डा. अशोक आर्य : भारत देश प्राचीन काल से ही प्रेरणा का स्रोत रहा है । यहां
समय समय पर प्रेरणा पाने के लिए अनेक त्योहारों का अनेक उत्सवों का सहारा
लिया जाता है । ये उत्सव भी किसी विशेष घटना से सम्बन्धित होते हैं । जिस
घटना से जिस त्योहार का सम्बन्ध होता है , वह घटना ही किसी अच्छी घटना से
जुडी रहती है । यह अच्छाईयां शताब्दियों तक जन मानस के सामने एक उदाहरण
बनकर , हम सब का मार्ग दर्शन करती रहे , इस निमित्त हमारे पूर्वजों ने
उसे त्योहार का रुप दे दिया , जिसे हम प्रतिदिन बडी शान से मनाते हैं तथा
उससे प्रेरणा पाते हैं । एसे ही पर्वों में होली पर्व भी एक है । आओ इस
पर्व के सम्बन्ध में कुछ जानकारी पाने का यत्न करें ।
कुछ लोग होली को राजा हिरण्यकश्पु से जोडते हुए कहते हैं कि इस
पर्व का समबन्ध होलिका दहन से उस प्रकार ही हैं ,जिस प्रकार दीपावली का
सम्बन्ध श्री राम से माना जाता है । कुछ लोग इसे प्रेम का , मिलन का,
स्नेह का पर्व मानते हैं तथा इसके लिए शब्द भी यही ही प्रयोग करते हैं ,
“बुरा न मानो होली है “, तो कुछ इसे रितु परिवर्तन के साथ भी जो्डते हैं
, जब कि कुछ अन्यों का कहना है कि इस का सम्बन्ध महाभारत से है , अनेक
लोग इस का सम्बन्ध नई फ़सल के आगमन से भी मानते हैं ।
वास्तव में मार्च का महीना पर्वों का महीना कहा जाता है । इस
महीने में अनेक पर्वों का आगमन होता है । आओ पर्वों के बाहुल्य के इस
महीने में पडने वाले त्योहार होली के सम्बन्ध में आने वाले इन सब पह्लुओं
पर विचार करें , विशलेषण करें ओर एसा करते हुए इस पर्व के महत्व को समझें
।
मिलन का पर्व
होली को मिलन के पर्व के नाम से जाना जाता है । इस दिन सब लोग एक
दूसरे पर रंग व गुलाल डाल कर खुशी मनाते हैं , एक दूसरे के गले मिलते हैं
, मिल बैटकर खाते हैं । इससे सब का आपसी मनोमालिन्य धुल जाता है । सब
वैमन्स्य दूर हो जाता है । विगत में हुए झगडों की नाराजगी समाप्त हो जाती
है तथा फ़िर से मैत्री की भावना यह कहते हुए ,” जो हो ली सो हो ली , अब तो
मिलने मिलाने त्योहार आ गया ,” यह भावना बलवती होती है । यह ही कारण है
कि इस को मिलन का त्योहार कहा जाता है ।
नई फ़सल के स्वागत का त्योहार
वैसाखी के ही समान कुछ लोग होली को भी नई फ़सल का त्योहार मानते
हैं । एसे लोगों का मानना है कि जब फ़सल पकने की तैयारी में होती है तथा
किसान को लम्बी मेहनत के पश्चात फ़सल के पकने तक का यह थोडा सा ( लगभग एक
महीने का ) समय खाली मिलता है । इस समय वह अपनी थकावट को मिटाने की इच्छा
रखता है । इस इच्छाशक्ति का परिवर्तन स्वरुप ही होली मनाई जाती है । अपनी
थकावट को उतारने के लिए वह खूब हंसता खेलता है , गाता बजाता है , मित्रों
व सगे -सम्बन्धियों से मिलता है ताकि आने वाले दिनों में जो फ़सल के
