डा. अशोक आर्य : रिग्वेद के प्रथम मण्ड्ल के इस सप्तम सूक्त में बताया गया है कि सुर्य तथा मेघादि पिता की ही विभूतियाम हैं । पिउताही हमें विजय़ी करए हैं , वेद्ग्यान का ओटना देत्र हैं, अनन्त दान करए हैं,हम प्रभु की उस गोपाल की गोएं हैं , जो हमारा पालन करने वाले हैं तथा हमें आवश्यक धन प्राप्त करते हैं ।
प्रभु गुणगान से मन शान्त,बुद्धि तीव्र व यग्यात्मक
कर्म से शक्ति मिलती है
डा. अशोक आर्य
प्रभु के गुणगान करने वाले मानव का मन शान्त होता है । उसकी बुद्धि दीप्त हो जाती है , तेज हो जाती है। उसके हाथ यग्य जैसे उत्तम कर्म करते हैं , जिससे उसके अन्दर शक्ति का उदय होता है । इस मन्त्र में यह बात इस प्रकार प्रकट की गई है : –
इन्द्र्मिद गाथिनो ब्रह्दिन्द्र्मर्केभिर्र्किण: ।
इन्द्रं वाणीरनूषत ॥रिग्वेद १,७,१ ॥
इस मन्त्र में तीन बातों पर बल देते हुए बताया गया है कि :-
१. उत्तम स्वर में गाए जाने योग्य जो वेद है , उसका नाम साम वेद है । एसे वेद के मन्त्रों से , जो गायन करने के योग है , के मन्त्रों को गायन करते हुए उस पिता के उदगाता , उस प्रभु के भक्त , उस पिता के गुणों का गायन करने वाले लोग, निश्चित रुप से ही शत्रुओं को नष्ट करने वाले , उनका विदारण करने वाले , उन्हें क्लेष देने वाले , श्र्त्रुओं को रुलाने वाले ,सब प्रकार के एश्वर्यों के स्वामी होने के कारण सब प्रकार के एश्वर्यों से सम्पन्न उस परम पिता परमात्मा का भरपूरर स्तवन करते हैं , उसका अत्यधिक मन से कीर्तन करते हैं तथा उसके गुणों का , उसके यश का गुणगान करते हैं ।
यह भक्त उस पिता का गुण गान सामवेद के मन्त्रों से गायन करते हैं अथवा साम गायन करते हैं , क्योंकि साम कहते हैं शान्ति को । इसलिए साम के मन्त्रों का गायन करने से वह भी साम से युक्त हो जाते हैं अर्थात शान्ति से युक्त हो जाते हैं । उन के सब क्लेष दूर होने से उन का मन सब प्रकार के क्लेषों से छूट कर शान्त हो जाता है । साम गायन वास्तव में शान्त करने वाला ही होता है ।
२. इतना ही नहीं वह रिग्वेद के मन्त्रों से भी उस पिता के गुणों का गायन करते हैं । हमारा वह प्रभु रिग्वेद के मन्त्रों में भी बसा हुआ है । इस कारण उसे रिग्वेद रुप भी कहा जाता है । एसे रिग्वेद रुप मन्त्रों से अर्थात रिग्वेद के मन्त्रों से युक्त प्रभु के भक्त , प्रभु के होता, प्रभु के यश का गायन करने वाले , उसका स्तवन , उसका कीर्तन करने वाले , रिग्वेद के ही मन्त्रों से उस ग्यान रुप , उस ग्यान के भण्डार तथा परम एशवर्यों के स्वामी उस इन्द्र का , उस पिता का , उस पूज्य प्रभु का अत्यधिक स्तवन करते हैं , उसके निकट जाकर उसका गायन करते हैं ।
जब यह भक्तगण रिग्वेद की इन रिचाओं के द्वारा परम पिता का स्तवन करते हैं , प्रभु के गुणों का गायन करते हैं तो इन रिचाओं का भाव भी उन के अन्दर आ जाता है । इन रिचाओं का भाव क्या है । इन रिचाओं के मन्त्रों में रिक का विग्यान भरा रहता है । इस कारण प्रभु के एसे भक्त के मस्तिष्क में भी रिग – विग्यान भरने वाले यह मन्त्र बनते हैं । भाव यह कि इन के गायन से रिग – विग्यान इन के मस्तिष्क में आकर इन्हें प्रकशित करता है तथा यह लोग इस ग्यान से प्रकाशित हो जाते हैं ।
३. उन्नति की ओर उटने वालों को , उपर उटने वालों को अर्ध्व्यु कहा जाता है । एसे अर्ध्व्यु लोग , सब प्रकार से बल से युक्त कर्मों को करने वाले , वह सब कर्म जो बल से होते हैं , उन्हें करने के प्रणेता प्रभु की ही त्रितीय अर्थ की वाणी अर्थात यजुर्वेद के मन्त्रों से उस पिता की स्तुति करते हैं , उसकी निकटता प्राप्त करते हैं , उसके गुणों का गायन करते हैं ।
यजुर्वेद के मन्त्रों रुपि वाणियों से , यजुर्वेद के मन्त्रों के गायन से उस पिता का गुण्गान ,यशोगान , कीर्तन , भजन व स्तवन करते हुए पिता के यह भक्तजन अधर्वु , उपर उटने वाले लोग , उन्नति पथ पर बटने वाले लोग अपने हाथों से यग्य आदि , परोपकार से युक्त उत्तम कर्म करते हैं । यह सदा ही एसे उत्तम कर्म करते है , जिससे दूसरों का भी हित हो । इस प्रकार के कर्म इन भक्तों को सबल करते हैं , सब प्रकार के बलों से युक्त कर , इन्हें बलवान बनाते हैं ।
प्रभु उपासना से शरीर द्र्ट व मस्तिष्क दीप्त होता है
डा. अशोक आर्य
जो जीव परमपिता परमात्मा की समीपता प्राप्त कर लेता है , उसके समीप बै़थने का अधिकारी हो जाता है , वह जीव ग्यानेन्द्रियो तथा कर्मेन्द्रियो का समन्वय कर ग्यान के अनुसार कर्म करने लगता है । समाज के साथ सामन्जस्य स्थापित कर आपस मे मेलजोल बनाते हुए , विचार विमर्श करते हुए ग्यान के आचरण से कर्म करता है । समाज के साथ सामन्जस्य स्थापित करते हुए कर्म करता है । उसका शरीर द्रट हो जाता है तथा उसका मस्तिष्क तेज हो जाता है , दीप्त हो जाता है । इस बात को रिग्वेद के प्रथम अध्याय , सप्तम सूक्त के द्वितीय मन्त्र में इस प्रकार कहा गया है : –
