पंडित नीरज मिश्रा : नुक्कड़ पर चाय पीते हुए अचानक कब मै सोच में डूब गया पता ही नहीं चला।एक भाई साहब से बात शुरू हुयी जो नए नए डॉक्टर हुए थे। अरे वो सुई लगाने वाले नहीं, पी एच डी वाले। उन्होंने बताया की सरकारी नौकरी मिले ना मिले, खर्च बर्च चल जाता है। एक जगह 17 हजार प्रति माह पर पढाता हु और 3-4 जगह डिग्री दे दी है कॉलेजों में, 4-4 हजार वहां से आ जाता है। सहसा मै उन भाई साहब की तुलना कर डाली यूनिवर्सिटी ऑफ़ शिकागो के 1953 में रिसर्च कर रहे स्टैनले मिलर से। एक रिसर्च का लड़का, जिसे अभी डिग्री भी नहीं मिली, अपने गुरु ‘युरे’ के साथ मिलकर ‘जीवन के उत्पत्ति’ की खोज कर डालता है। क्या समानता है मिलर और सामने बैठे भाई साहब में। यही की एक ने खोजा की जीवन की उत्पत्ति कैसे हुयी और दुसरे ने खोजा की प्रोफेसर के घर के लिए कम पैसे में सब्जी कैसे खरीदें? या उनके लड़के को बाइक चलाना कैसे सिखाएं। भारत में रिसर्च की स्थिति बहुत खराब है। लोग पी एच डी करने के लिए जुवाड लगाते थे, अब तो फिलहाल परीक्षाएं होने लगी हैं। प्रोफेसर की सब्जी लाते हैं, बेटे को स्कूटर सिखाते हैं और कुछ इधर उधर के काम, बस हो गया पी एच डी। प्रोफेसर साहब ने थीसिस लिख दी। डिग्री मिल गयी। भारत के कुछ इंस्टिट्यूटस जैसे आई आई टी को छोड़ दें बाकी कमोबेश हर जगह यही स्थिति है। अच्छा एक चीज़ और ये उपाधि अब बाटने वाली चीज़ भी हो गयी है। अभी हाल में ही श्री मुलायम सिंह यादव जी को पी एच डी की उपाधि दी गयी उनके समाज को दिए गए विशेष योगदानो की वजह से, हालांकि अपने कम ज्ञान की वजह से मै ये नहीं समझ पाया की ये उपाधि उनके कौन से योगदान की वजह से है, उत्तर प्रदेश में सुशासन लाने की वजह से या राजनीति में समाजवाद के नाम पर वंशवाद को स्थापित करने में सहायक की भूमिका निभाने के लिए।
पता नहीं, अपने से क्या यार…..
हमने तो अपना काम कर ही दिया है, वोट दे के….
क्यु????
-पंडित नीरज मिश्रा