दर्शना देवी डा. अशोक आर्य
मानव की रक्शा उस के अन्दर के दिव्य गुणों से होती है । दिव्य
गुण उस व्यक्ति को ही प्राप्त होते हैं जो व्यक्ति श्रम करता हो तथा संयम
पूर्वक रहता हो । इन दिव्य गुणों से ही मानव का शरिर , उसका मन तथा उसकी
बुद्धि को स्वास्थ्य लाभ मिलता है । इस बात को यह मन्त्र इस प्रकार
व्यक्त करता है : –
ओमासश्चर्षणीध्रतो विश्वेदेवास आ गत ।
दाश्वांसोदाशुष: ॥रिग्वेद १.३.७ ॥
गत मन्त्र में सात्विक भोजन से जीवन को सात्विक बनाने का उपदेश
किया गया था । इस बात को ही आगे बटाते हुए इस मन्त्र में दो बातों को
सम्झाया गया है : –
१. अपने को सात्विक भोजन के द्वारा सात्विक बना कर जीव परम पिताता
परमात्मा से प्रार्थना करते हुए सर्वप्रथम यह कहता है कि हे दिव्यगुणों !
तुम मुझे प्राप्त होवो, मुझे मिलो, मैं तुम का अधिकारी बनुं । अर्थात इस
संसार मे जितने भी दिव्य गुणों का भण्डार है, वह सब गुण मैं प्राप्त करके
इन दिव्य गुणों का भण्डारी बनूं । यह दिव्य गुण केवल ओर केवल सात्विक
व्यक्ति को ही , सात्विक जीव को ही मिलते हैं । मैंने सदा सात्विक भोजन
किया है । मैंने सदा सात्विक अन्न ही ग्रहण किया है । इस लिए मेरे अन्दर
दिव्य गुणों को पाने की योग्यता आ गई है , इसलिए मैंने इन्हें प्राप्त
करने का , इन्हें प्रभु से मांगने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया है । तब
ही तो मैं प्रार्थना करते हुए कह रहा हुं कि हे प्रभु ! जितने प्रकार के
भी दिव्य गुण हैं , वह सब मुझे प्राप्त करावो ।
प्रश्न उटता है कि दिव्य गुण कहते किसे हैं ? दिव्य का अभिप्राय
है किसी देवता के द्वारा दिए जाने वाले तथा गुण का अर्थ है अच्छाई ।
देवता से अभिप्राय है जो देने का कार्य करता है । हम परमात्मा को तो
देवता कहते ही हैं क्योंकि वह परमात्मा हमें सदा ही कुछ न कुछ देता ही
रहता है । इस प्रकार अन्य भी बहुत से तत्व हैं , जो हमें कुछ न कुछ देते
ही रहते हैं यथा वायु व जल हमें जीवन देते हैं , वह भी देवता हैं । माता
, पिता व गुरुजन हमें ग्यान देते हैं , वह भी हमारे लिए देवता है । अन्य
भी जहां से हमें कु्छ मिलता है , उन साधनों को हम देवता हि कह सकते है ।
ये दिव्य गुण हमारे जीवन में क्या करते हैं , इनसे हमें क्या लाभ
होता है , इनका हमारे जीवन में क्या प्रयोजन है ? यह भी हमे जानने का
मार्ग यह मन्त्र बता रहा है । मन्त्र कह रहा है कि यह दिव्य गुण हमारा
रक्शण करने का कार्य करते हैं अर्थात यह दिव्य गुण हमारी रक्शा करते हैं
। प्रश्न फ़िर उटता है कि यह गुण हमारी रक्शा कैसे करते है ? हम जानते हैं
कि दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए हमें संघर्ष करना पडता है , मेहनत
करनी होती है , तप करना होता है , यहां तक कि मुंह तक के स्वाद को छो्ड
कर सात्विक भोजन पर निर्भर होना पडता है, रुखा सूखा खाना पदता है । इस सब
से एक बात तो स्पष्ट है कि जिन गुणों को पाने के लिए हम इतना संघर्ष करते
हैं , यदि उन गुणों का हमारे जीवन में कुछ उपयोग ही न हो तो उन्हें पाने
के लिए हम इतना संघर्ष क्यों करें ? इतना समय क्यों लगायें ? इतनी शक्ति
व्यर्थ में क्यों नष्ट करें ?
