संजय पराते : दिनेश चैधरी एक कल्पनाशील रंगकर्मी हैं, जो एक वैकल्पिक मीडिया के रुप में सोशल मीडिया की ताकत को जानते-समझते-इस्तेमाल करते हैं। उनका ब्लाॅग
‘इप्टानामा’ रंगमंच व साहित्य से जुड़े लोगों के बीच एक पहचान बना चुका
है। आधुनिक प्रिंट और इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में रंगकर्म की जो दुर्गति
है, उससे बाहर निकलने की, उस जड़ता को तोड़ने की और सूचनाओं के
आदान-प्रदान सहित रंगकर्म पर सार्थक विमर्श की दिशा में उनका यह प्रयास
सराहनीय है। इस ब्लाॅग की कुछ चुनिंदा रचनाओं तथा कुछ आमंत्रित रचनाओं को
गूंथकर उन्होंने ‘इप्टानामा’ पत्रिका प्रस्तुत की है और ‘इप्टा’ की सत्तर
बरसों की यात्रा पर दृष्टि डालने की कोशिश की है।
‘इप्टानामा’ को उन्होंने सात संक्षिप्त भागों में बांटा है- दस्तावेज़,
समाज व संस्कृति, आमने-सामने, रंगकर्म व मीडिया, संगे मील, अनुदान और
आयोजन व विविधा में। सभी भागों में दो-तीन महत्वपूर्ण आलेख, विमर्श या
दस्तावेज़। शुरूआत में ही अंतर्राश्ट्रीय रंगमंच दिवस पर दारियो फो तथा
अंतर्राश्ट्रीय नृत्य दिवस पर लिन वाइ मिन के महत्वपूर्ण संदेश।
इस प्रकार यह पत्रिका इप्टा से संबंधित कैफी आज़मी, राजेन्द्र रघुवंशी
तथा बलराज साहनी के लेख ‘दस्तावेज़’ के रुप में पेश करती है, तो रनवीर
सिंह, जयप्रकाश तथा अजय आठले के जरिये ‘समाज व संस्कृति’ के अंतः सूत्रों
को खंगालने की कोशिश करती है। राजेश जोशी व जितेन्द्र रघुवंशी से हरिओम
राजौरिया तथा सचिन श्रीवास्तव ‘आमने-सामने’ होते हैं तथा रंगकर्म के कुछ
महत्वपूर्ण पहलुओं पर बातचीत करते हैं। ‘रंगकर्म व मीडिया’ के सरोकारों
पर इस टिप्पणीकार सहित पुंजप्रकाश तथा दिनेश चैधरी की टिप्पणियां हैं, तो
‘संगे मील’ में रमेश राजहंस, अशोक भौमिक, रश्मि दोराई स्वामी, विनीत
तिवारी तथा राकेश ने क्रमशः ए.के.हंगल, चित्त प्रसाद, बलराज साहनी, सुनील
जाना और कामतानाथ की यादों को साझा किया है। संभवतः यह पत्रिका का सबसे
महत्वपूर्ण भाग है।
प्रगतिशील आंदोलन से जुड़ीं ये सभी हस्तियां केवल संस्कृति कर्मी ही
नहीं थे, बल्कि राजनैतिक कर्मी और आंदोलनकारी भी थे। आज
प्रगतिशील-जनवादी-वामपंथी आंदोलन जिस रुप में विकसित दिखायी दे रहा है,
ये हस्तियां इस आंदोलन की नींव का पत्थर थे। इस समृद्ध विरासत की अनदेखी
नहीं की जा सकती। चैथा दशक ब्लैक एंड व्हाइट का था। चित्त प्रसाद के
स्केचों तथा सुनील जाना के फोटो ने पूरे विश्व के सामने बंगाल में
साम्राज्यवाद निर्मित अकाल की विभीषिका को सामने लाने में अपना योगदान
दिया था। इन चित्रों के जरिये बंगाल की दुर्दशा सामने आने से पूरे देश
में क्रोध की लहर दौड़ गयी थी। इप्टा का लोगो- ढोल पीटता हुआ कलाकार भी
चित्त प्रसाद ने बनाया है।
पिछले पन्द्रह सालों में साहित्य-सिनेमा-रंगकर्म से जुड़ी कई महान
विभूतियों की जन्म शताब्दियां मनायी गयीं हैं। ‘इप्टानामा’ के इस खंड में
संक्षिप्त परिचयात्मक टिप्पणियों के साथ उन्हें याद किया गया है। इनमें
हरीन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय (1998), मखदमू मोहिउद्दीन (2008), उपेन्द्र
नाथ ‘अश्क’ (2010), असराल असरार-उल-हक़ ‘मजाज’, के.के. हब्बार, अशोक
कुमार (2011), सआदत हसन मंटो, हेमांग विश्वास (2012), विष्णु प्रभाकर,
अली सरदार जाफरी तथा पंडित नरेन्द्र षर्मा (2013) आदि शामिल हैं।
उषा वैरागकर आठले तथा हनुमंत किशोर ने रंगकर्म में ‘अनुदान और आयोजन’ से
जुड़ी राजनीति की कड़ी छानबीन की है। ‘इप्टानामा’ के अंतिम भाग ‘विविधा’
में प्रगतिशील लेखन आंदोलन के 75 वर्ष पर शकील सिद्दीकी, रंगमंच के
अनुभवों पर प्रवीर गुहा के आलेख हैं, तो नासिर अहमद सिकंदर ने जोहरा सहगल
की आत्मकथा ‘करीब से’– जो मंच और फिल्मी परदे से जुड़ी उनकी बेशकीमती
यादों पर आधारित है- की समीक्षा की है। ‘राजकमल प्रकाशन’ से प्रकाशित इस
पुस्तक के छोटे से अंश को भी रखा गया है, जो इप्टा की शुरूआती दिनों के
उनके संस्मरण हैं। प्रेम साइमन के प्रसिद्ध नाटक ‘अरण्य-गाथा’ को भी इस
वेब पत्रिका के प्रिंट अंक में शामिल किया गया है।
पत्रिका को रंगकर्म के दायरे से बाहर निकालकर साहित्यिक कलेवर देने की
बेहतरीन कोशिश की गयी है और इस प्रयास में भगवत रावत, केदारनाथ सिंह,
गोरख पांडे, विनोद दास, राजेश जोशी, स्वप्निल श्रीवास्तव, नरेश सक्सेना,
आत्मारंजन, धूमिल, कैफी आजमी तथा विष्णु नागर की कविताओं से पत्रिका को
संवारा गया है। रंगकर्मियों को दिनेश चैधरी के इस प्रयास का स्वागत करना
चाहिये।