इन्द्र इन्दर्यो: सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा ।
इन्द्रो वज्री हिर्ण्यय: ॥ रिग्वेद १.७.२ ॥
रिग्वेद का यह मन्त्र जिव को चार बातों के द्वारा उपदेश करते हुए बता रहा है कि :-
१. ग्यानेन्द्रियां तथ कर्मेन्द्रियों का समन्वय:-
प्रभु की उपासना से , पिता की समीपता पाने से , उस परमेश्वर के समीप आसन लगाने से जीव में शत्रु को रुलाने की शक्ति आ जाती है । एसा जीव निश्चय ही वेद के निर्देशों का , आदेशों का पालन करते हुए अपने कर्मों मे लग कर , व्यस्त हो कर अपनी ग्यानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को समन्वित करने वाला होता है । वह कर्म व ग्यान रुपि घोडों को साथ साथ लेकर चलता है । इस में से किसी एक को भी टील नहीं देता , समान चलाता है , समान रुप से संचालन करता है ।
स्पष्ट है कि ग्यानेन्द्रियां ग्यान का स्रोत होने के कारण जीव की कर्मेन्द्रियों को समय समय पर विभिन्न प्रकार के आदेश देती रहती हैं तथा कर्मेन्द्रियां तदनुरुप कार्य करती हैं , कर्म करती हैं । यह ग्यान इन्द्रियां तथा कर्मेन्रियां समन्वित रुप से , मिलजुल कर कार्य करती हैं । आपस में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं करतीं । इस कारण जीव को एसा कभी कहने का अवसर ही नहीं मिलता कि मैं अपने धर्म को जानता तो हूं किन्तु उसे मानता नहीं , उस पर चलता नहीं अथवा उसमें मेरी प्रव्रिति नहीं है । उस के सारे के सारे कार्य, सम्पूर्ण क्रिया – क्लाप ग्यान के आधार पर ही , ग्यान ही के कारण होते हैं ।
२. समाज में मेल से चलना :-
इस प्रकार ग्यान व कर्म का समन्वय करके चलने वाला जीव सदा मधुच्छ्न्दा को प्राप्त होता है , मधुरता वाला होता है , सब ओर माधुर्य की वर्षा करने वाला होता है । वह अपने जीवन में सर्वत्र मधुरता ही मधुरता फ़ैलाता है । उतमता से सराबोर मेल कराने का कारण बनता है । समाज में एसा मेल कराने वाले जीव का किसी से भी वैर अथवा विरोध नहीं होता ।
३. द्रट शरीर :-
इस प्रकार समाज को साथ ले कर चलने वाला जीव , सब के मेल जोल का कारण बनता है , किन्तु यह सब कुच्छ वह तब ही कर पाता है , जब उसका शरीर द्रट हो , शक्ति से भर पूर हो । अत: प्रभु की समीपता पाने से जीव का शरीर अनेक प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न हो कर द्रटता भी पाता है , कटोरता को पा कर अजेय हो जाता है ।
४. मस्तिष्क दीप्त :-
प्रभु की समीपता पाने से जहां जीव का शरीर कटोर हो जाता है , वहां उसका मस्तिष्क भी दीप्त हो जाता है , तेज हो जाता है । यह तीव्र मस्तिष्क जीव की बडी बडी समस्याओं को , जटिलताओं को बडी सरता से सुलझाने में सक्शम हो जाता है, समर्थ हो जाता है । उसे कभी किसी ओर से भी किसी प्रकार की चुनौती का सामना नहीं करना होता । यह मस्तिष्क की दीप्ति ही है जो उसे सर्वत्र सफ़लता दिलाती है ।
इस प्रकार उस परमपिता की समीपता पा कर जीव का शरीर वज्र के समान कटोर होने से तथा मस्तिष्क मे दीप्तता आने से वह जीव एक आदर्श पुरुष बनने का यत्न करता है , इस ओर अग्रसर होता है ।
सूर्य तथा मेघ प्रभु की अदभुत विभूतियां हैं
डा. अशोक आर्य
हम प्रतिदिन आकाश में चमकता हुआ सूर्य देखते हैं , यह सूर्य समस्त जगत को प्रकाशित करता है । यहां तक कि हमारी आंख भी इस सूर्य के कारण ही देख पाने की शक्ति प्राप्त करती है । यदि सूर्य न हो तो हमारी आंख का कुछ भी उपयोग नहीं हो सकता । इस प्रकार ही आकाश में मेघ छा जाते हैं । इन मेघों से होने वाली वर्षा से हम आनन्दित होते हैं । हम केवल आनन्दित ही नहीं होते अपितु हमारे उदर पूर्ति के लिए सब प्रकार की वनस्पतियां भी इन मेघों का ही परिणाम है । यदि यह बदल प्रिथ्वी पर वर्षा न करें तो कोइ भी वनस्पति पैदा न होगी । जब कोई वनस्पति न होगी तो हम अपना उदर पूर्ति भी न कर सकेंगे । इस सब तथ्य को वेद का यह मन्त्र इस प्रकार बता रहा है :-
इन्द्रो दीर्घाय चक्शस आ सूर्य रोहयद दिवि ।
वि गोभिरद्रिमैरयत ॥ रिग्वेद १.७.३ ॥
इस मन्त्र में मुख्य रुप से तिन बतों पर प्रकाश दालते हुए कह गया है कि :-
१. प्रभु ने हमारे देखने के लिए सूर्य को बनाया है :-
प्रभु का उपासक यह जीव उस प्रभु के समीप बैथ कर उस प्रभु के उपकारों को स्मरण कर रहा है । वह इन उपकारों को स्मरण करते हुए कहता है कि हमारे वह प्रभु सब प्रकार की आसुरी व्रितियों वालों का संहार करने वाले हैं , उनका नाश करने वाले हैं , उन्हें समाप्त करने वाले हैं । हमारा वह प्रभु अपने भक्तों की रक्शा करते हैं । फ़िर वह इन आसुरों से भक्तों की रक्शा तो करेगा ही । इस कारण जब जब भी इस भुमि पर आसुरि प्रव्रितियां बधती हैं तो वह पिता उन असुरों का नाश करने का साधन भी हम को देते हैं , जिस की सहायता से हम उन असुरों का नाश करते हैं । यह सब उस पिता के सहयोग व मार्ग दर्शन का ही परिणाम होता है ।