यह सब जानने के लिए हमें दिव्य गुणों की उपयोगिता को जनना होगा ।
दिव्य गुणों की ही सबसे उत्तम व सब से प्रमुख उपयोगिता यह है कि यह गुण
हमारी रक्शा करने वाले होते हैं तथा हमारी रक्शा का कार्य करते हैं । इन
दिव्य गुणों से ही हमारा शरीर रोगों से बचा रहता है । शरीर में किसी
प्रकार का भी रोग प्रवेश नहीं कर पाता । हम सदा निरोग रहते हैं , स्वस्थ
रहते हैं । यह दिव्य गुण ही हैं जिन के कारण हमारे मन की सब मलिनताएं
धुल कर नष्ट हो जाती हैं । मन के सब कलुष दूर हो जाते हैं । मन में किसी
भी प्रकार की मैल नहीं रहती । इन दिव्य गुणों का तीसरा तथा सब से प्रमुख
कार्य है कि जिसके पास यह दिव्य गुण होते हैं , उसकी बुद्धि में किसी
प्रकार की मन्दता नही आती , किसी प्रकार की मलिनता नही आती । मन्द बुद्धि
व्यक्ति समाज के साथ नही चल पाता । मन्द बुद्धि व्यक्ति समाज से बहुत
पीछे रह जाता है , उसकी अपनी इच्छाएं क्या हैं , इसका भी उसे टीक से
ग्यान नही होता । इस कारण कोई भी व्यक्ति मन्द बूद्धि नहीं होना चाहता ।
स्कूल की कक्शा में ही जो बालक मन्द बुद्धि होता है , उसका सब बालक उपहास
उडाते हैं , उसकी खिल्ली उडाते हैं । कोई नहीं चाहता कि उसकी कभी खिल्ली
उडे । इससे बचने का एक मात्र साधन है दिव्य गुणों की प्राप्ति । जिसके
पास दिव्य गुणों का भण्डार होता है , उसकी बुद्धि बडी तेजी से चलती है ।
वह बडी से बडी समस्या को मिन्टों में हल करने की कशमता रखता है । वह क्भी
विकट स्थिति में भी अपने धॆर्य को नहीं छोडता । इस प्रकार दिव्य गुणों के
स्वामी की बुद्धि तिव्रतम हो जाती है ।
यह दिव्य गुण मनुष्य को धारण करते हैं , आगे ले जाते हैं , उनकी
उन्नति का कारण बनते हैं । जो व्यक्ति क्रिषि करते है , जो व्यक्ति मेहनत
व मजदूरी करते है , श्रम करते है , एसा करने वालों की यह दिव्य गुण रक्शा
करने का कार्य करते हैं । दिव्य गुण का भाव ही वास्तव में श्रम से होता
है । जो व्यक्ति सदा श्रम करता है, मेहनत करता है, परिश्रम करता है ,वह
ही इन दिव्य गुणों को पाता है, जो आलसी बनकर पडा रहता है, वह इन गुणों
को कैसे पा सकता है ? अर्थात नहीं पा सकता । यह कहा भी जाता है कि आलसी
व्यक्ति दुर्गुणों का स्वामी होता है तो पुरुषार्थी व्यक्ति सदगुणों की
खान होता है । आलसी को कहीं भी कोई सम्मान नहीं मिलता जबकि सद गुणों से
युक्त व्यक्ति का, दिव्यगुणों से युक्त व्यक्ति का सर्वत्र सन्मान होता
है . दूर दूर तक उस का यश व कीर्ति फ़ॆले होते है , सब स्थानों पर उस के
गुणों की चर्चा होती है तथा सब लोग उसका सान्निध्य पाने के अभिलाषी होते
हैं ।
२. इस मन्त्र में दुसरा उपदेश देते हुए बताया गया है कि हे विश्व
देवो ! हे प्रभु ! आप हमें सब कुछ देने वाले हो । आपकी ही क्रिपा से हमें
सब कुछ मिलता है । यदि आप का वर्द- हस्त हमारे ऊपर न हो तो हमें कुछ भी
नहीं मिल सकता । भाव यह है कि जब एक व्यक्ति दानशील होता है , दाता होता
है ,देवता का कार्य करता है तो वह व्यसनॊ में रम ही नहीं सकता । भाव यह
है कि दाता , दान देने वाला , अपने अतिरिक्त धन को, अपनी अतिरिक्त
वस्तुओं को दान कर के दूसरे लोग , जो साधन हीन होते हैं , उनका सहयोग कर
उनकी आवश्यकताए पूरा करने का यत्न करता है । जब वह अपने अतिरिक्त धन को
दूसरॊं की सहायता में लगा देता है तो उसके पास इतना धन शेष रहता ही नहीं
कि वह अपने जीवन को व्यस्नों में धकेल सके । उसके पास इतना समय भी नहीं
होता कि वह व्यसनों में उलझ कर अपने समय को नष्ट करे । यदि वह इन बुरईयों
में लगता है तो वह दान नहीं कर सकता ओर यदि इन व्यसनों से बचता है तो
दाता बन जाता है । दाता के रुप में उसका यश , कीर्ती दूर दूर तक चली जाती
है । लोग उसकी शरण में आने लगते हैं ।
अत: मन्त्र कह रहा है कि हे प्रभु ! आप सब कुछ देने वाले हो । आप
देने वाले स्वभाव के, दातास्वभाव के हो । जब एक व्यक्ति दाता बन कर अपने
अन्दर के दोषों को धो देता है तो वह दान व्रिति वाला होने से लोभी नहीं
रह सकता क्योंकि लोभी तो कभी दाता बन ही नहीं सकता, कोई दान का कार्य कर
हीन ही सकता । अत: दाता कभी लोभी नहीं होता । लोभ का उसकी व्रितियों मे
नाश होने से वह सब प्रकार के व्यस्नों से ऊपर उट जाता है , उसमें किसी
प्रकार के व्यस्न के लिए कोई स्थान ही नहीं रहता । व्यसनों से ऊपर उटने
के कारण ,दाता बनने के कारण, वह अपने शरीर में शक्ति एकत्र करने में ,
सोम रक्शण करने में सक्शम हो जाता है तथा भरपूर मात्रा में सोम की रक्शा
कर लेता है, सोम एकत्र कर लेता है । यह ही उसके जीवन का यग्य होता है ।
जो इस प्रकार का यग्य करता है ,उसके यग्य में सब प्रकार के दाता, सब
प्रकार के दानी, सब प्रकार के देव भाग लेते हैं ,उपस्थित होते हैं । इस
सब का भाव यह है कि जब मनुष्य अपने शरीर में सोम की रक्शा कर लेता है तौ
उस के जीवन में दिव्य गुणों का विकास होता है तथा वह धीरे धीरे इन दिव्य
गुणों का स्वामी बन जाता है ।