के के शर्मा : ये भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना ही है कि यहां की राजनीति को बहुत सारे वाद ने जकड़ रखा है। इनमें भाई भतीजा वाद, जातिवाद, सामंतवाद और क्षेत्रवाद प्रमुखता से विवादों में आते रहते है। यही नही ये वाद इतने विघटनकारी हैं कि हमेशा मानव समाज के बीच की ऊंच नीच, गरीब अमीर, अपने पराए, की खाई को नितदिन गहरी करते चलेे जाते हैं। लेकिन आज हम बात करेंगे केवल क्षेत्रवाद की। ये हमारे यहां की राजनीति की वो गलत परंपरा है जो अमर बेल की तरह बढ़ती ही चली जाती है और लाख प्रयास करने पर भी नाश को प्राप्त नही होती। लेकिन ये विकास को लेकर स्थापित समरसता अथवा समानता के भाव को खत्म करने का काम करती हेै।
किसी ने कहा है। कि किसी भी समाज को नष्ट करना है तो उसमे विघटन के बीज बो दो वह स्वतः ही नष्ट प्राय हो जायेगा। अंग्रेज गये तो सही लेकिन हमारे समाज में ऐसे बीज बो कर चले गये। जिसकी विष बेल को नष्ट करना असम्भव ही नही नामुमकिन सिद्ध हो चुका है।आज पूरा समाज विखण्डन के उस ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा हुआ है। जैसे ही ज्वालामुखी फटा चारों तरफ हाहाकार चित्कार का वातावरण तैयार होने में देंर नही लगेगी। कहीं अमीर बनाम गरीब, कहीं क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद आदि अनेको विष बेले हमारे समाज को
खोखला करने पर तुली हुई हैं। जिसका दुष्परिणाम यदा, कदा पूरा देश भुगत रहा है।
क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने वाले कारक:-
भाषा: भाषायी विविधता भारत की एक विशिष्ट पहचान है। भारत में क्षेत्रवाद की जड़ भाषा के साथ काफी गहरे रूप से जुड़ी है। भारत में आंध्र प्रदेश का गठन तथा महाराष्ट्र और गुजरात का विघटन भाषायी भावना को शमन करने का ही परिणाम है।
नृजातीय पहचान: भारत में पारिस्थितिकी आधारित और क्षेत्र आधारित जातीयता को लेकर आए दिन विरोध प्रदर्शन देखने को मिलते हैं। भारत का उत्तर-पूर्व क्षेत्र इसका साक्षी रहा है। बोडोलैंड और गोरखालैंड की मांग के पीछे यही कारण प्रभावी है।
असमान विकास: भारत में विकास प्रक्रिया के क्रम में विभिन्न राज्यों में विकास कार्य समान रूप से नहीं हो सका। इस कारण वंचित क्षेत्रों के लोगों में पृथकतावाद और क्षेत्रवाद का विकास देखने को मिलता है।
भौगोलिक व सांस्कृतिक पहचान: भारत के विभिन्न प्रदेशों में प्रादेशिक भिन्नता भी पाई जाती है। विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में उनके क्षेत्र विशेष की प्रकृति के साथ जुड़ाव होता है, इसलिये इन क्षेत्रों के लोगों में अपनी क्षेत्र की सांस्कृतिक और भौगोलिक विशेषताओं को सुरक्षित रखने के क्रम में क्षेत्रवाद की भावना पनपने लगती है।
क्षेत्रवाद वस्तुतः भारत की विविधता व बड़े आकर से भी जुड़ा है।
आज हमारे देश में क्षेत्रवाद एक गंभीर समस्या बनकर उभरी हैं .कही लोग ने राज्य की मांग कर रहे हैं तो कही दुसरे प्रदेशो से आय लोगो को मारपीट कर भगा रहे हैं. दुसरे प्रदेशो के लोगो के साथ अमर्यादित व्यवहार कर रहे हैं .यह ध्यान देने योग्य बात यह हैं की जो दुसरे प्रदेशो से आये लोगो के साथ मारपीट कर रहे हैं वे किसी संगठन या राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं . उन्हें आम लोगो का समर्थन प्राप्त नहीं प्राप्त होता हैं . कुछ ऐसा ही पिछले एक हफ्ते से गुजरात मे हो रहे हैं और हजारो उत्तर भारतीयों को गुजरात छोड़ने पर मजबूर किया गया।
