सूचना का अधिकार अधिनियम,2005 के प्रावधानों के अंतर्गत केंद्र व राज्यों में आयोगों की स्थापना की गयी है और केन्द्रीय प्रतिष्ठानों में “अधिकार” की प्रोन्नति का दायित्व केन्द्रीय सूचना आयोग को सौंपा गया है| केन्द्रीय आयोग की स्थापना से अब तक लगभग 170,000 अपीलें व परिवाद याचिकाएं आयोग में दायर हुई हैं और लगभग 140,000 याचिकाएं निस्तारित की जा चुकी हैं| किन्तु विडंबना यह है कि लोक प्राधिकारियों द्वारा 80-90प्रतिशत मामलों में देय सूचना से अभी भी इन्कार ही किया जाता है और शासन व्यवस्था व लोक प्राधिकारियों के कार्यकरण में अभी भी अपार अस्वच्छता-भ्रष्टाचार-अपारदर्शि
केन्द्रीय आयोग ने अपनी स्थापना से लेकर अब तक 1000 से भी कम प्रकरणों में अर्थदंड लगाया गया है और उसका भी लगभग 40प्रतिशत भाग वसूली होना शेष है| देश की नौकरशाही जिम्मेदारी व पारदर्शिता से कार्य नहीं कर रही थी और इस पवित्र उद्देश्य को ध्यान में रखकर अधिनियम बनाया गया| किन्तु आयोगों में उन्हीं सेवानिवृत नौकरशाहों को नियुक्त कर दिया गया है जो इस अंग्रेजी शासन से चली आ रही गैर-जिम्मेदार, अस्वच्छ, हठधर्मी, राजतान्त्रिक, निरंकुश व अपारदर्शी व्यवस्था का कल तक अंग रहे हैं और इसी के लिए उपयुक्त रहे हैं| तभी तो वे अपना सेवाकाल सहर्ष पूर्ण कर पाए अन्यथा ये लोग यदि अंत:करण, विचारों, कार्यशैली व मन से इस अव्यवस्था के अनुकूल एवं उपयुक्त नहीं होते तो निश्चित रूप से अपना सेवाकाल सहर्ष पूर्ण नहीं कर पाते| इनसे कुछ सुधार की आशा करना दिन में स्वप्न देखने से अधिक कुछ भी नहीं है| अर्थात सरकारों ने बिल्ली को दूध की रखवाली की जिम्मेदारी देने की कहावत चरितारार्थ कर दी है| सेवा निवृति के बाद पुन:नियुक्त ये नौकरशाह अपनी बिरादरी के विरुद्ध कोई दंडात्मक कार्यवाही नहीं कर सके हैं यह तथ्य आंकड़ों से साबित है| केन्द्रीय आयोग में अब तक लगभग 20 आयुक्त नियुक्त हो चुके हैं जिसमें से आपवादिक तौर पर मात्र एक ही गैर-नौकरशाह रहे हैं| ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि केन्द्रीय आयोग द्वारा अर्थदंड लगाने के कुल 1000 मामलों में से आधे से ज्यादा तो अकेले इस गैर-नौकरशाह आयुक्त के हैं अर्थात शेष 19 आयुक्तों ने मिलकर अपने सम्पूर्ण कार्यकाल में मात्र 300 मामलों में अर्थदंड लगाया है जोकि प्रति आयुक्त 15 मामले आते हैं| उक्त विश्लेष्ण से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि आयोग में एक औसत नौकरशाह आयुक्त ने एक वर्ष में मात्र 3 मामलों में अर्थदंड लगाया है और दोषी अधिकारियों का पर्याप्त पक्षपोषण व बचाव कर जनतंत्र के इस प्रभावी उपकरण को भी नकारा साबित कर दिया है|
अधिनियम की धारा 19(5) व 20(1) में समय पर सूचना नहीं देने का औचित्य स्थापित करने का भार सूचना अधिकारी पर है और इसमें विफल रहने पर सूचना अधिकारी पर कानून के अनुसार अर्थदंड निरपवाद स्वरूप लगाया जाना चाहिए| अधिनियम में आयुक्तों को कोई विवेकाधिकार नहीं दिया गया है| यहाँ तक कि सम्पूर्ण अधिनियम में विवेकाधिकार शब्द तक का प्रयोग नहीं किया गया है जिससे विधायिका का मंतव्य स्पष्ट है| समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिए कानून में दंड का प्रावधान रखा जाता है किन्तु प्राय:आयोग के निर्णयों में न ही तो सूचना नहीं देने का औचित्य स्थापित माना जाता है और न ही दोषी पर अर्थदंड लगाया जाता जिससे सूचना अधिकारियों को यह सन्देश जाता है कि आयोग एक दंतविहीन, रस्मी व दोषियों का मैत्रीपूर्ण संस्थान है और आयोग की कार्यवाहियां मैत्रीपूर्ण मैच हैं| इस मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए आयोग को न्यूनतम 10 प्रतिशत मामलों में अर्थदंड लगाना चाहिए था| आयोग ने शक्तिसंपन्न विभागों के