डॉ. अवनीश जॉली, विन्निपेग, कनाडा : लोग यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि नास्तिक होना भी भारतीय दर्शन-परंपरा का हिस्सा है. हं! नास्तिक में भी तो अस्तिः(नः+अस्तिः) छिपा हुआ है. उस समय कोई लाख तर्क दे कि ‘‘भइया, ‘अस्तिः’ को नकारने के लिए ही ‘नः’ उपसर्ग लगाया गया है.’’—बात उनके गले नहीं उतरती. दरअसल, आस्तिक को उतना डर धर्म, ईश्वर या पापकर्म से नहीं लगता, जितना नास्तिक से लगता है. उस विचार से लगता है, जो ईश्वर को नकारता है. विज्ञान और धर्म के रास्ते एकदम अलग हैं. विज्ञान संदेह का रास्ता है. ईश्वर आस्था पर आधारित है.
विज्ञान संदेह के साथ शुरू होता है तथा उसी के साथ आगे बढ़ता है. वैज्ञानिक सत्य पर भरोसा करने से पहले प्रत्येक को उसे जांचने-परखने तथा प्रयोगों की कसौटी पर कसने की छूट प्राप्त होती है. यह बहस नई नहीं है. वैदिक काल में ईश्वरवादी धारणा का खंडन करने वाले आजीवक और लोकायती संप्रदाय थे. वहीं आस्थावादियों के समर्थन में वैदिक धर्म की अनेक शाखाएं थीं. दर्शन की दृष्टि से वह सबसे महत्वपूर्ण दौर था. उसी दौर में वेदों को आप्त-ग्रंथ की संज्ञा दी गई. उन्हें दैवी उपहार माना गया. श्रद्धालु आचार्यों का एक वर्ग ‘आस्तिक’ बनाम ‘नास्तिक’ की बहस में वेदों को आप्तग्रंथ मनवाने जुटा रहा. बावजूद इसके नास्तिक दर्शनों की प्रतिष्ठा उतनी ही बनी रही, जितनी आस्तिक दर्शनों की थी. विचारों के उस लोकतंत्र ने सांख्य जैसे निरीश्वरवादी दर्शन के साथ साथ कर्मकांड प्रधान मीमांसा दर्शन को भी एक जैसा महत्व था.
दुनिया के प्राचीनतम शहर काशी विभिन्न विचार धाराओं, धर्मों के साथ दुनिया भर में आकषर्ण का प्रतीक रहा है. इस बहस की शुरुआत में सब से बड़ा योगदान भी इसी भूमि से हुआ. महात्मा बुद्ध के प्रथम उपदेश (धर्म चक्र प्रवर्तन) के लिए बौद्ध धर्मावलम्बियों का प्रमुख केन्द्र भी है. जैन धर्म के तीन तीर्थंकर यहीं पर पैदा हुए. साम्प्रदायिकता व जातिवाद के खिलाफ संत कबीर, संत रैदास व सेन नाई की जन्मस्थली तथा कर्मस्थली यही रही है. सन 1507 ई० में सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक जी काशी आये और काशी से बहुत प्रभावित हुए.
वैदिक धर्मों के विचलन के दौर में उभरे जैन और बौद्ध दर्शन ने ‘आत्मा’ और ‘ईश्वर’ पर केंद्रित बहसों में उलझने के बजाए मनुष्य के आचरण को महत्त्वपूर्ण माना. उन्होंने सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि पर जोर देकर नैतिक एवं समाजोन्मुखी, जीवन जीने का आवाह्न किया. मानो सभ्यताओं के तार आपस में जुड़े हुए थे. इसी काल में भारत से दूर यूनान में भी कुछ वैसा ही हुआ. ईसा पूर्व छठी शताब्दी में वहां सुकरात, प्लेटो, जीनोफेन जैसे विचारकों ने अभिजन संस्कृति का पोषण करने वाले परंपरावादी सोफिस्टों को चुनौती दी. सुकरात ने ईश्वर को शुभ का पर्याय माना तथा उसकी प्राप्ति के लिए सद्गुण और सदाचरण पर जोर दिया. गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी, सुकरात, कन्फ्यूशियस, प्लेटो जैसे दार्शनिकों का नैतिक प्रभामंडल इतना प्रभवशाली है कि आज भी ईसा से तीन से छह शताब्दी पूर्व का वह समय विश्व-इतिहास में बौद्धिक क्रांति का सफलतम दौर माना जाता है. आगे चलकर जितने भी राजनीतिक-सामाजिक दर्शन सामने आए, वे भी जो विश्व-परिदृश्य में परिवर्तन के वाहक बने, सभी की नींव इस दौर में पड़ी थी.