इन असुरों का नाश हम आंख की सहायता से करते हैं । यह आंख ही है जो हमें दूर दूर तक देखने में सक्शम करती है , दूर तक देखने की शक्ति देती है । यदि आंख न होती तो हमें इन असुरों की स्थिति का पता ही न चल पाता । जब उनकी स्थिति का पता ही न होगा तो हम उन का संहार , उनका अन्त कैसे कर सकेंगे । यह आंख भी अपना क्रिया क्लाप सूर्य की सहायता के बिना नहीं कर सकती । जब तक यह जगत प्रकाशित नहीं होता , तब तक इस आंख में देखने की शक्ति ही नहीं आ पाती । इस कारण परम पिता परमात्मा ने आंख बनाने से पहले इस संसार को सूर्य का उपहार भी दिया है । इसे द्युलोक में स्थापित किया है । यह ही कारण है कि द्युलोक की मुख्य देन यह सूर्य ही है । यह सूर्य समग्र संसार को प्रकाशित करता है । सूर्य के इस प्रकाश से ही हमारी आंख अपने सब व्यापार ,सब क्रिया क्लाप करने में सक्शम हो पाती है । इस प्रकाश के बिना इस आंख का होना व न होना समान है। सूर्य ही इस आंख को देख पाने की शक्ति देता है , जिस का निर्माण भी इस स्रिश्टि ही के साथ उस पिता ने ही किया है ।
२. प्रभु ने ही जल के साधन मेघों को बनाया है :-
परम पिता ने हमारे देखने के लिए आंख का निर्माण तो कर दिया किन्तु हमारी नित्य प्रति कि क्रियाओं की पूर्णता जल के बिना नहीं हो पाती । जल से ही सब प्रकार की वनस्पतियों का जन्म व विकास होता है , जल से ही यह वन्सपतियां बधती , फ़लती , फ़ूलती व पक कर हमारे लिए अन्न देने का कारण बनती हैं । इतना ही नहीं हमें अपना भोजन पकाने के लिए भी जल की ही आवश्यकता होती है । हमें अपने शरीर की गर्मी को दूर करने , स्वच्छता रहने तथा प्यास शान्त करने के लिए भी जल की ही आवश्यकता होती है । यदि जल न हो तो हम एक क्शण भी जीवित नहीं रह सकते । इस कारण ही उस पिता ने जलापूर्ति के लिए मेघों को प्रेरित किया है । मेघों का निर्माण किया है ।
यदि वह प्रभु मेघों की व्यवस्था न करता , वर्षा का साधन न बनाता तो निश्चय ही इस धरती का पूरे का पूरा जल बह कर समुद्र में जा मिलता । इस प्रकार यह जल मानव के लिए दुर्लभ हो जाता , अप्राप्य हो जाता । इससे मानव का जीवन ही असम्भव हो जाता । अत: यह मेघ ही हैं जो समुद्र आदि स्थानों का जल अपने में खेंच लेते हैं । इसे उडा कर अपने साथ ले जाकर पर्वतों की उंचाई पर जा कर वर्षा देते हैं , जिस से नदियां लबा लब भर जाती हैं । नदियों में प्रवाहित यह जल हमारी वनस्पतियों की सिंचाई से इन का रक्शक बनता है , हमारी सफ़ाई करता है तथा हमारी प्यास को भी शान्त करने का कारण बनता है । इससे ही अन्न की उत्पति होती है । इस कारण ही प्रभु की यह अद्भुत क्रिति मेघ भी मानव निर्माण में विशेष महत्व रखती है ।
३.हम मस्तिष्क में ग्यान क सूर्य ओर ह्रिदय में प्रेम के मेघ पैदा करें :-
मानव को अध्यात्म क्शेत्र में पांव रखते हुए चाहिये कि वह अपने अन्दर ग्यान रुपि सूर्य का उदय करे । हमारा वह पिता अनेक प्रकार की वस्तुओं का जन्म देकर अध्यात्मिक रुप से हमें उपदेश दे रहा है कि हे मानव ! जिस प्रकार मैंने सूर्य आदि की उत्पति करके तुझे प्रकाशित किया है , इस प्रकार ही तुं भी अपने अन्दर ग्यान का प्रकाश करके स्वयं को भी प्रकाशित कर तथा अन्यों को भी प्रकाशित कर । ग्यान मानव जीवन का निर्माता है । अपने जीवन को निर्माण करने के लिए स्वयं को ग्यान के प्रकाश से प्रकाशित करना आवश्यक होता है । जब स्वयं हम कुछ भी ग्यान प्राप्त कर लेते हैं तो इस ग्यान के प्रकाश से अन्यों को भी प्रकाशित करें यह ही उस प्रभु का आदेश है , सन्देश है , उपदेश है ।
उस प्रभु ने हमें अपना सन्देश देते हुए , आदेश देते हुए आगे कहा है कि हे जीव ! तुझे प्रेम की आवश्यकता है , स्नेह की आवश्यकता है किन्तु इसे पाने के लिए तुझे अपने ह्रिदय मन्दिर में प्रेम का दीप जलाना होगा , प्रेम के मेघ पैदा करने होंगे । जिस प्रकार मेघ सब ओर शन्ति का कारण होते हैं , उस प्रकार तेरे ह्रिदयाकाश में पैदा हुए यह मेघ भी तुझे तथा तेरे साथियों , सम्बन्धियों , पडौसियों तथा क्शेत्र वासियों के अन्दर प्रेम क स्फ़ुरण कर शान्ति का कारण बनेगा । इस लिए तुं सदा अपने ह्रिदय में प्रेम रुपि मेघों को पैदा करने तथा उन्हें बधाने का यत्न करता रह ।
ईश्वर हमें उपदेश कर रहे हैं कि हे जीव ! जिस प्रकार सूर्य की गर्मी से उडकर यह पार्थिव जल अन्तरिक्श मे पहुंच जाता है । पहाडों की चोटियों को छू लेता है तथा उपर जाकर मेघों का रुप धारण कर लेता है तथा वर्षा करके इस धरती को सब ओर से स्वच्छ कर देता है , सब प्रकार की धूलि को धो देता है । सब ओर सब कुच्छ स्वच्छ व साफ़ सुथरा होने से सुन्दर व आकर्षक लगता है , उस प्रकार ही अध्यात्म मे ग्यान का सूर्य चमकने से पार्थिव वस्तुओं के प्रति हमारा प्रेम ह्रिदय रुपि अन्तरिक्श में जा कर सब प्राणियों पर फ़िर से बरस,सब को ग्यान के प्रकाश से प्रकास्शित कर उन्हें पवित्र करता है , शुद्ध करता है , स्वच्छ करता है तथा प्रसन्न करता है , सबके मनोमालिन्यों को धो डालता है ।
