ललित मोहन, रुद्रपुर : ‘तेज़ हवा में जला दिल का दिया आज तक,ज़ीस्त से एक अहद था पूरा किया आज तक’
उन्हें साहित्य अकादमी तथा उर्दू अकादमी लखनऊ के बाद हाल ही में अभिनेता अमिताभ बच्चन के हाथों प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरूस्कार से नवाजा गया था.
प्रोफेससर शहरयार ने कई हिंदी फिल्मों के गीत भी लिखे. वर्ष १९८१ में, मुजफ्फर अली द्वारा निर्देशित फिल्म, उमराव जान में उन्होंने संगीतकार खय्याम के संगीत निर्देशन में “दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए” , “ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है “, “ज़िंदगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें, ये ज़मी चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें”.जैसी बेहद खूबसूरत ग़ज़लें लिखीं. फिल्म गमन के लिए संगीतकार जयदेव के संगीतनिर्देशन में उन्होंने- “सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है…” जैसी ग़ज़ल लिखी. जो कि हिंदी फ़िल्मी गीतों के लिए एक निधी हैं.
प्रोफ़ेसर शहरयार उर्दू भाषा के प्रतिष्ठित शायर थे. उनका नाम हिंदी पाठकों में भी आदर के साथ लिया जाता था. उनके काव्य संग्रह ‘कहीं कुछ कम है’ और ‘सैरे जहाँ’ को वाणी प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया था.
शहरयार साहब को अलीगढ़ से बेहद प्रेम था. उन्होंने अपनी पुरी ज़िंदगी को बेहद सादगी से जिया. वह मुंबई के संपर्क में रहने के बाद भी हर प्रकार की तड़क-भड़क से दूर रहे. ईश्वर ने उन्हें आखरी सांस भी अलीगढ़ में बक्शी.
टीवी चैनल उनके जाने की खबर को सबसे पहले लोगों तक पहुचाने की कोशिश में जनाब निदा फाज़ली की ग़ज़ल ” कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता” सुना रहे थे. ठीक वैसे ही; जैसे उन्होंने संगीतकार नौशाद के इन्तेकाल पर संगीतकार नाशाद के गीत, और संगीतकार ओ पी नय्यर के जाने पर संगीतकार तुषार भाटिया के फिल्म “अंदाज़ अपना-अपना” के गात बजा दिए थे.
शहरयार साहब की रूह को सुकून मिले और वह हमेशा हामारी यादों में जिंदा रहें….
प्रितिक्रिया हेतु धन्यवाद! दरअसल मैंने यह लेख एक खबर के तौर पर लिखा था. जल्दी में अधिक नहीं लिख पाया. जैसे शहरयार साहब को कई अन्य पुरस्कार भी मिले थे, मैं उनका ज़िक्र नहीं कर पाया. रही बात जूनी की तो ‘जूनी’ के बारे में सुना था मैंने , पर लिखा नहीं . वैसे सिर्फ़ शहरयार साहब के लिखे गीत ही नहीं , बल्कि और कई फिल्मों के ‘डिब्बे’ में बंद हो जाने के कारण, कई और गीत भी खामोश बैठे हुए है. कुछ वर्ष पूर्व स्वर्गीय मदन मोहन के सुपुत्र संजीव कोहली ने फ़िल्म ‘वीर ज़ारा’ में अपने पिता की बनाई तर्जों को पेश किया था. तर्जों में गीत नयी कहानी के अनुसार दोबारा ‘जावेद अख्तर’ साहब से लिखवाए गए थे. इसके अलावा एक और अल्बम में मदन मोहन के द्वारा रिकोर्ड किए गए गानों को हूँ-ब-ह पेश किया गया था. ऐसे ही कई और लोगों के गीत भी होंगे, जो अभी तक लोगों के सामने आने का इन्तेज़ार कर रहे है…
ललित जी की इस श्रद्धांजलि की अंतिम पंक्तियाँ गौर ए काबिल हैं. जो एक तरह से खतरे की घंटी हैं आज के उन गिरे दर्जे के चैनलों के प्रसारण से बचने के लिए जो कुछ का कुछ बताते हुए राई का पहाड़ और पहाड़ की राई बनाने में एक पल को नहीं चूकते. दुआ उस खुदा उस ईश्वर से कि दुनिया से विदा इंसान और दुनिया में मौजूद इंसान दोनों के साथ ये चैनलवाले इज्ज़त का एक फांका तो बाकी रखें.
इसके इतर, जैसा कि ललित जी ने शहरयार साहब के कुछ गीतों और कामों का जिक्र किया है..उसमे ज़रा सा इज़ाफा करते हुए मैं जिक्र करना चाहूँगा उनकी एक ताज़ा तरीन किताब “शहरयार सुनो” जो गुलज़ार साहब ने संपादित की है. साथ ही मुज़फ्फर अली साहब कि एक अधबनी अटकी हुई फिल्म “जूनी” जिसके लाजवाब गीत आज भी राह तक रहे हैं कि सियासी शिकंजो से छूटें और उनके मुरीदों तक पहुँचे…