कितनी अच्छी होती यह दुनिया
अगर सोने-चांदी को लगने लगता घुन
नोटों की गड्डियाँ
पड़ीं-पड़ीं फफुन्दियाँ जातीं
कई दिनों से रक्खी हुई रोटी की तरह
काम में न आने वाली जमीन-जायदाद
गंधाने लगती बासी रोटी की तरह
और बैंक बैलेंस
एक ही जगह रखे टमाटरों की तरह
सड़ जाते वहीं के वहीँ
कितनी अच्छी होती यह दुनिया
कोई जरूरत से ज्यादा इकट्ठा न करता
सड़ने से अच्छा है
दूसरे के काम आयें
सोचता हर इंसान
और सुखी हो जाता
अपना फालतू बोझ बांटकर
-डॉ रणजीत