सब प्रकार से विजयी हो नि:श्रेयस को पावें
डा. अशोक आर्य
हम परम पिता की अपार क्रिपा से वाजों में विजयी हों, एसे विजेता बनकर हम अभ्युदय को पावें तथा सहस्रप्रधनों में भी हम विजय पा कर नि:श्रेयस को पावें । इस बात को रिग्वेद का यह मन्त्र इस प्रकार प्रकट कर रहा है :-
इन्द्र वाजेषु नोऽव सहस्रप्रधनेषु च । उग्र उग्राभिरुतिभि:॥रिग्वेद १.७.४॥
इस मन्त्र में तीन बातों पर प्रकाश डालते हुए पिता उपदएश कर रहे हैं कि :-
१.हम हमारे छोटे छोटे युद्धो में विजयी हों :-
वैदिक साहित्य में प्रत्येक शब्द क अर्थ कुछ विशेष ही होता है । हम अपने जीवन में सदा संघर्ष करते रहते हैं , हम सदा किसी न किसी प्रकार के युद्ध में लडाई में लगे रहते हैं किन्तु इस मन्त्र में जिस युद्ध को वाज कहा गया है , वह युद्ध कौन सा होता है ? इसे जाने बिना हम आगे नहीं बध सकते । वैदिक सहित्य में हम जो छोटे छोटे युद्ध लडते हैं , उन को वाज का नाम दिया गया है ।
जो लडाईयां , जो युद्ध , जो संघर्ष शक्ति की प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , धनादि कि प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , उन्हें हम वाज की श्रेणी में रखते हैं । इतिहास की जितनी भी लडाईयां हुई हैं , चाहे वह राम – रावण युद्ध हो अथवा महाराणा प्रताप तथा अकबर का युद्ध हो , यह सब वाज ही कहे जावेंगे । प्रभु भक्त इस मन्त्र के माध्यम से पिता से प्रार्थना करता है कि हे शत्रुओं को रुलाने वाले प्रभो !, हे शत्रुओं का नाश करने वाले , संहार करने वाले प्रभो ! आप हमें धन आदि की प्राप्ति के लिए हमारे जीवन के इन छोटे छोटे संग्रामों में हमें विजेता बनावें । आप ही की क्रिपा से हम धनों के स्वामी बन कर , विजेता बनकर अभ्युदय को , उन्नति को प्राप्त करें ।
२. हम अपने अन्दर के युद्ध में विजयी हों :-
ऊपर बताया गया है कि जो युद्ध धन एश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए लडे जाते हैं , वह वाज की श्रेणी में आते हैं । इससे स्पष्ट है कि यह युद्ध किसी अन्य प्रकार के भी होते हैं । इस मन्त्र में दूसरी प्रकार के युद्ध को सहस्रप्रधन का नाम दिया गया है । मन्त्र इस शब्द के अर्थ रुप में बता रहा है कि जीव अपने अध्यात्मिक जीवन को सुन्दर बनाने के लिए , आकर्षक बनाने के लिए अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ भी युद्ध करता रहता है । जब मानव अपने बाहर के शत्रुओं के साथ लडता है तो उसे वाज कहा जाता है किन्तु जब वह अपने अन्दर के शत्रुओं के साथ लडता है तो इस लडाई का नाम सहस्रप्रधन होता है । सहस्रप्रधन नामक युद्ध में हम अपने अन्दर के काम , क्रोध, मद , लोभादि आदि शत्रुओं से लडाई करते हैं ।
प्रार्थना की गयी है कि हम अपने इन आध्यात्मिक युद्धों में भी विजयी होते हुए काम का नाश कर प्रेम रुपि धन को प्राप्त करें , क्रोध रुपि शत्रु को मार कर दया रुपि धन को पावें , हम लोभ रुपि शत्रु पर भी विजयी होवें तथा दान रुपि धन की प्राप्ति करें । इस प्रकार हम आनन्द रुप प्रक्रिष्ट धनों के स्वामी बनें । इस प्रकार हे प्रभो ! इन संसाधनों को पाने के लिए आप हमारे सहयोगी बनें, रक्शक बनें ।
३. प्रभो इन युद्धो में हमें विजयी बनावें :-
मानव का काम है यत्न करना , पुरुषार्थ करना । जब हम यत्न करते हैं , परिश्रम करते हैं , पुरुषार्थ करते हैं तो इस पुरुषार्थ का उतम फ़ल प्रभु हमें देता है क्योंकि उस ने जीव को कर्म करने में स्वतन्त्र किया है किन्तु किये गये कर्म का फ़ल वह प्रभु अपनी व्यवस्था के आधीन ही रखे हुए है । इस कारण हम कर्म करते हुए भी सदा उतम फ़ल की प्रार्थना उस पिता से करते रहते हैं । हम अपने पुरुषार्थ द्वारा जीवन में सब प्रकार से विजयी होने की कामना के साथ ही परमपिता परमात्मा से फ़िर प्रार्थना करते हैं कि हे तेजस्वी पिता ! आप तेज से परिपूर्ण हैं,आप प्रबल रक्शक हैं । अपने तेज व रक्शण से हमें हमारे जीवन में होने वाले सब प्रकार के युद्धों में विजेता बनावें । हम अकेले इन कामादि शत्रुओं को नहीं जीत सकते । इसलिए आप का सहयोग , आपकी सहायता हमारे लिए आवश्यक हो जाती है । अत: हमें एसी शक्ति दें कि हम इन युद्धों में सदा विजयी होते रहें तथा उन्नति की ओर सर्वदा अग्रसर रहें ।
प्रभु क्रपा से हमारी वासनाएं नष्ट हों
डा. अशोक आर्य
मानव अपने जीवन में दो प्रकार के धन पाने की कामना करता है । प्रथम अद्ध्यात्मिक धन तथा दूसरा बाह्य धन या भौतिक धन । यह दोनों प्रकर के धन मिलते उस मानव को ही हैं , जिस पर उस प्रभु की क्रपा हो , दया हो । परम पिता हमारे सतत , सक्रिय व प्रिय मित्र हैं । उनकी जब हम पर दया होती है तो हमारी सब वासनाएं नष्ट हो जाती हैं । इस बात का ही दिग्दर्शन इस मन्त्र से हो रहा है :-
