डॉ अमरीक सिंह कंडा : सिनेमा का इतिहास उसे सभी स्थितियों में एक रूचिपूर्ण विषयबनाता है। इस नजर से चलतीतस्वीरों का सफर एक घटनाक्रम की तरहसामने आता है। इस संदर्भ मेंसिनेमा का शिल्पतकनीक से अधिकसमय द्वारा निर्धारित होतानजर आता है। समय के साथ फिल्मोंकीदुनिया का बडा हिस्सा गुजरादौर हो जाता है। बीता वक्तवर्त्तमान व भविष्य का एक संदर्भ ग्रंथहै। सिनेमा की मुकम्मलसंकल्पना दरअसल अतीत से अब तकके समय में समाहित है। हिंदीफिल्मों का कल और आज अनेक कहानियों को संग्रहित किए हुए है। तस्वीरों की कहानी के भीतरकई कहानियां हैं। हिंदी सिनेमा कीतक़दीर में इनका योगदान बीते वक्त की बात होकर भीआज को दिशा देरहा है। कलाकारों व तकनीशियनोके दम पर यह उद्योग संचालित है।यहशख्सियतें कभी न कभी फिल्मउद्योग के एक्टिव कर्मयोगी रहे।इनकी दास्तान-ए-तक़दीर सिनेमाकीकहानी को रोचक बनाती है। तस्वीरों के समानांतर और भी जहान बसादेती है। इस अर्थ मेंकहा जासकता है कि सिनेमा फिल्मों केकारखाने से कहीं अधिक है। वहचलती फिरती कहानीहै।
एक निकट संबंधी की सहायता से युवा युसुफ़ को पुणा स्थित फौजी कैंटीन में पहली नौकरी मिलीथी।महज कुछ रुपए की तनख्वाह पे उन्हें सहायक के तौर रखा गया, प्रतिदिन के सामान्य कार्योंका जिम्मा था । वह काम से खुश थे, लेकिन वो काम कैंटीन के बंद होजाने से जाता रहा ।काम छुटा तोपिता ‘गुलाम सरवर खान’ ने फ़ल व्यापार की ओर बुला लिया, फिलवक्त के लिएवहीं रम गए। कारोबार केसिलसिले में एक बार नैनीताल जाना हुआ। नैनीताल में उस समयदेविका रानी एवं अमिय चक्रवर्ती आगामी फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ के लिएउपयुक्त लोकेशन की खोजमें आए थे। युसुफ़ को तब देविका रानी केबारे में पता नहीं था, देविकाजी से अनजान वशमिलने से भाग्यपलटा। रास्ते और मंजिल यहीं कहीं थी। देविका रानी ने युसुफ़ कोमलाड स्थित‘बाम्बे टाकीज़’ दफ़्तर में मिलने को कहा। उन्हें फ़िल्म में काम करने का प्रस्तावमिला। कुछदिनों तक युसुफ़ वहांनहीं जा सके,फ़िर बुलावा आया औरइस बार उन्होंने बाम्बे टाकीज़के साथकरार कर लिया । फिल्म ‘ज्वार भाटा’ से युसुफ़ खान ‘दिलीपकुमार’ के स्क्रीन नाम से कामकरने लगे। बिजनेस में व्यस्तयुसुफ़ के पिता फ़िल्मवालों कोपसंद नहीं करते थे, गुलामसरवरको तब शायद हैरत व नाराजगीहुई होगी जब पत्रिकाओं में बेटे की तस्वीरें देखी थीं। पुत्र कीसिने व्यक्तित्व को स्वीकार करने में उन्हें वक्त लगा।
जब दिलीप कुमार ने फिल्मों मेंअभिनय शुरू किया उस समय उनकेसमक्ष ‘मेरे सपनों काभारत’ की तस्वीरथी। देश में आजादी की लडाई चरमपर थी। आगे चलकर एक सहिष्णु,धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक एवं सार्वभौमिक मूल्यों वाले भारत का निर्माण होना था। निश्चित ही इनमूल्यों के दम पर आजादी का सपनासाकार हो सका। वास्तव में भारतीय मूल्य स्वयं मेंसार्वभौमिक गुणों वाले थे । इन मूल्योंने एक लोकतांत्रिक एवं परस्परभागीदारी तथा आमसहमति युक्त सहिष्णु संस्कृति का आधार रखा।
