डा. अशोक आर्य : हमारा जीवन यग्य के समान हो । हम सदा सोम का पान करते रहें तथा दूसरों को दान देने में हम आनन्द का अनुभव करें । इस की चर्चा इस मन्त्र में इस प्रकार की गई है : –
उप न: सवना गहि सोमस्य सोमपा: पिव ।
गोदा इन्द्रेवतो मद: ॥ रिग्वेद १.४.२ ॥
विगत मन्त्र में प्रभु भक्त ने अत्यन्त तथा मधुर इच्छाओं वाले बन कर अपने प्रभु से एक प्रार्थना की थी । इस मन्त्र में चार बातों पर विचार देते हुए अपने भक्त की प्रार्थना को सुनकर प्रभु भक्त से कह रहे हैं कि हे भक्त ! तूं हमारे यग्यों को समीपता से प्राप्त होकर निरन्तर वेद में
प्रतिपादित , वेद में वर्णित यग्य आदि कर्मों को कर ।
१.. प्रभु का आदेश है कि हम यग्यों को समीपता से करें तथा इन्हें
वेदादेश के अनुरुप करे । इससे स्पष्ट है कि हम जिन यग्यों को करते हैं ,
उनमें अपनी भागीदारी बनाए रखें , इन्हें दूसरों पर न छोडें । जिस प्रकार
आजकल नौकर प्रव्रिति परिवारों में चल रही है । उस प्रव्रिति का अवलम्बन
करते हुए नौकर अथवा परिवार के किसी सद्स्य से यह यग्य न करवायें अपितु
स्वयं को यग्यों का भाग बना कर करें । स्वयं इन यग्यों को करने में
संलिप्त हों ।
मन्त्र यह भी आदेश दे रहा है कि हम जो भी यग्यादि कर्म करें वह
इस प्रकार करें जैसे कि वेद के माध्यम से परम पिता ने करने का आदेश दिया
है । इस का भाव है कि हम पहले वेद के माध्यम से स्वाध्याय कर वेद में दिए
अर्थ समझें फ़िर तदनुरुप यग्य करें । यग्य का मुख्य अर्थ है दान व परोपकार
। दूसरों की सहायता करना , दूसरों को उपर उटाने के लिए अपने अर्थ संग्रह
का कुछ भाग उनकी सहायतार्थ देना ,दान काना ,प्रभु से संगतिकरण करना ,
प्रभु के बनाए संसार को वैसा ही स्वच्छ व सुन्दर बनाए रखना , जैसा कि उस
पिता ने हमें दिया था ,जिसके लिए अग्निहोत्र करना । यह ही तो यग्य की
भावना है । इस भावना को सम्मुख रखते हुए हम जो दानादि कर्म करें , उसमें
स्वयं को इस प्रकार लिप्त करें कि दान तो हम करें किन्तु यह देते हुए हम
किसी पकार का एहसान या प्रतिफ़ल न चाहें । परमपिता प्रमात्मा बता रहे हैं
कि हे यग्यिक पुरुष ! जब तूं यह सब कार्य कर रहा है तो मैं समझता हूं कि
तूं सच्चे मन से मेरी आराधना कर रहा है ।
२. मन्त्र जिस दूसरी बात पर प्रकाश डाल रहा है , वह है सोम कणों
की रक्शा । पिता कह रहा है कि हे सोमकणों की रक्शा करने वाले आराधक ! तु
अपने इस शरीर में सोमकणों की रक्शा कर । भाव यह है कि वेद ने शक्ति को
सोम स्वीकार किया है । जिस मानव के पास शक्ति है , जिसका शरीर स्वस्थ है
, जिस के शरीर से कान्ति छ्लक रही है , वह पूर्णतया निरोग होता है । जिस
के पास शक्ति ही नहीं है , रोग निरोधक तत्व ही नहीं है , वह रोग से मुक्त
कैसे रह सकता है ? जब वह रोगों से ही ग्रसित है तो दु:ख ही उसके जीवन का
मुख्य भाग बन कर रह जाते हैं । दु:खी व्यक्ति अपने आप को ही नहीं सम्भाल