इन्द्र वयं महाधन इन्द्र्म्रर्भे हवामहे । युजं व्रत्रेषु वज्रिणम ।
रिग्वेद १.७.५
यह मन्त्र हमें मुख्य रुप से तीन उपदेश दे रहा है :-
१. महाधन की प्राप्ति :-
यह मन्त्र जो उपदेश दे रहा है , उस का सम्बन्ध मन्त्र संख्या चार से ही जुडा है । रिग्वेद के प्रथम अध्याय के सप्तम मण्ड्ल के चतुर्थ मन्त्र अर्थात विगत मन्त्र में सहस्रधन ओर वाज, इन दो शब्दों का प्रयोग किया गया था, जिनक क्रमश: अर्थ होता है हम अपने अन्दर के शत्रुओं तथा हम अपने बाहर के शत्रुओं से , दोनों प्रकार के शत्रुओं को विजय पाने में समर्थ हों । इन दोनों शब्दों को यहां क्रमश: महाधन तथा अर्भ रुप में प्रयुक्त किया गया है । इस मन्त्र के माध्यम से हम इन्द्र अर्थात सब प्रकार के दोषों का , शत्रुओं का दमन करने वाले , सब जीवों पर दया करने वाले तथा सब जीवों को दान देकर त्रप्त करने वाले उस प्रभु को हम सदा पुकारते हैं , सदा स्मरण करते हैं, सदा उसका साथ चाह्ते हैं , सदा उसके समीप रहना चाहते हैं क्योंकि वह प्रभु ही शत्रुओं का दमन करने वाले हैं , वह पिता ही सब पर दया करने वाले है तथा वह ही सब से बडे दाता होने से दान करने वाले हैं । इन महाधनों की प्राप्ति के लिए हम उस पिता को पुकारते हैं ।
हम इस भौतिक जगत में प्रतिदिन देखते हैं कि हम मताधिकार के द्वारा एक नेता अथवा एक सांसद चुनते हैं । उसे चुना तो हम ने है किन्तु चुने जाने के बाद एक प्रकार से हम उसके अनुचर से हो जाते हैं दास से बन जाते हैं । आज के युग में जीव आत्म श्लाघा चाहता है । इस आत्म शलाघा को सुनने के लिए वह प्रतिक्शण लालायित रहता है । जो व्यक्ति उस की श्लाघा नहीं, करता ,उसे वह पसन्द भी नहीं करता । यह हाल ही हमारे आज के सांसदों तथा मन्त्री गण का है । जीव भी अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए इन नेताओं का साथ पाने का यत्न करता है तथा इन नेताओं के आगे पीछे रहने का यत्न करता है । यह जीव इन नेताओं से दूसरे लोगों के काम भी निकलवाने के लिए बिचौलिए का काम कभी निस्वार्थ भाव से किया करता था , फ़िर इस काम के लिए पैसे लेने लगा ओर फ़िर इस प्रकार से लिए गये पैसों में इन नेताओं की भी मिलीभुगत व भाग होने लगा । परम पिता परमात्मा तो इन नेताओं का भी नेता है । वह प्रभु सब जीवों पर दमन, दया तथा दान की वर्षा करता रहता है । इस में वह किसी से किसी प्रकार का भेद नहीं करता ओर न ही कुछ बदले में मांगता है तथा न ही कोई बिचौलिया ही रखता है ।( जो लोग गुरु को प्रभु का बिचौलिया मानकर गुरु चरणों को ही सब कुछ समझ बैटते हैं , वह भ्रमित ही होते हैं ), ऎसे प्रभु की समीपता पाने का हम सदा यत्न करते हैं ।
मानव का मन उस समय शान्त होता है , जब वह अपने अन्दर के शत्रुओं पर विजय पाने में सफ़ल होता है । जब प्रभु की क्रपा होगी तो ही हम काम को जीत कर अपने मन को शान्त कर सकते हैं । जब उस परमात्मा की दय होगी तब ही हम क्रोध रुपी शत्रु को जीत कर दयाव्रति को अपनाएंगे तथा उस पिता की क्रपा से ही स्वार्थ को त्याग कर , लोभ को त्याग कर दान की भावना मेरे अन्दर आवेगी । इस प्रकार मैं अपने अन्दर के शत्रुओं का नाश कर इन तीनों महाधनों को पाने में सक्शम बनुंगा ।
२. भौतिक धनों की प्राप्ति :-
प्रभु दाता होने के कारण जहां हमे महाधनों की प्राप्ति कराते हैं वहां हमे छोटे धनों की भी , छॊटे युद्धों में विजय दिलाने में भी हमारा मार्ग दर्शन करते हैं । इन सांसारिक धनों के स्वामी भी वह ही हैं । अत: हम इन धनों को पाने के लिए भी सदा उस पिता की समीपता पाने का यत्न करते रहते हैं ।
३. प्रभु हमारा मित्र है :-
मित्र वह जो मुसीबत में काम आवे । संकट से बचने के लिए इस संसार में हमें बहुत से मित्रों की आवश्यकता होती है । इस कारण हम बहुत प्रकार के लोगों से मैत्री स्थापित करने का सदा ही प्रयास करते रहते हैं किन्तु सांसारिक मित्र संकट के समय एसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग । इस समय जीव असहाय सा हो जाता है , किंकर्तव्यविमूट हो जाता है । अपने आप को संकट में फ़ंसा हुआ पाता है ,जिस से निकलने का उसे कोई मार्ग ही दिखाई नहीं देता ।
परम प्रभु हमारा एक एसा सखा है , एसा मित्र है , जो कभी हमारा साथ नहीं छोडता ,सदा हमारे साथ बना रहता है ,चाहे कितना भी बडा संकट क्यों न हो, प्रभु सदा साथ खडे दिखाई देते हैं , कभी धोखा नहीं देते । इस लिए हम उस पिता को अपना मित्र बनाना चाहते हैं । यह प्रभु हमारी उन वासनाओं का भी नाश करते हैं , उन वासनाओं पर भी वज्र के समान आक्रमण करते हैं , उन वासनाओं का हनन करते हैं , जो हमारे ग्यान का नाश करती हैं , जो वासनाएं हमारे ग्यान पर पर्दा डालने का काम करती हैं । प्रभु इन वासनओं पर वज्र बन कर टूट पडते हैं तथा इन का नाश कर देते हैं किन्तु इस के लिए प्रभु की समीपता का होना आवश्यक है । जब हम प्रभु के समीप होंगे तो वह मित्र बनकर हमारी वासनाओं का नाश कर हमारे ग्यान को दीप्त करेंगे , प्रकाशित करेंगे ।
