के के शर्मा : कहते हैं सूरज को कोई दीया नहीं दिखा सकता क्योंकि, दुनिया को रौशन करने वाला सूरज है. इन्हीं बातों को चरितार्थ करते हैं देश के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री. दो अक्टूबर को महात्मा गांधी के साथ उनका भी जन्मदिन है, लेकिन युवा पीढ़ी इन्हें भूल चुकी है. राजनीतिक दलों को भी सियासत के लिए सिर्फ गांधी का सहारा चाहिए, शास्त्री का नहीं. गांधी को तो सभी मानते हैं, लेकिन शास्त्री को आधुनिक भारत भूलता जा रहा है.आधुनिक भारत के राजनेताओं को सिर्फ गांधी की जरूरत पड़ती है. राजनीतिक जमात में खुद को सबसे बड़ा गांधी का अनुयायी बताने की होड़ सी मची है.
सादा जीवन और उच्च विचार कहने वाले लाल बहादुर शास्त्री ने दुनिया को जता दिया कि अगर इंसान के अंदर आत्मविश्वास हो तो वो कोई भी मंजिल पा सकता है।भारत में बहुत कम लोग ऐसे हुए हैं जिन्होंने समाज के बेहद साधारण वर्ग से अपने जीवन की शुरुआत कर देश के सबसे पड़े पद को प्राप्त किया.जय जवान, जय किसान’ का नारा देने वाले भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का आज जन्मदिन है। देशभक्ति और ईमानदारी का प्रतीक माने जाने वाले शास्त्री जी का जन्म 2 अक्तूबर1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में हुआ था। शास्त्री जी ने अपने विचारों और सादगी के जरिए देशवासियों के मन में अमिट छाप छोड़ी। उन्हें आज भी देश के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाता है। 1966 में उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया था
शास्त्री जी का काफी छोटे थे जब उनके पिता का निधन हो गया था। जिससे उनका बचपन बड़ी ही गरीबी में बीता। बचपन में पढ़ाई के दौरान शास्त्री जी कई मील की दूरी नंगे पांव ही तय कर विद्यालय जाते थे, यहां तक की भीषण गर्मी में जब सड़कें अत्यधिक गर्म हुआ करती थीं तब भी उन्हें ऐसे ही जाना पड़ता था। उनके पास नदी पार करने के लिए पैसे नहीं होते थे तो वह तैरकर गंगा नदी पार करते और स्कूल जाते पहुंचते थे।कायस्थ परिवार में जन्में लाल बहादुर शास्त्री के बचपन का नाम नन्हे था। इसके बाद काशी विद्यापीठ से उन्होंने ‘शास्त्री’ की उपाधि हासिल की और अपने उपनाम श्रीवास्तव को हटाकर शास्त्री कर लिया।
चाहे रेल दुर्घटना के बाद उनका रेल मंत्री के पद से इस्तीफ़ा हो या 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उनका नेतृत्व या फिर उनका दिया ‘जय जवान जय किसान’ का नारा, लाल बहादुर शास्त्री ने सार्वजनिक जीवन में श्रेष्ठता के जो प्रतिमान स्थापित किए हैं, उसके बहुत कम उदाहरण मिलते हैं.
देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने अपने कार्यकाल के दौरान देश को कई संकटों से उबारा. साफ-सुथरी छवि के कारण ही विपक्षी पार्टियां भी उन्हें आदर और सम्मान देती है. जानिए उनके बारे में कुछ ऐसी बातें जिसे आप अभी तक नहीं जानते होंगे.
भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में देश के दूसरे प्रधानमंत्री 9 साल तक जेल में रहे. असहयोग आंदोलन के लिए पहली बार वह 17 साल की उम्र में जेल गए लेकिन बालिग न होने की वजह से उनको छोड़ दिया गया. इसके बाद वह सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए 1930 में ढाई साल के लिए जेल गए. 1940 और फिर 1941 से लेकर 1946 के बीच भी वह जेल में रहे है. इस तरह कुल नौ साल वह जेल में रहे.
स्वतंत्रता की लड़ाई में जब वह जेल में थे तब उनकी पत्नी चुपके से उनके लिए दो आम छिपाकर ले आई थीं. इस पर खुश होने की बजाय उन्होंने उनके खिलाफ ही धरना दे दिया. शास्त्री जी का तर्क था कि कैदियों को जेल के बाहर की कोई चीज खाना कानून के खिलाफ है.