दिलीप कुमार परिवर्तन के युगमें आए थे। इस समय का भारतीय सिनेमा पुनर्जागरण से गुजररहा था।माध्यम से जा रहा था। टाकी काआगमन एक उदासीन व अवसाद युक्तदुनिया से जूझरहा था। पूरा विश्व आर्थिक बदहाली के मझधार मेंफंसा हुआ था। एक मान्यता अनुसार प्रथमविश्व युद्ध से इस स्थिति में बदलाव आया। कह सकते हैंकि युध एवं उससे उपजे प्रभावोंसे एकनए विश्व का उदय हुआ। सिनेमा में यह समय नए प्रतिभाओंका उदय लेकर आया । हम देखतेहैंकि कला के सारथियों की एक जमातहमारे समक्ष थी। भारतीय सिनेमाके आगामी दो दशकइन्हीं कलाकारव तकनीशयनों के नाम रहे।
दिलीप कुमार की तरह लता मंगेशकरकी प्रतिभा ने भी इस समय कोपरिभाषित किया। महबूबखान और वीशांताराम जैसे सुपरिचित फिल्मकारों की प्रेरणा बलदेव राज चोपड़ा, कमरुद्दीनआसिफ, राज कपूरतथा गुरु दत्त भी इस क्षेत्र में चले आए। संगीत क्षेत्र में नौशाद—अनिलबिश्वास के साथ-साथ शंकर-जयकिशन, ओ पी नैय्यर एवम सलिल चौधरी का उदय हुआ। नईप्रतिभाओं के उदय ने नए जमाने का प्रतिनिधित्व किया। स्वतंत्र भारत में अभी बहुत कुछ तलाशकिया जानाबाक़ी था। दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों और भाषाओं के लोग सिनेमाके लिए आकर्षण काविषय बने।
इश्क फितरत-ए-जज्बात है
बस इसके खातिर बढते जाएं ।
क्षेत्रीय संस्कृतियों की झलकफिल्मी गीतों में स्थान पानेलगी। यह गीत भाषाओं की विविधताकोप्रतिबिंबित करने के प्रयासमें जुटे रहे। अब फिल्मों की शूटिंग देश के दूरस्थ लोकेशनोंपर कीजाने लगी। कश्मीर से लेकरअसम-बर्मा बार्डर पर स्थित पर्यटन स्थल भारत के इन इलाकों कोशेष भारत से परिचित कराया। दिलीप कुमार की ‘आजाद’ एवम ‘मधुमती’इस दिशा में सहायकरही। इस पहलसे पर्यटकों ने यहां आना-जानाशुरु किया।
दिलीप कुमार की फिल्मों ने अपनेसमय का सफल प्रतिनिधित्व किया।लोगों ने उनमें भारत कीविविधताका अक्स देखा—यह सब उन यादगारभूमिकाओं का कमाल था। सिनेमा में वो नेहरू युगकी पहचान बने।उनकी फिल्में पंडित नेहरू केसपनों को लेकर बढी। युगीन प्रतिनिधित्व केकारण दिलीप कुमार वउनकी फिल्मों का महत्व अब भी है। आशा है कि मुहब्बत की सच्चीकहानी बरकरार रहेगी।
इस मुहब्बत के समर्थन में कहाजा सकता है ‘इश्क दिलों में पैदा होने वाली एक स्वभाविकफितरतहै| जहान में ‘मुहब्बत’ से महान और खूबसूरत दूसरी कोई भी चीजशायद नहीं। इश्कखुदा की ओर सेबंदों को सबसे हसीन तोहफा है।कहा जाता है कि परवरदिगार ने प्यारे बंदो केबेपनाह प्यार मेंइस सृष्टि को कायम किया। दुनियाकी कोई भी जबान ऐसी नहीं जिसकाअदबइश्क के जज्बात से परे हो’।
मुग़ल-ए-आज़म के रिलीज होने केअरसे बाद भी दिलीप साहब की शोहरत व इज्जत का आलमउनके चाहनेवालों के जुनून से पता चलता है। कहा जाता है कि किसी चाय कीदुकान में रेडियोपर फिल्म का कोई गाना चल रहा होता,तो ठहर करसुनने वाले कद्रदानों की भीडजमा हो जायाकरती थी ।
बहारें आज पैग़ाम मुहब्बत लेकरआई हैं
तेरे महफिल में किस्मत आजमा करहम भी देखेंगे
मुग़ल-ए-आज़म ने आम दर्शकों के साथ पढे-लिखे व एलिट वर्ग में भीइश्क के प्रति एक अप्रतिमआकर्षण पैदा किया ,प्यार की वह रोशनी जिसकी बदौलत उदासीन दिलोंमें उम्मीद का उजाला होगया था।फिल्म में ‘अनारकली’ के किरदारके लिए उपयुक्त कलाकार की खोजबहुत दिनों तकजारी रही,फिर जाकर‘मधुबाला’ का नाम सामने आया ।युवराज सलीम की भूमिका के लिएदिलीप कुमार के नाम पर पहले से हीमुहर थी । इस प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने बाद दिलीप साहब—मधुबाला का इश्क परवान चढा, शूटिंगके दौरान एक-दूसरे से बनी पहचान धीरे-धीरे आकर्षण मेंतब्दीलहुई । लेकिन ‘नया दौर’ के ताल्लुक में एक मुकदमे से इस रिश्तेमें तल्खी आ गई ।