प्रभु हमारे सब मनोरथ पूर्ण करते हैं
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा दयालु हैं । हम सदा उन की दया पाने के लिए यत्न करते हैं । जब उनकी हम पर दया हो जाती है तो वह पिता हम पर अपना अपार स्नेह करते हुए , हमारा ग्यान का कोष , ग्यान का खजाना भर देते हैं । इस ग्यान के खजाने के मिलते ही हमारे सब मनोरथ, सब कामनाएं पूर्ण हो जाते हैं । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार बता रहा है :-
स नो व्रषन्नमुं चरुं सत्रादावन्नपा व्रधि।
अस्मभ्यमप्रतिष्कुत: ॥ रिग्वेद १.७.६ ॥
इस मन्त्र में दो बिन्दुओं पर विचर किया गया है :-
१. ग्यान के भण्डार को खोलो ;-
मन्त्र आरम्भ में ही कह रहा है कि हे प्रभु ! आप हम वाज व सह्स्रधन अर्थात आप हमें भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों प्रकार की विजयें , दोनों प्रकार की सफ़लताएं हमें दिलाने का कारण हैं क्योंकि आप हमारे मित्र हो । मित्र सदा अपने मित्र के सुख दु:ख का ध्यान रखता है , उसे सब प्रकार की वह सुख – सुविधायें दिलाता है , जिन की उसे आवश्यकता होती है । यह आप ही हैं , जिसकी मित्रता के कारण हम यह सब प्राप्त कर पाते हैं । इसलिए हम सदा आप का साथ , सदा आप का सहयोग , सदा आप की मित्रता बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं ।
हे सब प्रकार के सुखों को देने वाले मित्र रुप प्रभो ! हे सदा , सर्वदा सब प्रकार के उतम फ़लों – प्रतिफ़लों के देने वाले प्रभो ! आप हमारे लिए उस ग्यान के कोष को , उस ग्यान के भण्डार को खोलिए ।
ब्रह्मचर्य का भाव होता है ग्यान को चरना , ग्यान में घूमना , ग्यान में विचरण करना । इस ब्रह्मचारी को आचार्य लोग विविध विषयों का , अनेक प्रकार के विषयों का ग्यान कराते हैं , ग्यान का उपभोग कराते हैं , ग्यान का भक्शण कराते हैं , ग्यान में घुमाते हैं , इस ग्यान की सैर कराते हैं । जिस भी व्स्तु का भक्शण या चरण किया जाता है जीव उसका चरु बन जाता है । मानव मुख्य रुप से ग्यान का भक्शण करने के लिए आचार्य के पास जाता है । जब वह इसे पुरी तरह से , समग्र रुप में चरण कर लेता है तो वह ग्यान चरु हो जाता है , वहां से ग्यान चरु बन कर निकलता है । जब हम इसे विशालता से देखते हैं , जब हम इसे बटा कर देखते हैं , जब हम इस का अपावरण करके देखते हैं तो इस का प्रकट करना ही वेद ग्यान का कोश है , वेद ग्यान का भण्डार है ।
प्रभु क्रपा ही इस ग्यान के भण्डार को खोलने की चाबी है , कुंजी है । जब तक हमें उस पिता की दया नहीं मिलती , तब तक हम इस ग्यान का ताला नहीं खोल सकते । इस लिए हम सदा ही उस पिता की दया रुपी वरद ह्स्त पाने का प्रयास करते रहते हैं । ज्यों ही हम उस प्रभु का आशीर्वाद पाने में सफ़ल होते हैं त्यों ही हम इस ग्यान के भण्डार का ताला खोल कर इसे पाने में सफ़ल हो पाते हैं । हम इसे खोल कर ग्यान का विस्तार कर पाते हैं ।
२. प्रभु कभी इन्कार नहीं करता ;_
परम पिता परमात्मा प्रतिशब्द से रहित है । वह अपने भक्त के लिए , अपने मित्र के लिए न नामक शब्द अपने पास रखता ही नहीं । उसके मुख से अपने मित्र के लिए , अपने उपासक के लिए , अपने निकट बैट्ने वाले के लिए सदा हां ही निकलता है , सहयोग ही देता है , मार्ग – दर्शन ही देता है , ग्यान ही बांटता है , कभी भी नकारात्मक भाव प्रकट नहीं करता । भाव यह है कि जीव प्रभु की प्रर्थना करता है तथा चाहता है कि वह पिता सदा उसको सकारात्मक रुप से ही देखे , कभी नकारात्मक उतर न दे । वह प्रभु हमारी प्रार्थना को सदा ध्यान से सुने ।
परम पिता परमात्मा को सत्रा दावन कहा गया है । इसका भाव है वह पिता सदा देने ही वाले हैं , सदा दिया ही करते हैं , बांटते ही रहते हैं किन्तु देते उसे हैं जो नि:स्वार्थ भाव से मांगता है , जो देने के लिए मांगता है । जो दूसरों की सहायता के लिए मांगता है , एसा व्यक्ति ही प्रभु के दान के लिए सुपात्र होता है , एसा व्यक्ति ही प्रभु से कुछ पाने के लिए अधिकारी होता है , एसा व्यक्ति ही उस पिता की सच्ची दया का अधिकारी होता है । यदि पिता की दया प्राप्त हो गयी तो उसे सब कुछ ही मिल गया । अत: मन्त्र के इस अन्तिम चरण में जीव प्रभु से याचना करता है कि हे प्रभो ! हम सदा आप से यह ग्यान का कोष पाने के अधिकारी बने रहें ।
प्रभु के अनन्त दान
डा. अशोक आर्य
