता , कभी कोई इन गुणों को छीन नहीं
सकता । कोई भी अन्य व्यक्ति इन का शोषण नहीं कर सकता । यह जिस व्यक्ति के
पास एक बार आ जाते हैं , यदि वह व्यक्ति भविष्य में भी अपनी पुरुषार्थी
प्रव्रिति को बनाए रखता है तो यह गुण न तो कभी क्शीण ही होते हैं तथा न
ही इन गुणों का कभी शोषण ही होता है , यह निरन्तर बने रहते हैं । इतना ही
नहीं यह गुण हमें अन्य लोगों का शोषण भी नहीं करने देते । दिव्य गुणों से
युक्त व्यक्ति कभी किसी अन्य की हानि नहीं कर सकता , अन्य की वस्तु पर
अधिकार करने की उसे कभी कोई इच्छा होती ही नहीं । वह तो अन्यों का पोषण
करने वाला होता है , पालन करने वाला होता है , सहायता करने वाला होता है
। इस सब से मन्त्र यह तथ्य स्पष्ट कर रहा है कि जो व्यक्ति दिव्य गुण
प्राप्त कर लेता है , वह भविष्य मे अपने लिए तो, अपने गुणों को ओर बटाने
के लिए तो कार्य करता ही है ,साथ ही साथ वह अन्यों को भी साथ ले कर चलता
है , उन्हें भी अपने जैसा बनाने का यत्न करता है ।
२. जो लोग दिव्य गुणों को धारण कर लेते हैं , उनकी बुद्धि, उनकी
प्रग्या सदा क्रियाशील रहती है , सदा गतिशील रह्ती है , सदा पुउषार्थी
रहती है । भाव यह है कि एसे लोग सदा प्रग्या का , बुद्धि का सम्पादन करते
रहते हैं , व्यवस्थित करते रहते हैं । इस प्रकार इन लोगों की बुद्धि , इन
लोगों की प्रग्या शरीर , मन व बुद्दि की द्रिष्टि से ,बुद्धि की धारना से
अथवा व्यक्ति से आगे बटते हुए , उन्नत होते हुए व्यक्ति से समाज, समाज से
राष्ट्र तथा राष्ट्र से विश्व की ओर बटते हुए निरन्तर क्रियाशील, गतिशील,
पुरुषार्थी , यत्न करने वाली बनी् रहती है । यह लोग अपनी बुद्धि की
सहायता से सदैव इस प्रकार का प्रयास करते हैं , यत्न करते हैं कि उनके
शरीर , उनके मन तथा उनकी बुद्धि तीनों स्वस्थ रहें, प्रगतिशील रहे ,
कार्यशील ,गतिशील व पुरुषार्थी बनी रहें तथा बटती रहे । इतना ही नहीं
उनकी कामना सदा यह ही रहती है कि वह अपने इस पुरुषार्थ से अपनी ही नहीं
अपितु सब प्रकार के व्यक्ति, समाज व राष्ट्र , सब का कल्याण हो , सब ओर
शन्ति हो, खुशहाली ही खुशहाली हो । सब को दिव्यगुणों से युक्त करने का
कारण बनें ।
३. यह विश्वेदेव , यह जो दिव्यगुणों के स्वामी होने से समग्र विश्व
के लिए देवता के आसन पर आसीन हो गये हैं , इन में किसी प्रकार के द्रोह
की , विद्रोह की भावना आ ही नहीं सकती । यह सदा इस प्रकार की कलुशित
भावनाओं से रर्हित होते हैं । यह किसी की जिंघासा नहीं चाहते , किसी की
हानि नहीं चाहते , किसी का नाश नहीं चाहते । वैर -विरोध के तो यह समीप भी
नहीं जाते । सर्व कल्याण की , सर्व मंगल की , सर्व सुख की अविचल भावना के
यह स्वामी होते हैं । यह सब के सहायक होते हैं , हितैषी होते हैं ।
४. यह दिव्यगुण उनके सुखों को बटाने वाले ही नहीं होते अपितु उनका
कार्यभार भी बटाने वाले होते हैं , मानो इन इन गुणों के कारण एसे व्यक्ति
की अपने कार्यालय में उन्नति हो गई है । अब वह नीचे के पद से उपर के पद
पर आसीन हो गया है । पद बडा होने से कार्य का भार भी बट जाता है । इस
प्रकार ही दिव्यगुण पाने से उस व्यक्ति की जिम्मेदारियां भी बट जाती हैं
,उस के कार्य व उसके कर्तव्य भी बट जाते हैं । इस प्र्कार जो कर्तव्य
उनके बट गए हैं , उन्हें वह बडी प्रसन्नता से प्राप्त कर , उन कर्तव्यों
को पूर्ण करने के लिए यत्न शील हो जाते हैं , उन्हे पूरा करने के लिए
पुरुषार्थ, उन्हें पूरा करने के लिए वह अत्य्धिक मेहनत करते हैं । इतना