उनमें नैतिकता इस हद तक कूट कर भरी थी कि एक बार जेल से उनको बीमार बेटी से मिलने के लिए 15 दिन की पैरोल पर छोड़ा गया. लेकिन बीच में वह चल बसी तो शास्त्री जी वह अवधि पूरी होने से पहले ही जेल वापस आ गए.
शास्त्री जी जात-पात के सख्त खिलाफ थे. तभी उन्होंने अपने नाम के पीछे सरनेम नहीं लगाया. शास्त्री की उपाधि उनको काशी विद्यापीठ से पढ़ाई के बाद मिली थी. वहीं अपनी शादी में उन्होंने दहेज लेने से इनकार कर दिया था. लेकिन ससुर के बहुत जोर देने पर उन्होंने कुछ मीटर खादी का दहेज लिया.
पेंशन–स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लाला लाजपतराय ने सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य ग़रीब पृष्ठभूमि से आने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को आर्थिक सहायता प्रदान करवाना था. आर्थिक सहायता पाने वालों में लाल बहादुर शास्त्री भी थे.
उनको घर का ख़र्चा चलाने के लिए सोसाइटी की तरफ़ से 50 रुपये प्रति माह दिए जाते थे. एक बार उन्होंने जेल से अपनी पत्नी ललिता को पत्र लिखकर पूछा कि क्या उन्हें ये 50 रुपये समय से मिल रहे हैं और क्या ये घर का ख़र्च चलाने के लिए पर्याप्त हैं?ललिता शास्त्री ने तुरंत जवाब दिया कि ये राशि उनके लिए काफ़ी है. वो तो सिर्फ़ 40 रुपये ख़र्च कर रही हैं और हर महीने 10 रुपये बचा रही हैं.लाल बहादुर शास्त्री ने तुरंत सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी को पत्र लिखकर कहा कि उनके परिवार का गुज़ारा 40 रुपये में हो जा रहा है, इसलिए उनकी आर्थिक सहायता घटाकर 40 रुपये कर दी जाए और बाकी के 10 रुपये किसी और ज़रूरतमंद को दे दिए जाएं.
कश्मीर जाने से कर दिया ता मना
यह बात 1962 के करीब की है। उस समय शास्त्री जी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव थे। उस समय देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू थे। उन्हें पार्टी के किसी महत्वपूर्ण काम से कश्मीर जाना था। पंडित नेहरू ने शास्त्री जी से चलने के लिए कहा तो उन्होंने वहां जाने से मना कर दिया। काफी बार कहने पर भी जब शास्त्री जी नहीं माने तो पंडित नेहरू भी चकरा गए कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। पंडित नेहरू उनका बहुत सम्मान करते थे, इसलिए उन्होंने शास्त्री जी को अफने पास बुलाया और कश्मीर न जाने का कारण पूछा। पहले तो शास्त्री जी कुछ भी बताने के लिए राजी नहीं हुए, मगर बहुत कहने पर उन्होंने जो कुछ कहा उसे सुनकर पंडित नेहरू की भी आंखों में आंसू आ गए। शास्त्री जी ने बताया कि कश्मीर में ठंड बहुत पड़ रही है और मेरे पास गर्म कोट नहीं है। पंडित नेहरू ने उसी समय अपना कोट उन्हें दे दिया और यह बात किसी को नहीं बताई। लाल बहादुर शास्त्री जब प्रधानमंत्री बने तो इसी कोट को पहनते रहे।
शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने तक उनका अपना घर तो क्या एक कार तक नहीं थी. एक बार उनके बच्चों ने उलाहना दिया कि अब आप भारत के प्रधानमंत्री हैं. अब हमारे पास अपनी कार होनी चाहिए.उस ज़माने में एक फ़िएट कार 12,000 रुपये में आती थी. उन्होंने अपने एक सचिव से कहा कि ज़रा देखें कि उनके बैंक खाते में कितने रुपये हैं? उनका बैंक बैलेंस था मात्र 7,000 रुपये. अनिल याद करते हैं कि जब बच्चों को पता चला कि शास्त्री जी के पास कार ख़रीदने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं तो उन्होंने कहा कि कार मत ख़रीदिए.लेकिन शास्त्री जी ने कहा कि वो बाक़ी के पैसे बैंक से लोन लेकर जुटाएंगे. उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से कार ख़रीदने के लिए 5,000 रुपये का लोन लिया. एक साल बाद लोन चुकाने से पहले ही उनका निधन हो गया.उनके बाद प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा गाँधी ने सरकार की तरफ़ से लोन माफ़ करने की पेशकश की लेकिन उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने इसे स्वीकार नहीं किया और उनकी मौत के चार साल बाद तक अपनी पेंशन से उस लोन को चुकाया.