परमपिता परमात्मा अनेक प्रकार के असीमित दान करने वाला है । जीव इन दनों का पुरी तरह से प्रओग नहीं कर सकता । सम्भव ही नहीं है क्योंकि जीव की सिमित शक्ति इन सब का प्रयोग कर ही नहीं सकती । इस पर ही इस्द मन्त्र में प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया गया है कि :-
तुन्जेतुन्जे य उतरे स्तोमा इन्द्रस्य वर्जिण: ।
न विन्धे अस्य सुष्टुतिम ॥ रिग्वेद १.७.७ ॥
इस मन्त्र में दो बातों पर परम पिता परमात्मा ने बल दिया है । :-
१. प्रभु की स्तुति कभी पूर्ण नहीं होती :-
छटे मन्त्र में यह बताया गया था कि प्रभु सत्रावदन है अर्थात इस जगत में , इस संसार में जितनी भी वस्तुएं हमें दिखाई देती हैं , उन सब के दाता , उन सब के देने वाले वह प्रभु ही हैं ।
हमारे अन्दर जो ग्यान है , हमारे शरीर के अन्दर विराजमान हमारे शत्रु , जो काम , क्रोध, मद , लोभ, अहंकार आदि के नाम से जाने जाते हैं , यह सब हमारे गुणों को , हमारी अछाईयों को, हमारे ग्यान को टंक देते हैं । इस का भाव यह है कि हमारी जितनी भी अच्छी बातें हैं , हमारे जितने भी अच्छे आचरण हैं , हमारे जितने भी उतम गुण हैं , ह्जमारे जितने भि अच्छे विचार हैं , उन सब को, हमारे अन्दर के निवास करने वाले यह शत्रु प्रकट नहीं होनें देते , उन्हें रोक लेते हैं , टंक देते हैं । इन गुणों को यह शत्रु प्रकाशित नहीं होने देते । इस कारण हमें तथा हमारे आस पास के लोगों को , जीवों को हमारे गुणों का पता ही नहीं च पाता । इस कारण इन गुणों का लाभ नहीं उटाया जा सकता , इन गुणों का सदुपयोग नहीं किया जा सकता ।
यह शत्रु हमारे गुणों पर सदा प्रहार करते रहते हैं , आक्रमण करते रहते हैं, इन गुणों को कभी प्रकट ही नहीं होने देते । इन को सदा आवरण में रखने का प्रयास करते हैं ताकि प्रभु द्वारा जीव मात्र के कल्याण के लिए दिए गये यह अनुदान किसी को दिखाई ही न दें , जीव इन का लाभ ही न उटा सके , जीव इन का सदुपयोग ही न कर सके । यह अनुदान इन शत्रुओं पर वज्र का प्रहार करने वाले होते हैं , इन्हें नष्ट करने वाले होते हैं किन्तु हमारे अन्दर निवास कर रहे यह शत्रु इन अनुदानों को हमारे तक पहुंचने से रोकने में ही सदा सक्रिय रहते हैं ।
परम पिता परमात्मा परमैश्वर्यशाली, परम शक्तिशाली है । उस पिता के पास सब प्रकार की धन सम्पदा है । वह इस जगत की सब सम्पदा का स्वामी है । वह ही इन शत्रुओं का विनाश करने में सशक्त होते हैं तथा इन शत्रुओं का विनाश करने के लिए जीव के सहायक होते हैं । इस लिए हम उस पिता की स्तुति करते हैं । हम उस परमात्मा की स्तुति तो करते हैं किन्तु हमारे अन्दर एसी शक्तियां भी नहीं है कि हम कभी प्रभु की स्तुति को पूर्ण कर सकें । हम प्रभु की स्तुति तो करते हैं किन्तु कभी भी उसकी उतम स्तुति को प्राप्त ही नहीं कर पाते क्योंकि प्रभु की स्तुति का कभी अन्त तो होता ही नहीं । हम चाहे कितने ही उत्क्रष्ट स्तोमों से उसे स्मरण करें , चाहे कितने ही उतम भजनों से उस की वन्दना करें , चाहे कितने ही उतम गीत , उतम प्रार्थानाएं उसकी स्तुति में प्रस्तुत करें , तब भी उस पिता की स्तुति पूर्ण नहीं हो पाती , यह सब गीत , सब प्रार्थानाएं, सब भजन उस प्रभु की स्तुति की पूर्णता तक नहीं ले जा पाते । इस सब का भाव यह है कि जीव कभी भी प्रभु की प्रार्थाना को पूर्ण नहीं कर पाता । उसे जीवन पर्यन्त उसकी प्रार्थना करनी होती है । उस की प्रार्थना में निरन्तरता , अनवर्तता बनी रहती है। यह उस की प्रार्थानाओं की श्रन्खला का एक भाग मात्र ही होती है । आज की प्रार्थना के पश्चात अगली प्रार्थना की त्यारी आरम्भ हो जाती है । इस प्रकार जब तक जीवन है , हम उसकी प्रार्थना करते रहते हैं , इस का कभी अन्त नहीं आता । इस मन्त्र में प्रथमतया इस बात पर ही प्रकाश डाला गया है ।
२. हम उस दाता की स्तुति करते हुए हार जाते हैं :-
हमारे परम पिता परमात्मा एक महान दाता हैं । वह निरन्तर हमें कुछ न कुछ देते ही रहते हैं । वह दाता होने के कारण केवल देने वाले हैं । वह सदा देते ही देते हैं ,बदले मेम कुछ भी नहीं मांगते । जीव स्वार्थी है अथवा याचक है, भिखारी है । यह सदा लेने ही लेने का कार्य करता है । प्रभु से सदा कुछ न कुच मांगत ही रहता है । कभी उच देने की नहीं सोचत जब कि प्रभु केवल देते ही देते हैं , क्भि कुच मांघाटॆ ःइ णाःइम । ईटाणाआ ःई नहीं प[रभु देते हुए कबःइ थकते ही नहीं । प्रभु संसार के , इस जगत के प्रत्येक प्राणी के दाता हैं , प्रत्येक प्राणी को कुछ न कुच देते ही रहते हैं । इस जगत के अपार जन समूह व अन्य सब प्रकार के जीवों को देते हुए भि उनका हाथ कभि थकता नहीं । दिन रात परोपकार करते हुए जीवों को दान बांटते हुए भि उन्हें क्भी थकान अनुभव नहीम होति जबकि जीव ने देना तो क्या लेते लेते भी थक जाता है ।