तल्ख रिश्तेका असर मुग़ल-ए-आज़म की शूटिंगदरम्यान महसूस किया गया । उस दृश्य मेंसलीम को ‘अनारकली’ के रुखसार पर थप्पड लगाना था। दिलीपकुमार ने मधुबाला को जोरदारथप्पड मारा, सीन तो जरूर पास होगया लेकिन दिलीप—मधुबाला मुहब्बत के किस्से वहीं थम गएशायद ।ऐसा लगा कि नाराज मधुबाला शूटिंग छोड देंगी, लेकिन मधुबाला केप्रतिक्रिया के पहलेआसिफ बीच-बचाव में आ गए । आसिफ साहब ने मधुबाला को सीन के लिए मुबारकबाददी। फिरकहा कि वह यह जानकर खुशहैं कि दिलीप आज भी उनसे पहलीजैसी चाहत रखते हैं । यहइसलिएभी क्योंकि इश्क की वजह से हीदिलीप कुमार उस तरह पेश आए थे।
हिन्दी सिनेमा इतिहास में मुग़ल-ए-आज़म एक मील का पत्थर है ।कमरूददीन आसिफ की यहफिल्म सातवर्षों में बनकर पूरी हुई । शकील बदायूनी के इश्क-ए-जज्बात सेभरे नगमों से दिलीपकुमार-मधु्बाला के किस्सों को रूह देकर सुनने वालों को दिल जीत लिया था ।
प्यार किया तो डरना क्या, जब प्यार किया तो डरना क्या…
पचास दशक के आरंभ तक दिलीप कुमार हिन्दी सिनेमा के एक ख्यातिनाम शख्सियत हो चुके थे।दिलीप कीपहचान देश के महत्त्वपूर्ण नायक रुप में स्थापित हुई । फ़िल्मों में यादगार रूमानीकिरदार निभाने वाले दिलीप कुमार ‘ट्रेजडीकिंग’ रूप में विख्यात हुए। लोग शायद इस दलील मेंकि ‘इश्क मेंगर किसी को आंसू भी मिले तोवह मोती होते हैं । इन मुहब्बतरूपी मोतियों कीओज से जिंदगी केअंधेरे दूर हो जाते हैं। इश्कके मामले में सब इंसान एक जैसेहैं, सबमेंअच्छाई की भलमनसाहतछुपी होती है। सब के गमों मेंभी बडी समानता पाई गई है’ के प्रभावमें उन्हें देखते थे। यह कुछ यूं था मानो दिलीप और ट्रेजडीएक दूसरे के लिए बने थे। लेकिन इसख्याति ने उन्हें टाईपकास्ट तो नहीं कर दिया था? हां! करदिया था । एक साक्षात्कार मेंदिलीपकुमार ने छवि से नकारात्मक रूप से बोझिल होने की शिकायत की थी।
‘जिंदगी आ तुझे क़ातिल के हवालेकर दूं
मुझसे अब खून-ए- तमन्ना नहीं देखा जाता’
क्या दिलीप निजी जीवन में भी प्रेम से आकर्षित थे ? सितारा देवी के शब्दों में युसुफ़ साहब कोनिजी जीवन में भी प्यार हुआ था, अभिनेत्री कामिनी कौशल उन्हेंसबसे अधिक प्रिय थीं । दिलीपकुमार-कामिनी कौशल ने यादगार फिल्मों –नदिया के पार, शहीद, शबनम, आरजू से दर्शकों काबेहतरीनमनोरंजन किया । मसूरी से ताल्लुक रखने वाली कामिनी कौशल ने चेतन आनंद कीबहुचर्चित फ़िल्म ‘नीचा नगर’ से फ़िल्मी सफ़र शुरु किया था। फ़िल्म प्रतिष्ठत कांस में पुरस्कारजीतने वाली पहली भारतीय फ़िल्म थी । दिलीप कुमार वकामिनी जी के बीच मधुर संबंध ‘नदियाके पार’ समय बढें, निजी जीवन में भी दिलीप उन्हें पसंदकरने लगे । कामिनी कौशल केपरिवारिक कारणों से यह प्रेम कहानीत्रासद अंत में समाप्त हुई । पिछली बातों को भूलने कीकोशिश कररहे अभिनेता के जीवन में ‘मधुबाला’ का प्रवेश हुआ । मधुबाला केआने से दिलीप कीजिंदगी में प्यार लौटा तो जरूर लेकिन तकदीरने साथ नहीं निभाया । दरअसल मधुबाला के पिता‘अताउल्ला खान’ दिलीप कुमार के साथ उनकी नज़दिकियों से खफ़ा थे । उन्हें लगा किकमानेवाली मधु गर कहीं चली जाएगी, फ़िर घर कौन देखेगा?