गुजराती हमेशा से अपने दोस्ताना व्यवहार के लिए जाने जाते रहे हैं। यहां के लोग दूसरी संस्कृति के लोगों का भी दिल खोलकर स्वागत करते हैं। गुजरातियों ने ईरान से आए पारसियों को भी दूध में शक्कर की तरह अपना बना लिया था। गुजराती समुदाय के लोग आपको दुनियाभर में मिलेंगे और यहां वे बाहरियों का भी बेझिझक वेलकम करते हैं पर पिछले कुछ दिनों से माहौल बदला-बदला सा दिख रहा है।
दरअसल, साबरकांठा में 28 सितंबर को 14 महीने की मासूम से रेप में जब बिहार से आए एक कामगार का नाम सामने आया तो गुजरातियों का गुस्सा भड़क उठा। एक कामगार की करतूत का असर यह हुआ कि पूरे उत्तर भारतीयों का विरोध शुरू हो गया। सोशल मीडिया पर कुछ विडियो भी सामने आए हैं, जिसमें यूपी, बिहार के लोगों को जल्द से जल्द गुजरात से चले जाने की धमकी दी गई है। ताया जा रहा है कि ठाकोर सेना के लोगों ने सबसे पहले उत्तरी गुजरात में यूपी और बिहार के लोगों के खिलाफ प्रदर्शन किया और मांग की कि दूसरे राज्यों से आए लोगों को यहां नौकरी पर न रखा जाए। सोशल मीडिया पर गैर-गुजरातियों के खिलाफ नफरत भरे संदेशों की बाढ़ आ गई। 200 से ज्यादा लोगों की भीड़, जिसमें कथित तौर पर ठाकोर सेना के सदस्य प्रमुख थे, ने 2 अक्टूबर को मेहसाणा जिले में वडनगर टाउन के पास एक फैक्ट्री पर धावा बोला और 2 कर्मचारियों की पिटाई कर दी।पीड़ित परिवार गुजरात के ठाकोर समुदाय से ताल्लुक रखता है, जिसके बाद हिंसा के ज्यादातर मामलों में ठाकोर समुदाय के लोगों का नाम सामने आया है।
बलात्कार की घटना के बाद से एक विशेष समुदाय के लोग गुजरात में बाहर के लोगों को टारगेट कर रहे हैं। उत्तर भारतीयों पर हमले के आरोप कांग्रेस विधायक और ठाकोर सेना के अध्यक्ष अल्पेश ठाकोर पर लगे हैं। ठाकोर हिंसा के आरोप में गिरफ्तार किए गए लोगों के समर्थन में आ गए हैं और उन्होंने 72 घंटों में उनके समुदाय के ‘बेगुनाह’ लोगों के खिलाफ केस हटाने की मांग की है।अल्पेश ठाकोर ने कहा कि “हिंसा की इन घटनाओं के पीछे जो भी लोग हैं, वह उनसे शांति की अपील करते हैं। इनमें हमारे समुदाय के और ठाकोर सेना के सदस्य भी हो सकते हैं, लेकिन इसके लिए हमारी तरफ से ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया गया है। यह सिर्फ हमें और सेना को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है। हमारा लक्ष्य सिर्फ शांति और राज्य में रोजगार के मुद्दे पर है।” अल्पेश ठाकोर ने बताया कि उनका निशाना किसी विशेष समुदाय पर नहीं बल्कि सिर्फ राज्य सरकार और कंपनियों पर है। नियम होने के बावजूद 80 प्रतिशत कंपनियां स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं दे रही हैं। सरकार को इस नियम को लागू करने की तरफ ध्यान देना चाहिए। बता दें कि गुजरात में हिंसा के मामलों में अभी तक पुलिस ने करीब 50 एफआईआर दर्ज की हैं और इन एफआईआर में करीब 500 लोगों के नाम शामिल हैं। ठाकोर सेना की बात करें तो इसके 32,000 सदस्य हैं, जिनमें से 22,000 अकेले अहमदाबाद में हैं।
व्यक्ति जहाँ जन्म लेता है, जहाँ अपना जीवन व्यतीत करता है, उस स्थान के प्रति उसका लगाव होना स्वाभाविक होता है वह अपने क्षेत्र-विशेष को आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण से सशक्त एवं उन्नत बनाने के लिए प्रयासरत रहता है, लेकिन जब यह भावना और लगाव अपने ही क्षेत्र-विशेष तक सिमटकर अत्यन्त संकीर्ण रूप धारण कर लेती है, तब ‘क्षेत्रवाद’ की समस्या जन्म लेती है । केवल अपने ही क्षेत्र-विशेष के लिए विशेष सुविधाओं की इच्छा के कारण यह अवधारणा नकारात्मक बन जाती है । इससे क्षेत्र बनाम राष्ट्र की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं । क्षेत्रवाद, राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बहुत बडी बाधा है, क्योंकि क्षेत्रवाद से ग्रस्त निवासी अपने क्षेत्र को अन्यों से विशिष्ट मानते हुए उचित-अनुचित तरीके से विकास की माँग करते हैं एवं अपने क्षेत्र में आने वाले दूर से राज्यों के नागरिकों के प्रति द्वेषपूर्ण भावना रखते हैं ।