सकता , ग्यान का अर्जन ही नहीं कर सकता दूसरों का क्या ध्यान करेगा । इस
लिए मानव का सशक्त होना आवश्यक है । जो सशक्त होगा वह ग्यान आदि को
प्राप्त कर उत्तम कर्म कर सकेगा ।
इस लिए पिता ने अपने भक्त को आशीर्वाद देते हुए उपदेश किया है
कि हे मेरे आराधक ! तूं अपने शरीर में शक्ति का संचय कर , शरीर में
सोमकणों का संग्रह कर । फ़िर हम इन सोम कणों की ग्यान की अग्नि में आहुति
दें अर्थात हम अपने जीवन में एकत्र की इस शक्ति को ग्यान प्राप्त करने
में लगावे । उत्तम से उत्तम , उच्च से उच्च ग्यान प्राप्त करने के लिए
सदा प्रयास करें तथा हम ने जो शक्ति, जो सोम अपने शरीर में एकत्र किया है
उसे इस सर्वश्रेट यग्य अर्थात ग्यान को प्राप्त करने मे व्यय करें । यह
सोम कण ही हैं जो ग्यानग्नि में घी का कार्य करते हैं , इसे प्रचण्ड करते
हैं , इसे तीव्र करते हैं ।
३. मन्त्र के तीसरे भाग में वह पिता आदेश कर रहे हैं , उपदेश कर
रहे हैं कि हे पवित्र मानव ! तुने सोमकणॊं को तो अपने शरीर में रक्श्ति
कर लिया तथा इन कणों को यग्यादि कर्मों में प्रयोग कर उत्तम ग्यान भी
प्राप्त कर लिया , अब इस बात को याद रख कि जो धन तू ने अपने यत्न से
एकत्र किया है , जो गौ आदि का संग्रह तूं ने किया है उसके दान में ही
तुझे हर्ष है , तुम्हे इस सब के दान में ही आनन्द की अनुभूति है । जब तक
तूं दिल खोल कर इस धन का सदुपयोग दानादि कार्यों में नहीं करता , तब तक
तुझे अपार आनन्द नहीं मिलने वाला है । अत: दिल खोल कर दान कर । दान में
ही धनवान का आनन्द छुपा है । इस आनन्द को पाने के लिए दान कर ।
४. मन्त्र के इस चतुर्थ व अन्तिम भाग में परम्पिता परमात्मा अपने
आराधक को , अपने भक्त को तीन निर्देश देते हुए कह रहे हैं कि :-
क) हे भक्त ! तूं यग्यादि परोपकार के कार्यों में निरन्तर व्यस्त
रहते हुए अपने अन्दर के क्रोध का दमन कर । क्रोध सब प्रकार के यग्यों का
शत्रु है । एक व्यक्ति दान कर रहा है ओर दान करते हुए भी उसे क्रोध आ रहा
है । क्रोध में जलते हुए वह कह रहा है कि मुफ़्त में यह सब मिल रहा है
किन्तु फ़िर भी इन्हें सबर नही ,लेने का टंग नही , एक पंक्ति में खडे हो
कर ले भी नहीं सकते । इस प्रकार वह क्रोधित हो कर अनाप शनाप बोल रह है तो
उसका यह दान किया भी बेकार हो जाता है । दान देकर भी उसे शान्ति नहीं
मिलती। इस लिए दान दाता को क्रोध को अपने निकट नहीं आने देना चाहिये ,
उसक क्रोध से दूरी बनाए रखना आवश्यक है ।
ख) मानव का ध्येय सोमपान हो । सोम शक्ति का साधन है । अत: वह जीवन
में निरन्तर इस सोम का पान करते हुए अपने शरीर में शक्ति का संचार करता
रहे । इस सोम की शरीर में रक्शा करने के लिए उसका संयमी होना भी आवश्यक
है। यदि वह अपनी इन्द्रियों को संयमित नहीं कर सकता , अपने काबू में नहीं
कर सकता तो वह काम आदि में इस सोम को नष्ट करने लगे गा । जो सोम शरीर में
ग्यान का प्रकाश करने के लिए एकत्र किया गया था ,संयम के अभाव में वह काम