प्रतिफ़ल स्वरूप धन राशि घर में आने वाली है , उसके सदुपयोग की भी योजना
बनाई जा सके । इसके साथ ही साथ एसे लोगों से भी मिलने का अवसर मिलता है ,
समय के अभाव में जिन लोगों से मिलने का अवसर एक लम्बे अन्तराल से नहीं
मिल रहा था । इस अवसर पर पुरानी गल्तियों को , गिले शिकवों को , वैर
-विरोध को भुला दिया जाता है तथा नए सिरे से सम्बन्ध स्थापित करने का
यत्न होता है , बिछुडों से तो पुन: मेल मिलाप होता है तथा इसके साथ ही
कुछ नए लोगों से भी सम्पर्क जुडता है ।
कंस से स्वाधीनता का प्रतीक
कुछ लोगों का मनना हि कि मथुरा के राजा कंस से जन सामान्य
अत्यधिक भयभीत था । कंस के अत्याचारों को सह पाना उनक ए लिए कटिन हो रहा
था , इतना होने पर भी उसके अत्याचारों की चर्चा करना भि उस काल में
भयंकर अपराध माना जाता था । उसके अत्याचारों की पराकाष्टा उस समय सब
सीमाएं लांघ गई , जब उअसने अपनी ही बहिन व बह्नोई को जेल में डाल उनकी
सन्तानों को जन्म लेते ही वध करने लगा , मारने लगा । परन्तु उसके
अत्याचारों ने सब हदें , सब सीमाएं उस समय पार कर दीं, जब उसने बालक
क्रिषण की खोज के नाम पर अपने सत्ता क्शेत्र के सब अल्पायु बालकों को खोज
खोज कर मारने का आदेश दिया तथा इस पर तत्काल अमल भी आरम्भ हो गया ।
इन अत्याचारों से मथुरा के लोग अत्यधिक दु:खी थे तथा जिस दिन कंस
का बध हुआ , उसका अन्त हुआ , उस दिन वहां के लोगों की खुशी का कोई
पारावार न रहा । इस खुषी को प्रकट करते हुए इस प्रकार रंगों से खेलने लगे
मानो कंस के खून से ही होली खेल रहे हों । रंगों के इस खुशी भरे खेल में
अपनी खुशी को प्रकट करते हुए वह एक दूसरे के गले लग कर , एक दूसरे को
बधाईयां भी दे रहे थे तथा एक दूसरे को मिलने भी लगे थे , वह लोग मिल रहे
थे जो कंस से भयभीत कभी घर से भी न निकले थे । यदि कोई कंस का कर्मचारी
क्शमा मांग लेता तो उसे हंसते हुए क्शमा करते व गले लगाते ।
ब्रज क्शेत्र में आज भी यह होली पर्व उसी पुराने रुप में मनाया
जाता है । बरसाने की लटमार होली की तो आज भी दूर दूर तक चर्चा होती है ।
यह कैसी होली है ,? जिसमें दूसरों पर लाटियां बर्साई जाती हैं । इसका
भाव यह ही रहा होगा कि कंस व उसकी सेना को मार रहे हों, उसके खून से खेल
रहे हों ।
रितु परिवर्तन का प्रतीक
कुछ लोगों का मानना है कि यह त्योहार वसन्त के ही समान रितु
परिवर्तन का भी प्रतीक है । एसे लोगों का कथन है कि लम्बी ट्ण्डी रितु के
पश्चात मौसम परिवर्तन की ओर पदचाप , कदमताल कर रहा है । अब तक गर्म पानी
से स्नान कर रहे थे तथा गर्म वस्त्र पहन रहे थे ताकि सर्दी से बचा जा सके
। अब मौसम के परिवर्तन से वातावरण में कुछ गर्मी आ जाती है । धूप इस समय
की असहनीय होती है किन्तु छाया में इतनी शीतलता होती है ,जो सहन नहीं
