आशीष रावत : नई दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित विराट धर्मसभा में जो रामभक्तों का सैलाब देखने को मिला उससे स्पष्ट हो गया है कि अब कोई भी रामभक्त राम मंदिर के निर्माण में हो रही देरी को स्वीकार नहीं करेगा। राम मंदिर निर्माण को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार पर अपना घेरा बढ़ा दिया है। धर्मसभा में आए लाखों रामभक्तों और साधु-सन्तों की उपस्थिति में संघ के सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी ने दो टूक शब्दों में कहा कि अब राम मंदिर पर और इंतजार नहीं किया जाएगा। उन्होंने आगे कहा कि हम भीख नहीं मांग रहे हैं और सरकार को संसद के इसी शीतकालीन सत्र में कानून बनाकर अयोध्या में एक भव्य राम मंदिर का मार्ग प्रशस्त करना होगा। भैय्याजी जोशी ने केन्द्र सरकार को याद दिलाते हुए कहा कि वह राम मंदिर के संकल्प को लेकर सत्ता में आई है और ऐसे में वह करोड़ों लोगों की भावनाओं का अनादर न करे। इस धर्मसभा की अध्यक्षता कर रहे आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानन्द गिरि ने कहा कि राम राष्ट्र चेतना व जीवन का मंत्र हैं। साध्वी ऋतम्भरा ने केन्द्र व उत्तर प्रदेश राज्य सरकार पर कटाक्ष करते हुए कहा कि रामलला की बात कहने वाले ठाठ में आ गए, जबकि रामलला टाट में हैं। वहीं दूसरी ओर, महामंडलेश्वर स्वामी परमानन्द ने केन्द्र सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि अगर मंदिर नहीं बना तो रामभक्त चुप नहीं बैठेंगे। दूसरी ओर, विश्व हिन्दू परिषद के अंतर्राष्ट्रीय अध्यक्ष विष्णु सदाशिव कोकजे ने कहा कि राम मंदिर चुनाव का नहीं बल्कि आत्मसम्मान का मुद्दा है। विहिप के अंतर्राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चम्पत राय ने अपनी बात रखते हुए कहा कि यह जनसैलाब हिन्दुस्तान को बताने आया है कि हमारी प्राथमिकता को समझो। हमें कानून के मुताबिक मंदिर चाहिए। हमें किसी भी तरह का बंटवारा स्वीकार नहीं है। रामजन्मभूमि एक ऐसा मुद्दा है, जिसकी आंच में भारतीय राजनीति आजादी के बाद से ही झुलसती रही है। आलम यह है कि राम मंदिर बनाए जाने का मुद्दा अब घोषणापत्रों का हिस्सा बन गया है। लेकिन अयोध्या में राम मंदिर नहीं बना। अब लग रहा है कि जिस राम मंदिर मुद्दे ने भाजपा को दो लोकसभा सीटों से केन्द्र की सत्ता तक पहुंचाया उस पर पार्टी ही नहीं पूरे संघ परिवार की विश्वसनीयता खत्म हो चुकी है। राम मंदिर समर्थकों को यकीन हो गया कि भाजपा के लिए राम मंदिर आस्था का नहीं महज वोट बटोरने का एक साधन है। अपने बयानों को लेकर सुर्खियों में रहने वाले केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने अपने एक बयान में कहा था कि राम मंदिर सरकार के भरोसे नहीं बनेगा बल्कि सौ करोड़ हिन्दुओं के पुरुषार्थ के भरोसे बनेगा। 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री और 2017 में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद लोगों में उम्मीद बंधी कि मंदिर के मुद्दे पर सरकार कुछ करेगी। अब भी मामला आश्वासन से आगे नहीं बढ़ा। भाजपा को लोकसभा चुनाव से पहले एक भावनात्मक मुद्दे की तलाश है। मंदिर के मसले पर अब किसी वादे से काम नहीं चलने वाला। ऐसे में सरकार चाहती है कि राम मंदिर पर सरकार की किसी पहल के लिए ऐसा माहौल बने कि उस पर भारी जनदबाव है। अगले वर्ष जनवरी