शिवयोगी श्रीप्रमोदजी महाराज : भृगसहिता ज्योतिषशास्त्र में भावों का महत्त्व
षष्ठ भाव : षष्ठ भाव को कठिनाइयों अड़चनों अर्थात शत्रुओ का स्थान माना गया है ||
यदि शरीर धन परिश्रमइच्छाशक्ति विचारशक्ति सबकुछ हो फिर भी मनुष्य संसारिक विरोधी शक्तियो अड़चनों कठिनाइयों से बाहर न निकल सके तो उसको कुशलता सफलता नही प्राप्त हो सकती अतः छठा स्थान शत्रु का स्थान कहलाता है ||
अन्य जाति एवं विदेशी वस्तुओ का विचार भी इसी भाव से किया जाता है ||
ऋण का सम्बन्ध भी इसी भाव से है क्योंकि हम अपनों से नही परायो से लेते है ||
शत्रु और चोट दोनों ही रोग स्वरूप है अतः इनको भी इसी भाव में देखा जाता है ||
घर के अंदर स्टोररूम तहखाना भी इसी श्रेणी में आता है ||
जातक के अंदरुनी अंग जैसे कमर आँत पुठ्टे आदि भी इसी भाव के अंतर्गत आते है ||
कालपुरुष की कुण्डली के अनुसार इसभाव में कन्याराशि पड़ती है अतः इस भाव का स्वामी एवं कारक ग्रह बुध है ||
शुक्र यहाँ नीच फल देता है ||
शरीर की गर्मी या रूखापन एवं दूरदर्शिता इसी भाव से देखी जाती है ||
क्योंकि बुध त्वचा एवं बुद्घि दोनों का प्रतिनिधित्व करता है ||
बुध ग्रह के कारण इसे व्यापार का भाव भी माना गया है ||
यह भाव अपमान अवनति एवं भाग्य के गिरावट को दिखाता है ||
इसके अतिरिक्त इस छठे भाव से विपरीत राजयोग चोट का योग चोरी का योग हिसात्मक प्रवृत्ति मामा के सम्बन्ध में विरोध एवं विशेष कष्ट को भी जाना जा सकता है ||
भृगसहिंता ज्योतिष में भाव का महत्व (भाव में प्रथम भाव )
भृगसहिंता ज्योतिष में भाव का महत्व (भाव में द्वितीय भाव)
भृगसहिंता ज्योतिष में भाव का महत्व (भाव में तृतीय भाव)
भृगसहिंता ज्योतिष में भाव का महत्व (भाव में चतुर्थ भाव)
भृगसहिंता ज्योतिष में भाव का महत्व (भाव में पञ्चम-भाव)
भृगसहिंता ज्योतिष में भाव का महत्व (भाव में षष्ठ भाव )
भृगसहिंता ज्योतिष में भाव का महत्व (भाव में सप्तम भाव)
भृगसहिंता ज्योतिष में भाव का महत्व (भाव में अष्टम भाव)