होती । इस प्रकार न तो धूप ही अच्छी लगती है तथा न ही छाया । शरीर सर्दी
सहन करने का आदि हो चुका होता है । इस कारण धूप की गर्मी सहन नहीं कर पता
, जबकि छाया की ट्ण्डी भी शरीर को सहन नहीं होती । इसलिए शरीर को सामान्य
अवस्था में लाने के लिए इस शरीर पर पानी व रंग डालने की परम्परा का आरम्भ
हुआ , इस परम्परा को ही आगे चलकर होली का नाम देकर इसे भारतीय त्योहारों
में जोड दिया गया । इसलिए यह पर्व रितु परिवर्तन का भी संकेत देता है ।
हिरण्यकश्यप के अत्याचारों से मुक्ति
होली को मुख्यत: मुलतान के राजा हिरण्यकश्पु के अत्याचारों से
मुक्ति स्वरूप उसकी बहिन होलिका के जल मरने के समय खुशी के रुप में मनाने
की परम्परा से इसे मनाने का आरम्भ भी बहुत से लोग मानते है ।
र्जा हिरण्यकश्पु अपने समय का अत्यन्त अत्याचारी व राक्शसी
प्रव्रति का शासक था । उस की इस प्रवरति से जन सामान्य अति दु:खी था । वह
इतना शक्ति शाली था कि शक्ति के अभिमान में वह अपने आप को ही परमात्मा
मानने लगा था । उसके अत्याचारों से भयभीत जनता में उसकेर विरुद्ध आवाज
उटाने का साहस ही न था । उस के अत्याचारों की पराकाष्टा को देखकर इस राजा
के अपने ही राजकुमार के अन्दर इन अत्याचारों को समाप्त करने की उत्कट
इच्छाशक्ति पैदा हिई । इस बालक ने प्रभु का नाम लेते हुए अपने पिता के
प्रत्ये३क अत्याचार आ वोइरोध आरम्भ कर दिया ।
अत्याचारी तो अत्याचारी ही होता है । जब उसने अपना इरोध होता देखा
ओर वह भी अपने ही पैदा किये गये बालक से तो उसका क्रोध ओर भी अधिक भडक
उटा, उसके अहंकार में ओर भी तेजी आ गई । उसे नयाय व अन्याय की , अपने व
प्राय\ए की पहचान भी समाप्त हो गई । अहंकार से वह इतना अन्धा हो गया कि
उसे अच्छे व बुरे , न्याय व अन्याय का अन्तर ही भूल गया । इसकी परिभाषा
का अन्तर ही उसकी समझ में न रह गया । इस कारण ही तो वह अपने आदेश को
ईश्वर आग्या मानता था । अत: उसने अपने बेटे प्रह्लाद को सख्ती से अपना
मार्ग बदल कर अत्याचार व अन्याय पर चलने का आदेश दिया , किन्तु यह बालक
सत्य पथ का पथिक था । सत्यमार्ग का अनुगामीअपने सन्मार्ग से , अपने उत्तम
निश्चय से कभी भटका नहीं करता । इस के लिए चाहे उसे कितनी भी कीमत क्यों
न चुकानी पडे ।
बालक तो सत्य मार्ग पर चलने का निर्णय ले ही चुका था । वह अन्याय
के विरोध में अपना सब कुछ त्यागने के लिए प्रतिग्या ले ही चुका था । इतना
ही नहीं वह न्याय के पथ पर आगे बट भी चुका था । वह यू ही सरलता से अपने
निश्चय से गिरने वाला न था । वह निश्चय का अटल था । इस निश्चय की पूर्णता
के लिए वह अपनी जान को भी कम समझता था । इसलिए न्यायपूर्ण सत्य मार्ग पर
आने वाली चुनौतियों को स्वीकार कर वह अपने पिता के क्रोध की चिन्ता किये
बिना जन सामान्य को अपने पिता के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए डट