गौरतलब है कि बडे परिवार मेंमधु अकेली आमदनी का ज़रिया थीं ।इस डर के वजह से पिता नेमधुबाला को दिलीप के साथ ‘नया दौर’ मे काम करने से रोक दिया, यह रोल बाद में वैजयंतीमालाने अदा किया । इसके बाद दोनों ‘मुगल-ए-आज़म’ में ही एक साथ काम कर सके, उस समयदिलीप कुमार की मधुबाला सेबातचीत बंद थी। कमरुद्दीन आसिफ़ दोनों को एक साथ लाने मेंसफलहुए। आसिफ की इस ऐतिहासिक फ़िल्म में दिलीप-मधुबाला के प्रेमको एक तरह से महानश्रधांजलि मिली ।
मुमकिन नहीं कि दूर रहें राह-ए-इश्क से हम
फीका सा हो चला है कुछ अफसानाहयात
आओ कि इसमें रंग भरे इब्तदा सेहम ।
दिलीप—मधुबाला ने पहली बार ‘तराना’ में साथ काम किया था । इससेपहले की फिल्म में कुछेकसीन में दोनो साथ आए थे लेकिन वह पूरीनहीं हो सकी । तराना में दिलीप कुमार—मधु्बाला केपात्रों कोबहुत सराहना मिली । इसमें कोईशक नहीं कि शकील बदायुनी के रूमानी नग्मों ने उसमुहब्बत को जिंदा रखा । बदायुनी ने जिगर मुरादाबदी और अखतर सिराजी की विरासत को आगेबढाया ।
कामिनी कौशल और मधुबाला के दुखदायी अनुभव बर्दाश्त कर चुकेदिलीप अब प्रेम के मामले मेंथोडे संभल कर चलने लगे। लेकिन दिल में शायद अब भी प्रेम की विजय का विश्वास था ।तकदीर कह लेंया दुर्भाग्य ट्रेजिडी किंग कीछवि को लेकर बढे थे। अबकी बार वह ‘वहीदारहमान’ को लेकर गंभीर थे, वह प्रेम में असफ़ल नहींहोना चाहते थे । एक बार फ़िर प्रेम नेदिलीप को चुना । वहीदारहमान को मन ही मन पसंद करनेलगे । दिल बात कहने से पहले ही‘सायरा बानो’ के सुनामी ने दिलीप को ‘मुहब्बत’ से जुदा कर दिया।
मैं भी चुप हो जाऊंगा बुझती हुई शमाओं के साथ
कुछ लम्हें ठहर… अए ज़िंदगी… अएज़िंदगी ।
आज गुज़रे दौर के फनकारों की विरासत को जिंदा रखने की जरूरत है। उन फनकारों के कामको दिलोंमें जगह देने से वह सदा के लिएअमर हो जाएंगे । आपाधापी के युग में गुज़रा हुआपुराना दौर भूलासा दिया गया है, वह वक्त दूरनहीं जब दिलीप कुमार जैसे फनकार वक्त केसाथ भूला दिए जाएंगे।तब हमें ताज्जुब न होगा शायद!
