कल, विश्व आर्थिक मंच ने विश्व लैंगिक-असमानता सूचि एवं इससे सम्बंधित रिपोर्ट प्रकाशित की| इस रिपोर्ट में भारत को ११४ वे जैसे निचे स्थान पर उन १४२ देशो के बीच में रखा गया है जिनके बारे में ये रिपोर्ट बनायीं गई है| स्वाभाविक रूप से छोटी आबादी वाले स्कैंडिनेवियाई देश, जैसे फ़िनलैंड, नॉर्वे और आइसलैंड जहाँ प्रति व्यक्ति आय ज्यादा है, ऊपर रखे गए हैं| समस्या यह है की ये रिपोर्ट उन सामाजिक मुद्दों का दोष पुरुषों पर मढ कर पुरुष-द्वेष (मिसेंड्रई) फैलाती है जो गरीबी और ख़राब शासन के कारण पैदा होते है, वहीँ ये पुरुषों को पहुचने वाली कई प्रकार की हानि की पूर्णतया उपेक्षा करती है|
ये रिपोर्ट साफ-साफ स्वीकारती है की लैंगिक-असमानता सिर्फ एक ही दिशा (महिलाओं की) में मापा गया है और तो और ये पुरुषों द्वारा झेले गए लिंग-भेद की सराहना करती है| अतः ये रिपोर्ट खुलेआम एकतरफ़ा और अवैज्ञानिक है| लैंगिक-असमानता को दोनों दिशायों में, पुरुषों और स्त्रियों दोनों के लिए, मापना ही होगा|
जैसे, रिपोर्ट की इन पंक्तियों में कहा गया है:
“एक देश, जहाँ माध्यमिक विद्यालय में छात्राओं की संख्या छात्रों से ज्यादा है, उसका अंक उस देश के बराबर होगा जहाँ छात्राओं और छात्रों की संख्या बराबर है|”
“दूसरा चुनाव था एकतरफ़ी तुला जो यह मापे की स्त्रियाँ पुरुषों की बराबरी से कितना निकट हैं परन्तु उन देशों को न पुरस्कृत करे है ना ही दण्डित जहाँ लैंगिक-असमानता दूसरी दिशा में है| ये एक-तरफी तुला हमारे इरादों के लिए अत्युप्युक्त है|”
“अगर छात्रों की संख्या कम है तो लड़कों को पहुचने वाली ये हानि आखिर किस प्रकार से लैंगिक समानता मानी जा सकती है? इसी तर्क से एक देश में पुरुषों की आत्महत्या स्त्रियों की अत्म्हाया से अधिक होने को भी लैंगिक-समानता मान लिया गया है| “लैंगिक-समानता की ऐसी परिभाषा बिलकुल बकवास और अमान्य है|” सेव इंडियन फॅमिली फाउंडेशन के संस्थापक सदस्य श्री अनिल कुमार ने बताया|
“पुरुषों को दोष देने का क्या औचित्य है जबकि वो पहले से ही स्त्रियों से ज्यादा दयनीय जीवन जी रहे हैं जहाँ उनका जीवन काल कम है और आत्महत्या की दर ज्यादा? स्त्रियों की अपेक्षा में तीन से चार गुना ज्यादा पुरुष भारत में हर वर्ष दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं|” सेव इंडियन फॅमिली फाउंडेशन अध्यक्ष श्री राजेश वखारिया नें कहा|
भारतीय सरकार को इस प्रकार की एकतरफ़ा पक्षपातपूर्ण और अवैज्ञानिक रिपोर्ट के प्रकाशन का घोर विरोध करना चाहिए जो सिर्फ पुरुषों और स्त्रियों के बीच में विवाद पैदा करना चाहती है| SIFF ने भारतीय सरकार से निवेदन किया है की अच्छे शासन और गरीबी हटाने पर ध्यान केन्द्रित किया जाये न की अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के दबाव में आकर पुरुष-विरोधी विभेदकारी अनुचित नीतियों की स्थापना| दिलचस्पी की बात ये है की रिपोर्ट खुद ही यह मानती है की वह एकतरफ़ा है|