सादगी की मिसालः जब शास्त्रीजी ने दुकानदार से कहा, सबसे सस्ती साड़ी दिखाओ-एक बार शास्त्रीजी एक दुकान में साड़ी खरीदने गए। दुकान का मालिक शास्त्रीजी को देख बेहद खुश हुआ। उसने उनके आने को अपना सौभाग्य माना और स्वागत-सत्कार किया। शास्त्री जी ने कहा, वे जल्दी में हैं और उन्हें चार-पांच साडिय़ां चाहिए।दुकान का मैनेजर शास्त्रीजी को एक से बढ़ कर एक साडिय़ां दिखाने लगा। साडिय़ां काफी कीमती थीं। शास्त्री जी बोले- भाई, मुझे इतनी महंगी साडिय़ां नहीं चाहिए। कम कीमत वाली दिखाओ। मैनेजर ने कहा- सर, आप इन्हें अपना ही समझिए, दाम की तो कोई बात ही नहीं है। यह तो हमारा सौभाग्य है कि आप पधारे।शास्त्रीजी उसका आशय समझ गए। उन्होंने कहा- मैं तो दाम देकर ही लूंगा। मैं जो तुमसे कह रहा हूं उस पर ध्यान दो और कम कीमत की साडिय़ां ही दिखाओ और कीमत बताते जाओ। तब मैनेजर ने थोड़ी सस्ती साडिय़ां दिखानी शुरू कीं। शास्त्रीजी ने कहा, ये भी मेरे लिए महंगी ही हैं और कम कीमत की दिखाओ। मैनेजर एकदम सस्ती साड़ी दिखाने में संकोच कर रहा था। शास्त्रीजी भांप गए। उन्होंने कहा- दुकान में जो सबसे सस्ती साडिय़ां हों, वो दिखाओ। मुझे वही चाहिए। आखिरकार मैनेजर ने उनके मनमुताबिक साडिय़ां निकालीं। शास्त्रीजी ने कुछ चुनीं और कीमत अदा कर चले गए।
ट्रेन से कूलर निकलवाया–बात तब की है जब शास्त्रीजी रेल मंत्री थे। वे मुंबई जा रहे थे। उनके लिए प्रथम श्रेणी का डिब्बा लगा था। गाड़ी चलने पर शास्त्रीजी बोले- डिब्बे में काफी ठंडक है, वैसे बाहर गर्मी है। उनके पीए कैलाश बाबू ने कहा- जी, इसमें कूलर लग गया है। शास्त्रीजी ने पैनी निगाह से उन्हें देखा और आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा- कूलर लग गया है? बिना मुझे बताए? आप पूछते क्यों नहीं? क्या और लोगों को गर्मी नहीं लगती होगी? शास्त्रीजी ने कहा- कायदा तो यह है कि मुझे भी थर्ड क्लास में चलना चाहिए, पर जितना हो सकता है उतना तो करना चाहिए। उन्होंने कहा, आगे गाड़ी जहां रुके, पहले कूलर निकलवाइए। फिर क्या मथुरा स्टेशन पर कूलर निकलवाया गया। आज भी फर्स्ट क्लास के उस डिब्बे में कूलर की जगह लकड़ी जड़ी है।
जय जवान जय किसान की कहानी
1964 में जब वह प्रधानमंत्री बने थे तब देश खाने की चीजें आयात करता था. उस वक्त देश PL-480 स्कीम के तहत नॉर्थ अमेरिका पर अनाज के लिए निर्भर था. 1965 में पाकिस्तान से जंग के दौरान देश में भयंकर सूखा पड़ा. तब के हालात देखते हुए उन्होंने देशवासियों से एक दिन का उपवास रखने की अपील की. इन्हीं हालात से उन्होंने हमें ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया.