डॉ अमरीक सिंह कंडा : सिनेमा का इतिहास उसे सभी स्थितियों में एक रूचिपूर्ण विषयबनाता है। इस नजर से चलतीतस्वीरों का सफर एक घटनाक्रम की तरहसामने आता है। इस संदर्भ मेंसिनेमा का शिल्पतकनीक से अधिकसमय द्वारा निर्धारित होतानजर आता है। समय के साथ फिल्मोंकीदुनिया का बडा हिस्सा गुजरादौर हो जाता है। बीता वक्तवर्त्तमान व भविष्य का एक संदर्भ ग्रंथहै। सिनेमा की मुकम्मलसंकल्पना दरअसल अतीत से अब तकके समय में समाहित है। हिंदीफिल्मों का कल और आज अनेक कहानियों को संग्रहित किए हुए है। तस्वीरों की कहानी के भीतरकई कहानियां हैं। हिंदी सिनेमा कीतक़दीर में इनका योगदान बीते वक्त की बात होकर भीआज को दिशा देरहा है। कलाकारों व तकनीशियनोके दम पर यह उद्योग संचालित है।यहशख्सियतें कभी न कभी फिल्मउद्योग के एक्टिव कर्मयोगी रहे।इनकी दास्तान-ए-तक़दीर सिनेमाकीकहानी को रोचक बनाती है। तस्वीरों के समानांतर और भी जहान बसादेती है। इस अर्थ मेंकहा जासकता है कि सिनेमा फिल्मों केकारखाने से कहीं अधिक है। वहचलती फिरती कहानीहै।
एक निकट संबंधी की सहायता से युवा युसुफ़ को पुणा स्थित फौजी कैंटीन में पहली नौकरी मिलीथी।महज कुछ रुपए की तनख्वाह पे उन्हें सहायक के तौर रखा गया, प्रतिदिन के सामान्य कार्योंका जिम्मा था । वह काम से खुश थे, लेकिन वो काम कैंटीन के बंद होजाने से जाता रहा ।काम छुटा तोपिता ‘गुलाम सरवर खान’ ने फ़ल व्यापार की ओर बुला लिया, फिलवक्त के लिएवहीं रम गए। कारोबार केसिलसिले में एक बार नैनीताल जाना हुआ। नैनीताल में उस समयदेविका रानी एवं अमिय चक्रवर्ती आगामी फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ के लिएउपयुक्त लोकेशन की खोजमें आए थे। युसुफ़ को तब देविका रानी केबारे में पता नहीं था, देविकाजी से अनजान वशमिलने से भाग्यपलटा। रास्ते और मंजिल यहीं कहीं थी। देविका रानी ने युसुफ़ कोमलाड स्थित‘बाम्बे टाकीज़’ दफ़्तर में मिलने को कहा। उन्हें फ़िल्म में काम करने का प्रस्तावमिला। कुछदिनों तक युसुफ़ वहांनहीं जा सके,फ़िर बुलावा आया औरइस बार उन्होंने बाम्बे टाकीज़के साथकरार कर लिया । फिल्म ‘ज्वार भाटा’ से युसुफ़ खान ‘दिलीपकुमार’ के स्क्रीन नाम से कामकरने लगे। बिजनेस में व्यस्तयुसुफ़ के पिता फ़िल्मवालों कोपसंद नहीं करते थे, गुलामसरवरको तब शायद हैरत व नाराजगीहुई होगी जब पत्रिकाओं में बेटे की तस्वीरें देखी थीं। पुत्र कीसिने व्यक्तित्व को स्वीकार करने में उन्हें वक्त लगा।
जब दिलीप कुमार ने फिल्मों मेंअभिनय शुरू किया उस समय उनकेसमक्ष ‘मेरे सपनों काभारत’ की तस्वीरथी। देश में आजादी की लडाई चरमपर थी। आगे चलकर एक सहिष्णु,धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक एवं सार्वभौमिक मूल्यों वाले भारत का निर्माण होना था। निश्चित ही इनमूल्यों के दम पर आजादी का सपनासाकार हो सका। वास्तव में भारतीय मूल्य स्वयं मेंसार्वभौमिक गुणों वाले थे । इन मूल्योंने एक लोकतांत्रिक एवं परस्परभागीदारी तथा आमसहमति युक्त सहिष्णु संस्कृति का आधार रखा।