“इस लैंगिक-समानता सूचि को प्रभावित करने के मुख्य कारण प्रति व्यक्ति आय और शासनीय मामले हैं न की कोई गंभीर लैंगिक भेदभाव. अगर सऊदी अरब और कुछ अन्य देशों को अपवाद के रूप में छोड़ दिया जाये तो ये साफ हो जाता है की ज्यादा प्रति व्यक्ति आय वाले देशों को ऊपर का स्थान मिला है और कम प्रति व्यक्ति आय वाले देशों को निचे का| बेहतर शासित और कम भ्रष्ट देशों को भ्रष्ट देशों से बेहतर स्थान मिला है|” सेव इंडियन फॅमिली फाउंडेशन के सामाजिक शोधकर्ता श्री अनिल कुमार ने कहा|
“उदाहरणतः, मातृ मृत्यु दर और निम्न साक्षरता जैसी समस्याएं गरीबी और बुरे शासन के कारण होती है न की गंभीर लैंगिक भेदभाव के कारण| जब २०% जनता गरीबी रेखा के निचे है, तब लैंगिक भेदभाव को लेकर रोने के बजाय हमें गरीबी कम करने के बारे में कदम बढ़ाने चाहिए|”
अगर हम सूचि की और देखें तो हम पाएंगे की भारत महिलाओं के लिए २८ वाँ ख़राब देश है, परन्तु रिपोर्ट पुरुषों की अवस्था के बारे में कोई सूचि नहीं बनाती है| अगर ऐसी सूचि बनाई जाय तब भारतीय पुरुषों की अवस्था भी उन १४२ देशों में ख़राब ही होगी, जिनके बारे में ये सर्वेक्षण किया गया है| ज़ाहिर सी बात है की ऐसी रिपोर्ट में भी स्कैंडिनेवियाई देश आगे निलेंगे और भारत १०५ या ११० जैसा स्थान पायेगा, जहाँ तक पुरुषों का सवाल है|
पुरुष अधिकार कार्यकर्त्ता इस रिपोर्ट से बहुत दुखी हैं क्योंकि इसे महिला संगठनों द्वारा आसानी से तोड़-मरोड़ कर पुरुषों को घरेलु हिंसा से सुरखा तथा खाद्य संरक्षण जैसी सामाजिक सेवाओं से वंचित रखने के लिए इस्तमाल किया जा सकता है| जब गरीबी और ख़राब शासन पुरुष और महिला दोनों की अवस्था के लिए जिम्मेदार हैं, तब इस रिपोर्ट का इस्तमाल पुरुषों के ऊपर एक प्रकार की जंग छेड़ने के लिए किया जा सकता है| लाखों पुरुष पहले से ही नकली दहेज और नकली बलात्कार के मामलों से पीड़ित हैं| पुरुष अर्थव्यवस्था बढ़ने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं और विश्व आर्थिक मंच की वार्षिक एकतरफी रिपोर्ट पुरुषों के अधिकार को भारत जैसे देशों में सिर्फ ख़राब ही कर सकती है|
जबकि ये रिपोर्ट पूर्णतयः महिला केन्द्रित है, फिर भी इसे “लैंगिक असमानता सूचि” कहा जा रहा है और पुरुष लिंग को आसानी से नज़रंदाज़ और जानबूझ कर अपमानित किया गया है|
इसे प्रकाशित करने के लिए बहुत धन्यवाद| ऐसी रिपोर्ट सिर्फ गरीब देशों को निचा दिखने के लिए बनाई जाती हैं| भारत जैसे प्राचीन सभ्यता वाले देश जो की इस युग में कठिन समय से गुजर रहे हैं, उन्हें इस मंच और ऐसी रिपोर्ट को सीधे नज़रअन्दाज कर देना चाहिए|