महिलाओं को जोड़ा ट्रांसपोर्ट सेक्टर से
ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर के तौर पर सबसे पहले उन्होंने ही इस इंडस्ट्री में महिलाओं को बतौर कंडक्टर लाने की शुरुआत की. यही नहीं, प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए उन्होंने लाठीचार्ज की बजाय पानी की बौछार का सुझाव दिया था.
जब ताशकंद समझौते से नाराज़ हो गईं लाल बहादुर शास्त्री की पत्नी
वर्ष 1966 में ताशकंद में भारत-पाकिस्तान समझौते पर दस्तख़त करने के बाद शास्त्री बहुत दबाव में थे. पाकिस्तान को हाजी पीर और ठिथवाल वापस कर देने के कारण उनकी भारत में काफ़ी आलोचना हो रही थी.
उन्होंने देर रात अपने घर दिल्ली फ़ोन मिलाया. “जैसे ही फ़ोन उठा, उन्होंने कहा अम्मा (अपनी पत्नी को अम्मा बोलते थे) को फ़ोन दो. उनकी बड़ी बेटी फ़ोन पर आई और बोलीं अम्मा फ़ोन पर नहीं आएंगी. उन्होंने पूछा क्यों? जवाब आया इसलिए क्योंकि आपने हाजी पीर और ठिथवाल पाकिस्तान को दे दिया. वो बहुत नाराज़ हैं. शास्त्री को इससे बहुत धक्का लगा. कहते हैं इसके बाद वो कमरे का चक्कर लगाते रहे. फिर उन्होंने अपने सचिव वैंकटरमन को फ़ोन कर भारत से आ रही प्रतिक्रियाएं जाननी चाही. वैंकटरमन ने उन्हें बताया कि तब तक दो बयान आए थे, एक अटल बिहारी वाजपेई का था और दूसरा कृष्ण मेनन का और दोनों ने ही उनके इस क़दम की आलोचना की थी.”
इसके कुछ ही घंटों के अंदर शास्त्री को अचानक दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हो गया.
जब शास्त्री के शव को दिल्ली लाने के लिए ताशकंद हवाई अड्डे पर ले जाया जा रहा था तो रास्ते में हर सोवियत, भारतीय और पाकिस्तानी झंडा आधा झुका हुआ था. जब शास्त्री के ताबूत को कार से उतार कर विमान पर चढ़ाया जा रहा था तो उसको कंधा देने वालों में सोवियत प्रधानमंत्री कोसिगिन के साथ साथ पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ां भी थे.मानव इतिहास में ऐसे बहुत कम उदाहरण है कि एक दिन पहले एक दूसरे के घोर दुश्मन कहे जाने वाले प्रतिद्वंदी न सिर्फ़ एक दूसरे के दोस्त बन गए थे, बल्कि दूसरे की मौत पर अपने दुख का इज़हार करते हुए उसके ताबूत को कंधा दे रहे थे.
क्या वह वाकई हार्ट अटैक था?
पाकिस्तान के साथ 1965 की जंग को खत्म करने के लिए वह समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए ताशकंद गए थे. इसके ठीक एक दिन बाद 11 जनवरी 1966 को खबर आई कि हार्ट अटैक से उनकी मौत हो गई है. हालांकि इस पर अभी भी संदेह बरकरार है और उनके परिवार ने भी उनकी मौत से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करने की मांग सरकार से की है.
भारत का यह दुर्भाग्य ही रहा कि ताशकंद समझौते के बाद वह इस छोटे क़द के महान पुरुष के नेतृत्व से हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो गया. उन्हें 1966 में मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाज़ा गया और अली सरदार जाफ़री ने उनकी आख़िरी उपलब्धि के सम्मान में एक नज़्म लिखी-
मनाओ जश्ने मोहब्बत कि ख़ून की बू न रही
बरस के खुल गए बारूद के सियाह बादल
बुझी-बुझी सी है जंगों की आख़िरी बिजली
महक रही है गुलाबों से ताशकंद की शाम
ख़ुदा करे कि शबनम यूँ ही बरसती रहे
ज़मीं हमेशा लहू के लिए तरसती रहे.
यह शैक्षणिक प्रवृत्ति कहें या नए जमाने का सिलेबस शास्त्री को बच्चे भी भूल गए है. जय जवान जय किसान का नारा देने वाले शास्त्री जी आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनके आदर्श देश के लिए आज भी बहुमूल्य हैं.