दिलीप कुमार परिवर्तन के युगमें आए थे। इस समय का भारतीय सिनेमा पुनर्जागरण से गुजररहा था।माध्यम से जा रहा था। टाकी काआगमन एक उदासीन व अवसाद युक्तदुनिया से जूझरहा था। पूरा विश्व आर्थिक बदहाली के मझधार मेंफंसा हुआ था। एक मान्यता अनुसार प्रथमविश्व युद्ध से इस स्थिति में बदलाव आया। कह सकते हैंकि युध एवं उससे उपजे प्रभावोंसे एकनए विश्व का उदय हुआ। सिनेमा में यह समय नए प्रतिभाओंका उदय लेकर आया । हम देखतेहैंकि कला के सारथियों की एक जमातहमारे समक्ष थी। भारतीय सिनेमाके आगामी दो दशकइन्हीं कलाकारव तकनीशयनों के नाम रहे।
दिलीप कुमार की तरह लता मंगेशकरकी प्रतिभा ने भी इस समय कोपरिभाषित किया। महबूबखान और वीशांताराम जैसे सुपरिचित फिल्मकारों की प्रेरणा बलदेव राज चोपड़ा, कमरुद्दीनआसिफ, राज कपूरतथा गुरु दत्त भी इस क्षेत्र में चले आए। संगीत क्षेत्र में नौशाद—अनिलबिश्वास के साथ-साथ शंकर-जयकिशन, ओ पी नैय्यर एवम सलिल चौधरी का उदय हुआ। नईप्रतिभाओं के उदय ने नए जमाने का प्रतिनिधित्व किया। स्वतंत्र भारत में अभी बहुत कुछ तलाशकिया जानाबाक़ी था। दूरस्थ आदिवासी क्षेत्रों और भाषाओं के लोग सिनेमाके लिए आकर्षण काविषय बने।
इश्क फितरत-ए-जज्बात है
बस इसके खातिर बढते जाएं ।
क्षेत्रीय संस्कृतियों की झलकफिल्मी गीतों में स्थान पानेलगी। यह गीत भाषाओं की विविधताकोप्रतिबिंबित करने के प्रयासमें जुटे रहे। अब फिल्मों की शूटिंग देश के दूरस्थ लोकेशनोंपर कीजाने लगी। कश्मीर से लेकरअसम-बर्मा बार्डर पर स्थित पर्यटन स्थल भारत के इन इलाकों कोशेष भारत से परिचित कराया। दिलीप कुमार की ‘आजाद’ एवम ‘मधुमती’इस दिशा में सहायकरही। इस पहलसे पर्यटकों ने यहां आना-जानाशुरु किया।
दिलीप कुमार की फिल्मों ने अपनेसमय का सफल प्रतिनिधित्व किया।लोगों ने उनमें भारत कीविविधताका अक्स देखा—यह सब उन यादगारभूमिकाओं का कमाल था। सिनेमा में वो नेहरू युगकी पहचान बने।उनकी फिल्में पंडित नेहरू केसपनों को लेकर बढी। युगीन प्रतिनिधित्व केकारण दिलीप कुमार वउनकी फिल्मों का महत्व अब भी है। आशा है कि मुहब्बत की सच्चीकहानी बरकरार रहेगी।
इस मुहब्बत के समर्थन में कहाजा सकता है ‘इश्क दिलों में पैदा होने वाली एक स्वभाविकफितरतहै| जहान में ‘मुहब्बत’ से महान और खूबसूरत दूसरी कोई भी चीजशायद नहीं। इश्कखुदा की ओर सेबंदों को सबसे हसीन तोहफा है।कहा जाता है कि परवरदिगार ने प्यारे बंदो केबेपनाह प्यार मेंइस सृष्टि को कायम किया। दुनियाकी कोई भी जबान ऐसी नहीं जिसकाअदबइश्क के जज्बात से परे हो’।
मुग़ल-ए-आज़म के रिलीज होने केअरसे बाद भी दिलीप साहब की शोहरत व इज्जत का आलमउनके चाहनेवालों के जुनून से पता चलता है। कहा जाता है कि किसी चाय कीदुकान में रेडियोपर फिल्म का कोई गाना चल रहा होता,तो ठहर करसुनने वाले कद्रदानों की भीडजमा हो जायाकरती थी ।
बहारें आज पैग़ाम मुहब्बत लेकरआई हैं