देश क्षेत्रवाद और जातिवाद के कारण खड़ी होने वाली दर्जनों समस्याओं से जूझ रहा है, जबकि हमारे राजनीति दल व नेता इसे बढ़ावा देने पर ही आमादा रहते हैं। तमाम खामियों और बुरे परिणामों के बावजूद क्षेत्रवाद व जातिवाद की राजनीति के जरिये देश के कई राष्ट्रीय तथा राज्यस्तरीय दल फल-फूल रहे हैं। इन दोनों हथियारों को इस्तेमाल कर सत्ता पर काबिज होने की होड़ के चलते देश में सैकड़ों छोटे-बड़े राजनीतिक दल उभरे।
संविधान में यह वर्णित हैं की भारत के किसी राज्य के लोग भारत के किसी राज्य में काम कर सकता हैं या (जम्मू -कश्मीर को छोड़कर क्यूँ की जम्मू -कश्मीर का अपना संविधान हैं ) बस सकता हैं .आजादी के बाद भारत को संगठित करने के उद्देश्य से सरकार ने एकहरी नागरिकता प्रणाली की व्यवस्था की .संविधान के उद्देशिका में “हम भारत के लोग” शब्द का प्रयोग किया गया हैं जब की अमेरिका के संविधान में “हम संयुक्त राज्य अमेरिका” का प्रयोग किया गया हैं. वहा दोहरी नागरिकता का प्रावधान किया गया हैं .संविधान में एकल नागरिकता ,एकल न्यायपालिका ,शक्तिशाली केंद्र ,अखिल भारतीय सेवा की व्यवस्था की गई ताकि क्षेत्रवाद का ज्वार न फुट्टे लेकिन स्थानीय नेताओ की स्वार्थपरक राजनीति ने क्षेत्रवाद को बढ़ावा दिया. क्षेत्रीय नेताओ ने अपनी भूमिका को बनाये रखने के लिए अंग्रेजो द्वारा प्रतिपादित “फूट डालो और राज करो” की नीति अपना ली हैं .. स्वंतंत्रता के बाद क्षेत्रवाद का जहर हमारे देश देश में तेजी से फैला हैं .यह जहर फैलता ही जा रहा हैं .क्षेत्रवाद के कारण विभिन्न राज्यों के लोग अपने राज्य के नौकरियों में विशेष आरक्षण की मांग करते हैं . जो संविधान का सीधा -सीधा अपमान हैं .क्षेत्रवाद को रोकना तथा इस प्रवृति पर लगाम लगाना अति आवश्यक हैं .किसी भी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के लिए यह अति आवश्यक हैं की उसके एकता और अखंडता पर आंच न आये. एकता और अखंडता से खिक्ल्वाद करने वालो को कुचल दिया जाये ।इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि अपने ही देश में व्यक्ति ‘बाहरी’ माना जा रहा है? लेकिन क्यों? इस प्रश्न का एक उत्तर तो यह है कि गरीबी और बेरोजगारी की मार से सब पस्त है । विकास के सारे दावों के बावजूद आज देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है, जहाँ गरीब या बेरोजगार न हों ।अवसरों की कमी स्थिति को बदतर बना देती हे इसलिए समस्या का एक समाधान तो यह है कि आर्थिक विकास और रोजगारों के अवसरों को सारे देश में बढ़ाया जाए जो नहीं हो रहा है । जब तक विकास की प्रक्रिया सारे देश में समुचित गति से नहीं चलेगी रोजी-रोटी के लिए लोगों का एक स्थान पर जाना नहीं रूकेगा ।क्षेत्रीयता का अपना अलग समाजशास्त्र है, जिसे हम भाषा व संस्कृति से अलग नहीं कर सकते। भाषाई अस्मिता क्षेत्रवाद को जन्म देती है। इसका ज्वलंत उदाहरण 1956 में देखने को मिला था। राज्य पुनर्गठन आयोग की संस्तुति पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भाषाई आधार पर राज्यों का गठन किया। होना यह चाहिए था कि कई भाषाओं को मिलाकर एक राज्य बनाया जाता, ताकि भाषा के आधार पर वर्चस्व को रोका जा सकता और मिश्रित भाषाओं के आधार पर प्रांत विकसित हो सकते। आखिर क्या कहा जाये? ऐसे समाज को ? जहाँ हर मछली एक दूसरे को निगलने के लिए तैयार बैठी रहती हो। आम साधारण इन्सान का जीना मुश्किल हो गया है। प्रशासन चुप खड़ा महज तमाशा देख रहा हो। नेताओं के विष बुझे व्यंग वाण हवा में जहर घोल रहे हो, तो आप ऐसे में कैसे समाज की परिकल्पना कर सकते है ? खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं।क्या हमारे देश के उन नौजवानों ने ऐसे ही सपने देखे थे ? जो हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे पर झूल गये। एक दिन हमारा देश अजाद होगा और आने वाली संन्ताने देश को बुलन्दियों पर ले जायेंगी। मगर आज लगता है। उन्हे भी अफसोस होता होगा, कि जिस मेमने को एक भेड़िये के चँगुल से छुड़ाया उसे अन्जाने मेंं भेड़ियों के जंगल में छोड़ दिया गया। क्योकि आज के भेड़िये पहले भेड़ियो से अधिक खतरनाक है। जितना हम विकसित देशों की सूची में शामिल होने की कोशिश कर रहे है उतने ही हम नैतिक दृष्टि से दिन प्रतिदिन नीचे गिरते चले जा रहे है। यदि हम अपने नैतिक और सामाजिक स्तर में सुधार नही कर सकते तो हम समाज का मार्ग दर्शन कैसे कर सकते हैं। क्योकि समाज जिनकों चुनकर संसद में भेजता है तो उनसे उसे कुछ अपेक्षाऐं भी होती है मगर ये नही सारी मान मर्यादा ताख पर रखकर समाज के एक वर्ग की पैरवी करते करते ये भूल जायें कि अनेक प्रकार की सभ्यता और संस्कृति का मिश्रण होने पर ही एक अच्छे समाज का निर्माण होता है। किसी एक वर्ग या विशेष से नही अन्यथा समाज गुटो या कबीलो में तब्दील हो जाता है। जो कि एक निरंकुश पद्धति होती है। अलग सोच होती है जो समाज के लिए कभी फायदेमन्द नही हो सकती।
क्या ये क्षेत्रवाद मात्र इसलिए नही है कि मेरी चुनावी जीत में कोई कसर शेष नही रह जाए, बाकी पूरे देश का अथवा प्रदेश का भट्टा कल बैठता था सो अभी हाल बैठ जाए। ये सोच विकास को लेकर हमारे नीति नियंताओं द्वारा स्थापित की गई समानता की अवधारणा को ध्वस्त करने वाली है और इसी से क्षेत्रवाद का दैत्य पनपता है जो क्षेत्र बिशेष को शेष सारे देश से अलग करने का काम करता है। ऐसी ही मानसिकताओं ने हमारे देश को क्षेत्रवाद का अखाड़ा बनाया हुआ है। फलस्वरूप ये जो क्षेत्रीय समस्याएं सिर उठाती हैं, उनसे कई बार तो देश की संप्रभुता पर ही आंच आने लगती है। गुजरात इसका जीता जागता उदाहरण हैं । ये क्षेत्रवाद को हवा देने वाले नेताओं की अति ही है कि वे आसन्न खतरों को भांपने के बाद भी क्षेत्रवाद की आग को हवा देने से बाज नही आते। ये सोच और कार्यप्रणाली, दोनों ही राष्ट्र और समाजघाती हैं, इनकी जितनी निंदा की जाए कम ही है तथा इन पर हर हाल में अंकुश लगना चाहिए।
निष्कर्षतः कहा जा सकता हैं की क्षेत्रवाद का जहर हमारे देश की एकता और अखंडता के लिए बहुत ही खतरनाक हैं .यह जहर धीरे- धीरे बढ़ता जा रहा हैं इस फैलते जहर को रोकना होगा. इसका फैलता जहर हमारे देश को खोखला कर देगा .हमारा देश एक विशाल देश हैं और इसे पूरी दुनिया में शांति दूत ,शांति प्रिय देश माना जाता हैं .दुनिया की नजरो में हमारा देश महान हैं .जो की बिल्कुल सच हैं .वास्तव में हमारा देश महान हैं क्यों की यहाँ सभी धर्मो के लोग आदर पूर्वक जीवन यापन करते हैं परन्तु कुछ स्वार्थपूर्ण राजनीति करने वाले नेताओ के कारण इसकी छवि को नुकसान पहुच रहा हैं .हमें सभी संस्कृतियों का सम्मान करने .,.हम पहले भारतीय हैं उसके बाद बिहारी ,मराठी ,पंजाबी आदि .हमें देश की संप्रभुत्ता एकता और अखंडता का सम्मान करना चाहिए .क्षेत्रवाद के स्वरुप को हमें परखना होगा यदि विकास तक क्षेत्रवाद हैं तो ठीक हैं. क्षेत्रवाद लोगो को विकास के लिए प्रेरित करती हैं .क्षेत्रवाद के सकारात्मक परिणाम होने चाहिए न की नकारात्मक .क्षेत्रवाद राष्ट्रवाद से ऊपर नहीं होने चाहिए.क्षेत्रवाद का राग आलापने वाले लोगो को देशद्रोही घोषित करना चाहिए.