अतिप्राचीन समाजों में धर्म की चाहे जो प्रासंगिकता रही हो, आज वह सामाजिक भेदभाव और ऊंच-नीच का कदाचित सबसे बड़ा मददगार है. शीर्षस्थ वर्गों के साम्राज्यवादी मंसूबों ने धर्म को राजनीति और समाज में प्रासंगिक बनाए रखा. करीब तीन हजार वर्ष पहले यह महसूस किया जाने लगा था कि छोटे-छोटे राज्यों से काम नहीं चलनेवाला. हमलावर दुश्मनों से सुरक्षा के लिए बड़ी ताकत बनना होगा. ऐसे में धर्म ने आसंजक और संसजक दोनों का काम किया. इस अवधि में कुछ अच्छे परिणाम भी धर्म के कारण देखने को मिले. भौतिकता की आड़ के रूप में वह अनेक व्यक्तिगत और सामाजिक तनावों को कम करने का माध्यम बना है. धर्म को बनाए रखने के लिए उसको नैतिक मूल्यों से जोड़ा गया था. उसकी सबसे बड़ी भूमिका सामजिक-आर्थिक धार्मिक और राजनीतिक विभाजन को शास्त्रीय रूप देने में रही, जिससे कालांतर में बड़े आर्थिक-सामाजिक विभाजनों को जगह मिली. धर्म का अतिवादी रूप महाभारत काल में भी दिखाई पड़ता है, समस्त आर्यवर्त के राजाओं के साथ साथ कौरवों को पराजित कर, पांडव भी महाप्रयाण पर चले जाते हैं. आगे चलकर कुछ ऐसी ही कोशिश आचार्य चाणक्य के नेतृत्व में नजर आती है.
उल्लेखनीय है कि विज्ञान को धर्म से जोड़ने अथवा धर्म और विज्ञान का साम्य दिखाने की कोशिश करनेवाले अकेले नहीं हैं. केवल अपने सुख की कामना तथा स्वार्थसिद्धि के लिए काम करना, सामाजिक नैतिकता को बिसार देना है. यह भुला देना है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है. भले ही वह समाज में अपने सुख और सुरक्षा के लिए शामिल हुआ हो, समाज के प्रति उसकी भी पर्याप्त जिम्मेदारियां हैं. प्रकट में प्रत्येक धर्म अपने माता-पिता, पड़ोसी, मित्र-सखा के प्रति उदारतापूर्वक पेश आने की सलाह देता है. लेकिन मोक्ष एवं कल्याण के नाम पर वही धर्म संसार को माया और विभ्रम बताकर मनुष्य को ऐसी अंध-स्पर्धा से जोड़ देता है, जिसकी अति उसे सामाजिक कर्तव्यों की ओर से उदासीन बनाती है.
सवाल है कि यदि कि विज्ञान ही सबकुछ है तो जीवन, मृत्यु जैसे प्रश्न अनुत्तरित क्यों हैं. इसके अलावा भी ऐसे अनेकानेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर विज्ञान नहीं दे पाया है. लेकिन विज्ञान ने कभी दावा भी नहीं किया कि उसने सबकुछ जान लिया है. महाभारत इस सत्य के हमे बोध करवाता है कि संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ, मनुष्य के लिए मनुष्य से उपयोगी कुछ भी नहीं है. सच मानिए, ईश्वर भी नहीं. :-
गुह्यं ब्रह्म तदिदं वो ब्रीवीमि। न हिं मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचितः।
(महाभारत, शांतिपर्व, 299/20)—एक बात बताता हूं, संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ, मनुष्य के लिए मनुष्य से उपयोगी कुछ भी नहीं है. सच मानिए, ईश्वर भी नहीं.)
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