डा. अशोक आर्य
हम सदा क्रोध जैसे दुर्गुणों से दुर रहते हुए भद्र , उत्तम जीवन
बितावें तथा शत्रु दारा भी सौभाग्यशाली माने जावें । इस प्रकार हम
श्रमशील बनकर प्रभु प्रदत आनन्द के भागी बनें । इस प्रकार क उप्देश देते
हुए यह मन्त्र कह र्हा है कि : –
उत न: सुभगां अरिर्वोचेयुर्दस्म क्रष्तय: ।
स्यामेदिन्द्रस्य शर्मणि ॥ रिग्वेद १.४.६ ॥
इस मन्त्र में तीन प्रकार के उपदेश मानव मात्र को दिए गए हैं :-
१. हे शत्रु विनाशक प्रभो ! हम पर एसी क्रिपा करो कि हमारा जीवन भद्रता
से , उत्तम गुणों से इस प्रकार भरपूर हो कि हमारे गुणों के कारण हमारे
शत्रु भी सदा हमारी प्रशंसा ही करे । हे प्रभो ! हमारे अन्दर विपुल भद्र
भावनाओं को भरे दें , हमारे अन्दर उत्तम ग्यान का आघान करो , हमें इतना
भाग्यशाली बनाओ , तथा हमें इतनी धन सम्पदा दो कि हमारे श्त्रु भी सदा
हमारी प्रशंसा करें । हमारी भद्रता के कारण , हमारे उत्तम व्यवहार के
कारण , हमारे शत्रु भी सदा हमें सौभाग्यशाली समझते हुए हमारी प्रशन्सा ही
करें । शत्रु के ह्रिदय ,शत्रु के मन हमारी भद्रता के कारण , हमारे उत्तम
व्यवहार के कारण सदा प्रभावित रहें ।
जब हम गुणों के स्वामी होंगे , जब हम धन एश्वर्य के स्वामी होंगे ,
जब हम उत्तम ग्यान से प्रकाशित होंगे , जब हम ऊत्तम भावनाओं वाले होंगे
तो हमारी प्रजा, हमारे प्रियजन , हमारे मित्र , हमारे पास पडोस के लोग
सदा हमारी प्रशंसा करेंगे । जब हम सब ओर से प्रशंसित होंगे तो हमारे
शत्रु भी निश्चय ही हमारी प्रशंसा किए बिना न रह सकेंगे , वह हमें उत्तम
भाग्य वाला स्वीकार कर, हमारे गुणों की चर्चा करेंगे । एसा कोई कारण ही
नहीं रहेगा कि हमारे शत्रु हमारे इन गुणों से प्रभावित न हों ।
२. जब हम कर्मशील बनेंगे , जब हम श्रम को ही अपना आवश्यक धर्म स्वीकार
करेंगे , जब हम कर्म को , श्रम को ही प्रधानता देंगे तथा जब हम कर्मशील
हो सदा कर्म में ही लिप्त रहेंगे बनेंगे निश्चय ही हम उस परम एशवर्यशाली
पिता के द्वारा आनन्द का लाभ पा सकेंगे , क्योंकि प्रभु का यह आनन्द उसे
ही प्राप्त होता है , जो श्रम को ही अपना सब कुछ मानते हुए सदा श्रम के
कार्य करने में ही लगे रहते हैं ।
श्रम ओर अकर्म यह दो प्रतिद्वन्द्वी शक्तियां है । जो श्रमशील
होता है , वह कभी अकर्मण्य नहीं हो सकता तथा जो अकर्मण्य है वह कभी मेहनत
नही करता । जो अकर्मण्य होता है , उसे प्रभु कभी पसन्द नही करता तथा उसे
कभी किसी भी प्रकार का आनन्द नहीं देता ।
३. यह मन्त्र शत्रुओं के विनाश का भी उपदेश कर रहा है । मानव के
अन्दर काम , क्रोध , मद , लोभ , अहंकार आदि अनेक प्रकार के शत्रु निवास
करते है । जो व्यक्ति सदा श्रम करता है , सदा मेहनत करता है , उसके पास
इतना समय नहीं होता कि इन शत्रुओं की छत्रछाया प्राप्त करे , इन शत्रुओं
की आधीनता स्वीकार कर , इन शत्रुओं की इच्छाओं का गुलाम बने । मानव के यह
अन्दर के शत्रु उसके सर्वनाश का कारण होते हैं । किन्तु यह मन्त्र शत्रु
के विनाश का वाचक बनकर हमारे सामने आया है तथा हमें उपदेश करता है । यह
मन्त्र एक स्पष्ट संकेत दे रहा है कि प्रभु के आशीर्वाद से हमारे यह
अन्दर के सब शत्रु नष्ट हो जावे । यह नष्ट कैसे होंग ?, जब हम सदा कार्य
करते हुए अपने आप को व्यस्त रखेंगे तो यह सब शत्रु हमारे निकट न आ
पावेंगे तथा हम सुन्दर जीवन यापन करने वाले , हम उत्तम जीवन यापन करने
वाले एश्वर्य से युक्त बनेंगे तथा प्रभु के द्वारा मिलने वाले सुख , वैभव
व आनन्द में हमारी भी भागीदारी हो जावेगी व हम सुखी जीवन व्यतीत कर पाने
मे सफ़ल होंगे ।