विरुद्ध यद्यपि कई मामले निर्णित किये हैं किन्तु आश्चर्य का विषय है कि आज तक उनमें से एक भी मामले में अर्थदंड नहीं लगाया है इससे आयोग की निष्पक्षता पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगता| आयोग ने गृह मंत्रालय व न्याय विभाग के विरुद्ध कई हजार मामले निर्णित किये हैं जहां आवेदकों को अनुचित रूप से सूचना हेतु मना किया गया किन्तु आयोग ने इन विभागों के अधिकारियों पर किसी मामले में मुश्किल से ही कोई अर्थदंड लगाया हो| न्यायालय, सतर्कता, पुलिस आदि ऐसे ही अन्य सशक्त विभाग हैं जिन पर स्वयम आयोग ने अर्थदंड लगाने से परहेज़ कर अपनी कर्तव्य विमुखता का परिचय दिया है और अपनी विश्वसनीयता व निष्पक्षता पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है| एक मामले में तो आयोग ने न्यायालय द्वारा सुनवाई में समय मांगने पर न्यायालय की बजाय स्वयम अपने खजाने से याची को क्षतिपूर्ति दी है| आयोग द्वारा अर्थदंड लगाए जाने के मामलों का विश्लेष्ण करने पर ज्ञात होता है कि मात्र स्थानीय निकाय, शिक्षा विभाग, बिजली, पानी, परिवहन, निर्माण विभाग जैसे शक्तिहीन लोक प्राधिकारी ही अर्थदंड चुकाने के लिए विवश किये गए हैं|
आयोगों को यह चाहिए कि जहां सूचना हेतु याची के पक्ष में आदिष्ट करे उस प्रत्येक निर्णय में या तो धारा 19(5) व 20(1) के अंतर्गत दोषी अधिकारी द्वारा स्थापित औचित्य को अपने निर्णय में साबित समझे अन्यथा दोषी अधिकारी पर अर्थदंड अवश्य लगाए ताकि अधिनियम कारगर साबित हो सके और यह एक कागजी व कोरी औचारिकता नहीं रह जाए|
राज्य आयोगों की स्थिति भी लगभग समान ही है क्योंकि वहां पर भी किसी न किसी स्वामिभक्त सेवानिवृत नौकरशाह को देव मूर्ति की तरह स्थापित कर उपकृत किया गया है और दोषी अधिकारियों का भरपूर बचाव किया जा रहा है| सरकार का यह कुतर्क हो सकता है कि सेवानिवृत लोगों को नियुक्त करने पर उन्हें आधा ही वेतन (आधा भाग तो वे पेंशन के रूप में पहले से ही प्राप्त कर रहे होते हैं) देना पड़ता है अत: यह सस्ता है किन्तु इस सस्तेपन की जनता को वास्तव में कितनी कीमत चुकानी पडती है इसका आकलन नहीं किया जा रहा है| इससे भी अधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि कई बार तो पुलिस विभाग के अधिकारियों को आयुक्त नियुक्त कर दिया जाता है जिनके सम्पूर्ण सेवाकाल में मूल अधिकारों का तो क्या मानव-अधिकारों की रक्षा करने का कोई वातावरण आसपास तक नहीं रहा हो| स्वयम पुलिस अधिकारी जानते हैं कि सेवानिवृति के बाद उनका जनता में कितना सम्मान होता है| इस डर से कई पुलिस अधिकारी तो फेसबुक कैसे सामाजिक माध्यमों पर अपना खाता तो खोल लेते हैं किन्तु अपना पूर्व सेवाकाल तक प्रकट नहीं करते हैं| देश की जनता को सूचना की स्वतंत्रता के लिए अभी मीलों का सफर व काफी संघर्ष करना बाकी है क्योंकि अधिनियम अभी तक तो एक कोरी औपचारिकता है– जनता को भुलावे का एक साधन मात्र है|
केंद्र सरकार व राज्य सरकारों को यह नीति बनानी चाहिए कि किसी भी आयोग या बोर्ड में 20 प्रतिशत से अधिक सेवानिवृत नौकरशाह नियुक्त नहीं किये जाएंगे तभी इस देश की जनता का हित सध सकता है- वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा| प्रजातंत्र में नौकरशाहों की नियुक्ति मात्र परामर्श के लिए ही उचित है किसी भी निर्णय करने के लिए नहीं| सरकार में भी किसी भी स्तर के सचिव को नीतिगत निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं है अपितु वे मंत्री के मात्र सलाहकार हैं| इसी सिद्धांत का यहाँ भी अनुसरण किया जाना चाहिए क्योंकि जिन्होंने अपने सम्पूर्ण सेवाकाल में मात्र परामर्श दिया हो और वे निर्णय लेने में अनुभवहीन हों उन्हें निर्णय करने का पद आखिर क्योंकर दिया जाए|
जय भारत !