गया ।
राजा ने राजकुमार को अनेक प्रकार से समझाने का यत्न किया किन्तु
सत्य के सामने उसके सब प्रयास विफ़ल रहे । परिणाम स्वरुप राजा ने अपने ही
बेटे पर अनेकानेक अत्याचार किये , अनेक विध उसे मारने का यत्न किया
किन्तु सर्वत्र असफ़ल रहने के पश्चात उसे अपने मार्ग से सदा सदा के लिए
दूर करने के लिए उसे मारने की अनेक योजनाएं बनाईं । इधर राजकुमार
प्रह्लाद को जनसामान्य का समर्थन तो प्राप्त था ही किन्तु साथ ही साथ
बहुत से राज कर्मचारियों का भी समर्थन अन्दर से था , जो राजा के
अत्याचारों से दु:खी थे , किन्तु उसका सामना करने की शक्ति उनमें न थी ।
जब जन समुदाय व राजकर्मियों का समर्थन प्राप्त हो तो एसे व्यक्ति को कौन
मार सकत है ? इस प्रकार म्रित्यु के इस खेल में राजा की सदा ही पराज्य
तथा बालक की सदा ही विजय होती रही ।
अन्त में इस अहंकारी राजा ने एक बडी ही भयंकर योजना बनाई । इस
योजना के अन्तर्गत उसने अपनी बहन को एक एसा वस्त्र दिया , जो अग्नि में न
जलता था । राजा ने अपनी बहिन को यह वस्त्र देने के साथ ही यह आदेश भी
दिया कि वह इस वस्त्र को ओटकर तथा बालक प्रहलाद को गोद में लेकर आग में
प्रवेश कर जावे । आग में प्रवेश करते समय यह ध्यान रखे कि बालक वस्त्र से
बाहर रहे । इस प्रकार वह स्वयं तो अग्नि से बच जावे किन्तु बालक जलकर राख
हो जावे तथा म्रित्यु को प्राप्त हो जावे ।
सत्य क्या है ? यह तो आज अनुमान ही लगाया जा सकता है क्योंकि
इतिहास में इस के साक्श्य समाप्त हो चुके हैं । इस अनुमान के आधार पर दो
विचार सामने आते हैं ।
प्रथम तो यह कि राजा हिरण्यकश्यप की बहिन इस बालक से बहुत प्यार
करती रही होगी , यहां तक कि वह उसके लिए अपनी जान भी देने को तत्पर थी
, किन्तु भाई के भय से इतनी भयभीत थी कि इसे प्रकट करने से ही उसे भय
लगता था । इस लिए उसने चिता में प्रवेश किया तथा जब उससे कुछ दूरी पर
चिता से उंची ऊंची लपटें निल्कलने लगीं तो उसने अपने दिल को मजबूत कर बडी
सावधानी से वह वस्त्र जो आग में नहीं जलता था , बालक के ऊपर डाल दिया
होगा ओर स्वयं इस प्रचण्ड अग्नि में अपना शरीर जला कर स्वाहा कर दिया
होगा ।
द्वितीय़ उस समय के राजकर्मी भी इस दुष्ट राजा से मुक्ति चाहते थे ।
इस कारण उन्होंने बडी सावधानी से जलाने वाले वस्त्र तो बाल्क के उपर डाल
दिये तथा होलिका को साधाराण वस्त्र यह कहते हुए दे दिये कि ये जलेंगे
नहीं , आप निश्चिन्त हो अग्नि में प्रवेश कीजिए । ( इस सम्बन्ध में जो
पौराणिक आख्यान आता है , उसे हम नहीं मानते । इस कारण उसका हम यहां
उल्लेख नहीं करते ) बस फ़िर क्या था ?, चिता में आग भडकने के साथ ही
राजा तो इस विश्वास के साथ महलों को लौट गया कि बालक जल कर समाप्त हो
जावेगा तथा उसकी बहन इस चिता से निकल कर उसके पास लौट आवेगी । चिता कुछ