आदि में नष्ट हो जाता है । इस लिए मन्त्र आदेश दे रहा है कि शरीर मे सोम
को एकत्र कर संयम में रहते हुए कामादि दुर्गुणों से बचना चहिए ।
ग) जब मानव लोभ से उपर उट कर दानादि कर्म करता है तो उसे आनन्द की
अनुभूति होती है । इस लिए मन्त्र उपदेश कर रहा है कि हम कभी लोभ न करें ।
जब हम लोभी होते हैं तो यदि हम दान भी करने लगते हैं तो उसमें भी या तो
कुछ बचाने की इच्छा रखते हैं या फ़िर जिस को हम दान दे रहे हैं, उस पर
बहुत बडा एह्सान दिखाते हुए , उससे कुछ प्रतिफ़ल की भी आशा करते हैं । यह
दान नहीं माना जा सकता । तब ही तो मन्त्र कह रहा है कि हम लोभ से ऊपर
ऊटकर दान करें तो हमें आनन्द आवेगा ।
हम दान देते समय क्रोध न करें । दान दया की भावना से होता है
किन्तु जब दान देते हुए भी हम क्रोध करते हैं तो इसमें दया की भावना नहीं
रह पाती क्योंकि क्रोध से उपर उटने को ही दया कहा गया है । अत; हम जो भी
दनादि कर्म करें, वह सब दया भाव से करें ।
दान के समय हम अपने अन्दर की वासनाओं का भी दमन करें । काम एक
एसा तत्व है जो हमार सोमकणों का नाश करता है । अत; काम को हम अपने निकट
भी न आने दें । जब तक हमारे अन्दर काम की भावना है , तब तक हम दानशील हो
ही नहीं सकते क्योंकि काम सब शक्तियों को नष्ट करता है । कामी व्यक्ति
शक्ति की कमीं के कारण खुलकर मेहनत नहीं कर सकता । बिना मेहनत के धनार्जन
नहीं होता ओर जब हमारे पास धन का ही अभाव है तो हम दान कैसे कर सकते हैं
? अत: काम से बचना आवश्यक है । जब हम काम से उपर उटते हैं तो इसे ही
“दमन” कहते हैं ।
मानव जीवन में लोभ भी उसका एक बहुत बडा शत्रु है । यह देखा गया है
कि लोभी व्यक्ति अपने पास अपार धन सम्पदा होते हुए भी जीवन के सुखों से
,दानादि कर्म से वंचित ही रहता है । यहां तक कि कई बार तो एसे लोग भी
देखने को मिलते हैं , जो रुग्ण होते हैं , पास में अपार धन सम्पदा होते
हुए भी लोभ वश वह अपने का स्वयं के रोग का निदान करने में भी कुछ भी व्यय
नही करने को तैयार होते , दूसरे की सहायता तो क्या करेंगे ? एसा धन तो
मिट्टी के टेले के समान ही होता है । इसलिए मन्त्र कहता है कि हम अपने
जीवन में लोभ को स्थान न दे । जो लोभ से ऊपर उट जाता है , वह ही दानी हो
सकता है ।
ये परमपिता परमात्मा के तीन आदेश हैं । इन तीन आदेशों को उस पिता
ने असुरों , मानवों तथा देवों को समान रुप से दिया है । समान रुप से आदेश
देने का भाव यह है कि उस पिता ने बिना किसी भेदभाव के सब को समान अवसर
देते हुए उत्तम बनने के लिए प्रेरित किया है । उपअनिषद मे भी तीन ” द ”
दिए हैं । इन तीन “द” के माध्यम से दया , दमन तथा दान का आदेश उपनिषद ने
किया है । इन तीनों का ही इस मन्त्र में उपदेश है । तीनों पर चलने के लिए
ही तीनों प्रकार के प्राणियों को आदेश प्रभु ने दिया है । जो इन पर चलता
है वह आनन्द विभोर हो जाता है, जो नहीं चलता वह जीवन प्रयन्त दु:खों में
डूबा रहता है ।