तेरे महफिल में किस्मत आजमा करहम भी देखेंगे
मुग़ल-ए-आज़म ने आम दर्शकों के साथ पढे-लिखे व एलिट वर्ग में भीइश्क के प्रति एक अप्रतिमआकर्षण पैदा किया ,प्यार की वह रोशनी जिसकी बदौलत उदासीन दिलोंमें उम्मीद का उजाला होगया था।फिल्म में ‘अनारकली’ के किरदारके लिए उपयुक्त कलाकार की खोजबहुत दिनों तकजारी रही,फिर जाकर‘मधुबाला’ का नाम सामने आया ।युवराज सलीम की भूमिका के लिएदिलीप कुमार के नाम पर पहले से हीमुहर थी । इस प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने बाद दिलीप साहब—मधुबाला का इश्क परवान चढा, शूटिंगके दौरान एक-दूसरे से बनी पहचान धीरे-धीरे आकर्षण मेंतब्दीलहुई । लेकिन ‘नया दौर’ के ताल्लुक में एक मुकदमे से इस रिश्तेमें तल्खी आ गई ।तल्ख रिश्तेका असर मुग़ल-ए-आज़म की शूटिंगदरम्यान महसूस किया गया । उस दृश्य मेंसलीम को ‘अनारकली’ के रुखसार पर थप्पड लगाना था। दिलीपकुमार ने मधुबाला को जोरदारथप्पड मारा, सीन तो जरूर पास होगया लेकिन दिलीप—मधुबाला मुहब्बत के किस्से वहीं थम गएशायद ।ऐसा लगा कि नाराज मधुबाला शूटिंग छोड देंगी, लेकिन मधुबाला केप्रतिक्रिया के पहलेआसिफ बीच-बचाव में आ गए । आसिफ साहब ने मधुबाला को सीन के लिए मुबारकबाददी। फिरकहा कि वह यह जानकर खुशहैं कि दिलीप आज भी उनसे पहलीजैसी चाहत रखते हैं । यहइसलिएभी क्योंकि इश्क की वजह से हीदिलीप कुमार उस तरह पेश आए थे।
हिन्दी सिनेमा इतिहास में मुग़ल-ए-आज़म एक मील का पत्थर है ।कमरूददीन आसिफ की यहफिल्म सातवर्षों में बनकर पूरी हुई । शकील बदायूनी के इश्क-ए-जज्बात सेभरे नगमों से दिलीपकुमार-मधु्बाला के किस्सों को रूह देकर सुनने वालों को दिल जीत लिया था ।
प्यार किया तो डरना क्या, जब प्यार किया तो डरना क्या…
पचास दशक के आरंभ तक दिलीप कुमार हिन्दी सिनेमा के एक ख्यातिनाम शख्सियत हो चुके थे।दिलीप कीपहचान देश के महत्त्वपूर्ण नायक रुप में स्थापित हुई । फ़िल्मों में यादगार रूमानीकिरदार निभाने वाले दिलीप कुमार ‘ट्रेजडीकिंग’ रूप में विख्यात हुए। लोग शायद इस दलील मेंकि ‘इश्क मेंगर किसी को आंसू भी मिले तोवह मोती होते हैं । इन मुहब्बतरूपी मोतियों कीओज से जिंदगी केअंधेरे दूर हो जाते हैं। इश्कके मामले में सब इंसान एक जैसेहैं, सबमेंअच्छाई की भलमनसाहतछुपी होती है। सब के गमों मेंभी बडी समानता पाई गई है’ के प्रभावमें उन्हें देखते थे। यह कुछ यूं था मानो दिलीप और ट्रेजडीएक दूसरे के लिए बने थे। लेकिन इसख्याति ने उन्हें टाईपकास्ट तो नहीं कर दिया था? हां! करदिया था । एक साक्षात्कार मेंदिलीपकुमार ने छवि से नकारात्मक रूप से बोझिल होने की शिकायत की थी।
‘जिंदगी आ तुझे क़ातिल के हवालेकर दूं
मुझसे अब खून-ए- तमन्ना नहीं देखा जाता’
