वी के जोशी : चारों ओर आकाश को चुनौती देते पर्वत और बीच में नीले जल वाली एक दम शांत झील-सर्वदा से आकर्षण की केन्द्र रही है. यह शांत दिखने वाली झीलें क्या वास्तव में उतनी धीर-गंभीर होती हैं? यदि एक नजर डालें पिछली घटनाओं पर, तो उत्तर होगा ‘शायद नहीं.’ आगे बात करने के पूर्व उत्तराखंड की कुछ घटनाओं पर प्रकाश डालना आवश्यक है.
अंग्रेजों का राज्य था. 1893 की बरसात में गढ़वाल में अलकनन्दा की सहयोगिनी, बिरही गंगा में गोहना के निकट समूचा पर्वत ढह गया. बिरही का मार्ग अवरुद्ध हो गया और उसके ऊपर एक हजार फिट ऊंचा मलबे का बाँध बन गया. समाचार मिलते ही सरकार ने भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के टी. एच. हॉलैंड को लेफ्टिनेंट कर्नल पुलफोर्ड तथा लेफ्टिनेंट क्रुकशैंक के साथ पूरे हादसे की जांच के लिए भेजा. हॉलैंड ने मार्च 1894 में गोहना पहुँच कर पूरे क्षेत्र के सर्वेक्षण के बाद रिपोर्ट दी कि 25/26 अगस्त को यह बाँध टूट जाएगा जिससे बिरही, अलकनन्दा तथा गंगा घाटी में अचानक जलस्तर बढ़ने से बाढ़ का जबर्दस्त जोखिम होगा.
सरकार ने उसकी रिपोर्ट को गम्भीरता से लिया. बाढ़-संभावित समूचे क्षेत्र से लोगों को आनन-फानन में हटा लिया गया. गोहना से हरिद्वार तक टेलीग्राफ लाइन लगा कर एक सहायक अभियंता को गोहना में इस आदेश के साथ नियुक्त कर दिया कि यदि बाँध को जरा भी ख़तरा हो तो तुरंत खबर दे. गणनानुसार नियत दिन पर बाँध फटा, बाढ़ भी आई, पर पांच लोगों के एक परिवार को छोड़कर किसी की मृत्यु नहीं हुई.
इस हादसे में पूरा बाँध नहीं फटा. बचे हुए बाँध से रुका गोहना ताल अँगरेज़ सैलानियों का आकर्षण केन्द्र बन चुका था. अंग्रेजों को अलकनन्दा की इस द्रोणी के वन भी भा गए और खूब जंगल कटे. यह कटान स्वतंत्रता के बाद भी जारी रही. नंगे पर्वत वर्षा में मिट्टी को नहीं रोक पाए. कालान्तर में गोहना ताल की तलहटी ढलानों से कट कर आ रही मिट्टी से पटती गई और 1970 में जो हुआ वह एक दर्दनाक एवं शर्मनाक हादसा था. बरसात में बाँध फटा और बिरही ने अलकनन्दा घाटी में प्रलय मचा दिया. बद्रीनाथ मार्ग में बेलाकूची में बिरही-अलकनन्दा संगम है. अचानक आई बाढ़ से बेलाकूची बाजार और उससे सौ फिट ऊपर गाँव सब बह गए. बेलाकूची में सड़क खुलने की प्रतीक्षा में खड़ी सौ से अधिक बसें और उनके यात्री सब बाढ़ में बह गए. उस बार भी कितने लोग मारे गए इसका कोई पक्का हिसाब नहीं मिला!
इंसानी याददाश्त शायद बेहद कमजोर होती है! बिरही के अतिरिक्त अनेक और प्राकृतिक आपदाएं उत्तराखण्ड में आई. लोग बेमौत मारे गए. परन्तु आपदाओं से जन्मी इन झीलों की मारक क्षमता को सरकार एवं जनता सब भूल गए. बद्रीनाथ एवं केदारनाथ में अधिक से अधिक तीर्थयात्रियों को लाने की होड़ मच गई. केदारनाथ में जून 2013 में जो हुआ उसे दुहराने की आवश्यकता नहीं है. परन्तु उसके बाद विश्व के अनेक विशेषज्ञों ने उस हादसे के कारणों को जानने की कोशिश की.
ब्रिटेन की डरहम यूनीवर्सिटी के ‘हैज़र्ड रिस्क मैनेजमेंट’ के विशेषज्ञ डेव पेटले ने केदारनाथ क्षेत्र के सैटेलाईट चित्रों तथा मौसम की रिपोर्टों के अध्ययन के पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि 28 मई से 22 जून तक इस पूरे क्षेत्र में पर्वतों पर भारी हिमपात हुआ. साथ ही 13 जून से ही मूसलाधार वर्षा हो रही थी. वर्षा एवं हिमपात की जोड़ी बेहद खतरनाक होती है. परिणामस्वरूप केदारनाथ से आगे मंदाकिनी घाटी में 22 कि मी की दूरी में डेविड ने 192 भूस्खलन सैटेलाईट चित्रों से पहचाने.
वर्षा एवं हिम पिघलने के कारण चोराबारी ताल बढते जल का दबाव न सह सका और जो परिणाम हुए उससे पाठक अवगत हैं.
आवश्यकता है उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि समूचे हिमालय क्षेत्र में पूर्व में हुए भूस्खलनों एवं हिमनदों के सम्मुख से बनी समस्त झीलों के आंकलन एवं संभावित जोखिमों को पहचानने की, ताकि भविष्य में किसी की भी तीर्थ यात्रा, अंतिम यात्रा ना होने पाए.