शान्त हुई तथा लोगों ने अपने प्रिय राजकुमार को इस चिता से सकुशल निकल्ते
हुए देखा तथा होलिका को जलते हुए पाया तो उन सब की खुशी का टिकाना ही न
रहा ।
इस सब के परिणाम स्वरूप खुशी से भरे इस जनसमुदाय ने अकस्मात अपने
प्रिय राजकुमार के नेत्रत्व में राज महलों में निश्चिन्त पडे राजा पर
आक्रमण कर दिया होगा । इस अवसर पर राजा को सोचने व समझने का अवसर ही न
मिला होगा कि लोगों ने उसका भी वध कर दिया ह्जोगा ।
जो भी रहा हो , चिता से बालक जीवित निकला , तो लोगों की खुशी
देखते ही बनती थी । वे बालक का सत्कार करने लगे तथा चिता की राख को एक
दूसरे पर डालने लगे । इस परम्परा को ही प्रति वर्ष दोहराया जाने लगा ।
धीरे धीरे यह परम्परा ही आज की होली के रुप में बदल गई । आज राख का स्थान
गुलाला ने ले लिया है तथा पानी के साथ रंगों को जोड दिया गया है । इसके
साथ ही उस पुरानी यादों को ताजा बनाए रखने के लिए आज भी होलिका का दहन
किया जाता है । आज भी लोग उस प्रकार ही एक दूसरे को बडे प्रेम से मिलते
हैं , खुशी प्रकट करते हैं , वैर – विरोध भुला कर खूब रंगों के साथ खेलते
हैं , टीक उस प्रकार ही प्रसन्न होते हैं , जिस प्रकार बालक प्रहलाद को
चिता में से जीवित पाकर झूम उटे थे ।
इस त्योहार को मनाते हुए आज कुछ उच्छ्रन्खलता बटने लगी है, जिससे
कई बार दुर्घटनाएं हो जाती हैं । दुकानदारों को चाहिये कि वह नकली रंगों
को न बेचें तथा खेलने वालों को भी चाहिए कि वह किसी को कष्ट पहुंचाने के
लिए , गल्त कार्यों का प्रयोग इस अवसर पर न करें , ताकि इस त्योहार की
खूशी बनी रहे ।
Pradeep Kumar Mittal जय श्री राधे श्याम…आने वाले होली के त्यौहार पर
आइये सब मिलकर सार्थक होली खेलें.
आओ करें होलिका दहन संग में मेरे दुर्गुण भी,
मिलकर बचाएं प्रहलाद को भजें विष्णु सगुण भी,
श्याम श्याम जपें चली आयेंगी राधा रानी,
लेकर लट्ठ श्याम जी को दौडाएंगी महारानी,
दौडाएंगी रानी दौडाएंगी महारानी, श्याम जी को,
श्याम खेले गोपियों से होली अपनी पुरानी,
ले के लट्ठ गोपियाँ भी जाएँगी पीछे श्याम जी के,
एक श्याम होंगे अनेक तब, आदत उनकी पुरानी,
मेरे श्याम रंगें गोपियों को आत्मा तक,
होली अवसर है मिलन का एक रंग होने तक,
एक रंग श्याम का है श्याम, गौर राधा रानी,
कहे कन्हैया रंगों राधा को भी श्याम, माता रानी.
अतएव,
होली है त्यौहार जो देता सन्देश पवित्र प्रेम प्यार का, आओ मनाएं होली
सोल्लास तज भाव जीत हार का.
होली है त्यौहार करता प्रकाशित सभी के भाव,
मनाएं होली हम सब संग, हो शुद्ध आनंद भाव.
होली है त्यौहार लाता अवसर योग का,
करें मिलन प्रेम से हम छोड़ भाव भोग का.
फैलाएं रंगीन उल्लास तनो मनो में सबके,
हो आल्हादित, पायें परमानंद हम राधेश्याम भज के,
राधे श्याम भज के, ……