क्या दिलीप निजी जीवन में भी प्रेम से आकर्षित थे ? सितारा देवी के शब्दों में युसुफ़ साहब कोनिजी जीवन में भी प्यार हुआ था, अभिनेत्री कामिनी कौशल उन्हेंसबसे अधिक प्रिय थीं । दिलीपकुमार-कामिनी कौशल ने यादगार फिल्मों –नदिया के पार, शहीद, शबनम, आरजू से दर्शकों काबेहतरीनमनोरंजन किया । मसूरी से ताल्लुक रखने वाली कामिनी कौशल ने चेतन आनंद कीबहुचर्चित फ़िल्म ‘नीचा नगर’ से फ़िल्मी सफ़र शुरु किया था। फ़िल्म प्रतिष्ठत कांस में पुरस्कारजीतने वाली पहली भारतीय फ़िल्म थी । दिलीप कुमार वकामिनी जी के बीच मधुर संबंध ‘नदियाके पार’ समय बढें, निजी जीवन में भी दिलीप उन्हें पसंदकरने लगे । कामिनी कौशल केपरिवारिक कारणों से यह प्रेम कहानीत्रासद अंत में समाप्त हुई । पिछली बातों को भूलने कीकोशिश कररहे अभिनेता के जीवन में ‘मधुबाला’ का प्रवेश हुआ । मधुबाला केआने से दिलीप कीजिंदगी में प्यार लौटा तो जरूर लेकिन तकदीरने साथ नहीं निभाया । दरअसल मधुबाला के पिता‘अताउल्ला खान’ दिलीप कुमार के साथ उनकी नज़दिकियों से खफ़ा थे । उन्हें लगा किकमानेवाली मधु गर कहीं चली जाएगी, फ़िर घर कौन देखेगा?
गौरतलब है कि बडे परिवार मेंमधु अकेली आमदनी का ज़रिया थीं ।इस डर के वजह से पिता नेमधुबाला को दिलीप के साथ ‘नया दौर’ मे काम करने से रोक दिया, यह रोल बाद में वैजयंतीमालाने अदा किया । इसके बाद दोनों ‘मुगल-ए-आज़म’ में ही एक साथ काम कर सके, उस समयदिलीप कुमार की मधुबाला सेबातचीत बंद थी। कमरुद्दीन आसिफ़ दोनों को एक साथ लाने मेंसफलहुए। आसिफ की इस ऐतिहासिक फ़िल्म में दिलीप-मधुबाला के प्रेमको एक तरह से महानश्रधांजलि मिली ।
मुमकिन नहीं कि दूर रहें राह-ए-इश्क से हम
फीका सा हो चला है कुछ अफसानाहयात
आओ कि इसमें रंग भरे इब्तदा सेहम ।
दिलीप—मधुबाला ने पहली बार ‘तराना’ में साथ काम किया था । इससेपहले की फिल्म में कुछेकसीन में दोनो साथ आए थे लेकिन वह पूरीनहीं हो सकी । तराना में दिलीप कुमार—मधु्बाला केपात्रों कोबहुत सराहना मिली । इसमें कोईशक नहीं कि शकील बदायुनी के रूमानी नग्मों ने उसमुहब्बत को जिंदा रखा । बदायुनी ने जिगर मुरादाबदी और अखतर सिराजी की विरासत को आगेबढाया ।
कामिनी कौशल और मधुबाला के दुखदायी अनुभव बर्दाश्त कर चुकेदिलीप अब प्रेम के मामले मेंथोडे संभल कर चलने लगे। लेकिन दिल में शायद अब भी प्रेम की विजय का विश्वास था ।तकदीर कह लेंया दुर्भाग्य ट्रेजिडी किंग कीछवि को लेकर बढे थे। अबकी बार वह ‘वहीदारहमान’ को लेकर गंभीर थे, वह प्रेम में असफ़ल नहींहोना चाहते थे । एक बार फ़िर प्रेम नेदिलीप को चुना । वहीदारहमान को मन ही मन पसंद करनेलगे । दिल बात कहने से पहले ही‘सायरा बानो’ के सुनामी ने दिलीप को ‘मुहब्बत’ से जुदा कर दिया।
मैं भी चुप हो जाऊंगा बुझती हुई शमाओं के साथ
कुछ लम्हें ठहर… अए ज़िंदगी… अएज़िंदगी ।
आज गुज़रे दौर के फनकारों की विरासत को जिंदा रखने की जरूरत है। उन फनकारों के कामको दिलोंमें जगह देने से वह सदा के लिएअमर हो जाएंगे । आपाधापी के युग में गुज़रा हुआपुराना दौर भूलासा दिया गया है, वह वक्त दूरनहीं जब दिलीप कुमार जैसे फनकार वक्त केसाथ भूला दिए जाएंगे।तब हमें ताज्जुब न होगा शायद!