में मुख्य न्यायाधीश इस मामले की सुनवाई के लिए बेंच बनाने वाले हैं। जनवरी में भी जल्दी सुनवाई नहीं होती है तो सरकार के पास एक आधार होगा कि न्यायालय जनभावना का भले ही ख्याल न करे पर सरकार ऐसा नहीं कर सकती। जैसे-जैसे समय बीत रहा है संघ परिवार का धैर्य खत्म होता जा रहा है। भारतीय समाज एक परिपक्व समाज है। परिपक्वता के साथ इसकी ऐतिहासिकता और बौद्धिकता जुड़ी हुई है। हजारों वर्ष की विरासत पर खड़े लोगों को मुट्ठीभर लोग और मुद्दे भड़का या भटका नहीं सकते हैं। हर भारतीय बौद्धिक है। वह अपने स्तर पर सत्संग और विमर्श करता है। वह अपने विवेक और भावना का उपयोग जानता है। बंद कमरे में बैठे कुछ बुद्धिजीवियों को भले लगता हो कि वे समाज के मार्गदर्शक हैं पर यह उनकी गलतफहमी है। अगर ऐसा होता तो इस देश के लोग रोमिला थापर, डी. एन. झा और विपिन चन्द्रा को पढ़कर अपनी इतिहास दृष्टि बदल लेते। परन्तु डी. डी. कोसाम्बी से रामशरण शर्मा तक सांस्कृतिक व राजनीतिक इतिहास की व्याख्या करते रहे, एन.सी.ई.आर.टी. की पुस्तकों में खास दृष्टि परोसी जाती रही परन्तु सब निष्प्रभावी या क्षणिक प्रभावी साबित होते रहे। इन्होंने इतिहास की पुस्तकों में औरंगजेब को उदार, हिन्दू हितों के प्रति संवेदनशील और महान साबित किया। उसके उदार और संस्कृतिनिष्ठ भाई दाराशिकोह को चंद पंक्तियों में निपटा दिया। पर जनमानस अपनी बौद्धिक क्षमता के आधार पर ही अपनी बुनियादी सोच निर्धारित करती रही। ऐसे ही स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को राज्य प्रश्रित माक्र्सवादी रूदालियों ने कुलीन परिवारों एवं नेताओं के हवाले कर दिया। सुभाषचन्द्र बोस को कुछ पंक्तियों में हाशिए पर रखा गया पर जन बौद्धिकता ने इस कम्युनिस्ट और सरकारी इतिहास के आईने में स्वतंत्रता संग्राम को देखने-समझने से इनकार कर दिया। एक जीवंत समाज सामाजिक सांस्कृतिक समस्याओं को टालता नहीं है, उसे खाद-पानी नहीं देता है बल्कि उसका निदान ढूंढ़ता है। भारतीय समाज ने अपने इतिहास में अनेक जटिल प्रश्नों का निदान किया है तो राम मंदिर का समाधान क्यों नहीं हो सकता है? सोमनाथ मंदिर की तर्ज पर राम मंदिर का निर्माण होना चाहिए। सोमनाथ मंदिर को गजनवी ने 11वीं शताब्दी में ध्वस्त किया तो राम मंदिर को बाबर ने 16वीं शताब्दी में ध्वस्त किया था। जब सोमनाथ मंदिर निर्माण का संकल्प सरदार पटेल ने जूनागढ़ का भारत में विलय के समय लिया तो तब के रूदालियों ने भी इसे भारत की पंथनिरपेक्षता पर हमला कहा था। उनकी पंथनिरपेक्षता का मतलब होता है हिन्दू मन, संस्कृति, सभ्यता का अपमान और उपेक्षा करना। तभी तो दादरी की निंदनीय और दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर चिल्लाने वाले, अवाॅर्ड वापसी का ढोंग करने वाले पश्चिम बंगाल के मालदा में हिन्दुओं पर हुई संगठित हिंसा और लूटपाट पर कुम्भकर्णी नींद में सोए रहे। इस दोहरे व्यवहार ने उनकी विश्वसनीयता और सामाजिक समर्थन दोनों को समाप्त कर दिया। भगवान राम का आध्यात्मिक रूप के साथ-साथ सभ्यताई और सांस्कृतिक स्वरूप भी है। इसे बखूबी समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया ने ‘राम कृष्ण शिव’ नामक लेख में अभिव्यक्त किया है। इसलिए इस प्रश्न को पूरी तरह से सर्वोच्च न्यायालय पर छोड़ देना अनुचित होगा। न्यायालय से बाहर संवाद और सहमति का प्रयास गांठों को खोलने का काम करेगा।