प्रभु एक महान दाता है । जीव इस दान को ग्रहण करने वाला है । प्रभु के पास अपार सम्पदा है , जिसे वह दान के द्वारा सदा बांटता रहता है , जीव दान लेने वाला है किन्तु यह दान लेते हुए भी थक जाता है । इससे स्पष्ट होता है कि जीव की स्तुति का कभी अन्त नही होता । प्रभु से वह सदा कुछ न कुछ मांगता ही रहता है । हमारी मांग का , हमारी प्रार्थना का , हमारी स्तुति का कभी अन्त नहीं होता । इस कारण यह कभी भी नहीं हो सकता कि मैं ( जीव ) प्रभु के दानों की कभी पूर्ण रुप से स्तुति कर सकूं । परमात्मा देते देते कभी हारते नहीं , कभी थकते नहीं किन्तु मैं स्तुति करते हुए , यह सब प्राप्त करते हुए भी थक जाता हूं ।
प्रभु के दरबार में सब प्रर्थनाएं स्वीकार होती हैं
डा. अशोक आर्य
प्रभु सर्वशक्तिशाली है तथा हम सब का पालक है । वह हमारी सब प्रार्थनाओं को स्वीकार करता है । यह सब जानकारी इस मन्त्र के स्वाध्याय से मिलती है , जो इस प्रकार है :-
व्रषा युथेव वंसग: क्रष्टीरियर्त्योजसा ।
ईशानो अप्रतिष्कुत: ॥ रिग्वेद १.७.८ ॥
इस मन्त्र में चार बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है ।:-
१. प्रभु प्राजाओं को सुख देता है :-
परम पिता परमात्मा सर्व शक्तिशाली है । उसकी अपार शक्ति है । संसार की सब शक्तियों का स्रोत वह प्रभु ही है । इस से ही प्रमाणित होता है कि प्रभु अत्यधिक शक्तिशाली है । अपरीमित शक्ति से परिपूर्ण होने के कारण ही वह सब को शक्ति देने का कार्य करता है । जब स्वयं के पास शक्ति न हो , धन न हो , वह किसी अन्य को कैसे शक्ति देगा , कैसे दान देगा । किसी अन्य को कुछ देने से पहले दाता के पास वह सामग्री होना आवश्यक है , जो वह दान करना चाहता हो । इस कारण ही प्रभु सर्व शक्तिशाली हैं तथा अपने दान से सब पर सुखों की वर्षा करते हैं ।
२. प्रभु सब को सुपथ पर ले जाते हैं :-
परम पिता परमात्मा हम सब को सुपथ पर चलाते हैं , जिस प्रकार गाडी के कोचवान के इशारे मात्र से , संकेत मात्र से गाडी के घोडे चलते हैं ,गति पकडते हैं , उस प्रकार ही हम प्रभु के आग्या में रहते हुए , उस के संकेत पर ही सब कार्य करते हैं । हम, जब भी कोई कार्य करते हैं तो हमारे अन्दर बैटा हुआ वह पिता हमें संकेत देता है कि इस कार्य का प्रतिफ़ल क्या होगा ?, यह हमारे लिए करणीय है या नहीं । जब हम इस संकेत को समझ कर इसे करते हैं तो निश्च्य ही हमारे कार्य फ़लीभूत होते हैं । वेद के इस संन्देश को ही बाइबल ने ग्रहण करते हुए इसे बाइबल का अंग बना लिया । बाइबल में भी यह संकेत किया गया है कि भेडों के झुण्ड को सुन्दर गति वाला गडरिया प्राप्त होता है, उनका संचालन करता है , उन्हें चलाता है । भेड के लिए तो यह प्रसिद्ध है कि यह एक चाल का अनुवर्तत्व करती हैं । एक के ही पीछे चलती हैं । यदि उस का गडरिया तीव्र गामी न होगा तो भेडों की चाल भी धीमी पड जावेगी तथा गडरिया तेज गति से चलने वाला होगा तो यह भेडें उस की गति के साथ मिलने का यत्न करते हुए अपनी गती को भी तेज कर लेंगी । बाइबल ने प्रजाओं को भेड तथा प्रभु को चरवाहा शब्द दिया है , जो वेद में प्रजाओं तथा प्रभु का ही सूचक है ।
३. प्रभु से औज मिलता है : –
परम, पिता परमात्मा ओज अर्थात शक्ति देने वाले हैं । जो लोग क्रषि अथवा उत्पादन के कार्यों में लगे होते हैं , उन्हें शक्ति की , उन्हें ओज की आवश्यकता होती है । यदि उनकी शक्ति का केवल ह्रास होता रहे तो भविष्य में वह बेकार हो जाते हैं , ओर काम नहीं कर सकते । शिथिल होने पर जब प्रजाएं कर्म – हीन हो जाती हैं तो उत्पादन में बाधा आती है । जब कुछ पैदा ही नहीं होगा तो हम अपना भरण – पोषण कैसे करेंगे ? इस लिए वह पिता उन लोगों की शक्ति की रक्शा करते हुए , उन्हें पहले से भी अधिक शक्तिशाली तथा ओज से भर देते हैं ताकि वह निरन्तर कार्य करता रहे । इस लिए ही मन्त्र कह रहा है कि जब हम प्रभु का सान्निध्य पा लेते हैं , प्रभु का आशीर्वाद पा लेते हैं , प्रभु की निकटता पा लेते हैं तो हम ( जीव ) ओजस्वी बन जाते है ।
४. प्रभु सबकी प्रार्थना स्वीकार करते हैं :-
परमपिता परमात्मा को मन्त्र में इशान कहा गया है । इशान होने के कारण वह प्रभु सब प्रकार के एश्व्र्यों के अधिष्टाता हैं , मालिक हैं , संचालक हैं । प्रभु कभी प्रतिशब्द नहीं करते , इन्कार नहीं करते , अपने भक्त से कभी मुंह नहीं फ़ेरते । न करना , इन्कार करना तो मानो उन के बस में ही नहीं है । उन का कार्य देना ही है । इस कारण वह सबसे बडे दाता हैं । वह सब से बडे दाता इस कारण ही हैं क्योंकि जो भी उन की शरण में आता है , कुछ मांगता है तो वह द्वार पर आए अपने शरणागत को कभी भी इन्कार नहीं करते ,निराश नहीं करते । खाली हाथ द्वार से नहीं लौटाते । इस कारण हम कभी सोच भी नहीं सकते कि उस पिता के दरबार में जा कर हम कभी खाली हाथ लौट आवेंगे , हमारी प्रार्थना स्वीकार नहीं होगी । निश्चित रुप से प्रभु के द्वार से हम झोली भर कर ही लौटेंगे ।