ही नहीं वह इन कार्यों की पूर्णता के लिए तब तक यत्न , मेहनत व पुरुषार्थ
करते रह्ते है , जब तक अपने उद्देश्य में सफ़ल नहीं हो जाते या यूं कहें
कि जब तक उस कार्य को सम्पन्नता तक , सफ़लता तक पहुंचा नहीं देते अर्थात
जो कार्य वह हाथ में लेते हैं , उसे पूर्ण करके ही छोडतें , कभी अधूरा
नहीं रहने देते ।
५. इस प्रकार के दिव्य गुणों से युक्त लोग अपने कार्यों को , अपने
कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए संगमन की भावना को कभी नहीं छोडते , इस
भावना का अत्यन्त प्रीति के साथ सेवन करते हैं , प्रयोग करते हैं । इस
भावना के साथ ही इन लोगों के सब कार्य होते हैं । परम पिता परमात्मा ने
प्रत्येक मानव के लिए एक उपदेश दिया है , एक आदेश दिया है । उस आदेश को
हम “सं गच्च्ध्वम” इस शब्द से जानते हैं । शब्द का भाव है सबको साथ लेकर
चलें । इस प्रकार के लोग परमपिता परमात्मा के इस आदेश का अक्शरश: पालन
करते हुए अपने जीवन को आगे बटाते हैं , सब को साथ ले कर चलते हुए जीवन को
आगे बटाते हैं , सब के मंगल की भावना के साथ स्वयं भी उन्नत होते हैं तथा
अन्यों को भी उन्नति की उच्च शिखरों पर ले जाने का प्रयास वह निरन्तर
करते रहते ह । जो देव लोग हैं , जो देवता हैं , जो कुछ देने वाले होते
हैं, वह सदा सम्यक ही चलते हैं ,टीक दिशा में ही चलते हैं , विरुद्ध दिशा
का कभी अवलम्बन नहीं करते , विरुध दिशा मे कभी कदम नहीं बटाते , जो सही
है उधर ही चलते हैं । इतना ही नहीं वह तो सब के साथ मिलकर ही चला करते
हैं , सब को साथ लेकर ही चला करते हैं । कभी किसी को पीछे नहीं रहने देते
, उनका यत्न सदा एसा ही रहता है ।
एसे लोग म्रित्यु जैसी भयानक अवस्था को भी जीत लेते हैं , विजय
कर लेते है । उन्हें म्रित्यु जैसी भयानक बिमारी से भी कभी भय नही लगता ,
भय नहीं होता । एसा क्यों ? क्योंकि वह सब को साथ लेकर चलते हैं , मिलकर
चलते हैं । जब कोई अकेला कहीं जा रहा होता है तो उसके मन में कई प्रकार
की चिन्ताए पैदा होती हैं , जो उसे भयभीत कर देती हैं, न आने वाले भय से
भी वह डर जाता है किन्तु जब वह कुछ लोगों के साथ भयभीतत करने वाले भ्यानक
व निर्जन क्शेत्र से निकलता है तो बातचीत करते हुए उसकी यात्रा कब पूर्ण
हो जाती है , उसे पता ही नहीं चलता , भय का तो प्रश्न ही नहीं होता । अत:
दिव्य गुणों से युक्त व्यक्ति समग्र समाज को, समग्र विश्व को अपने साथ
लेकर चलने का यत्न करता है । जब सब लोग उसके साथ होते हैं तो उसे कोई भय
आकर अपने घेरे में ले सके , इसका तो कभी प्रश्न ही पैदा नहीं होता । यही
कारण है कि यह साथ चलने की भावना , यह मिलकर चलने की इच्छा , यह साथ रहने
की अभिलाषा ही म्रित्यु को जीतने का उसके लिए कारण बनकर आती है । जो लोग
इस व्रिति से विपरीत चलते हैं , किसी के साथ चलना पसन्द नहीं करते , एसे
लोगों को असुर प्रव्रिति से युक्त माना जाता है , यह लोग असुरीय विचारों
के होते हैं । इन का कार्य होता है एक व्यक्ति जो कार्य कर रहा है , उसके
कार्य में बाधा खडी करना, विघ्न पैदा करना ,दोश पैदा करना । इस प्रकार की
बुराईयां करते हुए म्रित्यु के मार्ग पर आगे बट्ना तथा दूसरों का नाश
करते हुए स्वयं भी नष्ट हो जाना । राक्शसी प्रव्रितियां विनाश का कार्य
करती हैं तो दैवीय प्रव्रितियां निर्माण का कार्य करती हैं ।
दर्शना देवी डा. अशोक आर्य
१०४- शिप्रा अपार्ट्मेन्त. कौशाम्बी २०१०१० गाजियाबाद