चीन ने दक्षिणी चीन सागर के विवादित स्थल पर जबरन अपना हक मानते हुए अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के फैसले को मानने से साफ इंकार कर दिया। जबकि अमेरिका−जापान सहित दूसरे देश इसे मनवाने के लिए अंतरराष्ट्रीय जल संधि की दुहाई देते रहे। इस मुद्दे पर चीन ने सबका विरोध दरकिनार कर दिया और विवादित द्वीप पर निर्माण कार्य जारी रखा। सवाल यह है कि जब चीन आर्थिक और सामरिक हितों की पूर्ति करने के लिए अपने वास्तविक नियंत्रण से बाहर जाकर अंतरराष्ट्रीय जल संधि के विपरीत दक्षिण चीन सागर पर कब्जा जमा सकता है तो भारत की आंतरिक भौगोलिक सीमा में मौजूद जम्मू−कश्मीर को विशिष्ट राज्य का दर्जा क्यों दिया गया है।
आम चुनाव के ठीक पहले कश्मीर में हुए वीभत्स हमले ने पूरे देश को रोष और आक्रोश से भर दिया है। यह हमला जैश-ए-मोहम्मद के एक कश्मीरी मूल के आतंकी ने अंजाम दिया, जो पहले पत्थरबाज था। इस हमले में सीआरपीएफ के 40 से ज्यादा जवान शहीद हो गए और कई अन्य बुरी तरह घायल भी हुए। इस हमले ने मोदी सरकार पर यह दबाव बढ़ा दिया है कि वह पाकिस्तान को माकूल मुंहतोड़ जवाब दे। ऐसी अपेक्षा इसलिए अधिक है, क्योंकि बीते दो दशकों से पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठनों ने भारत की नाक में दम कर रखा है।
अभी तक भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ जो भी कदम उठाए हैं, वे नाकाफी सिद्ध हुए हैं। उरी हमले के बाद सीमा पार सर्जिकल स्ट्राइक का पाकिस्तान पर कोई खास असर नहीं हुआ। इसके पहले पाकिस्तान द्वारा पोषित आतंकी संगठनों ने जब-जब भारतीय ठिकानों पर हमला किया, तब-तब भारतीय नेतृत्व देरसबेर पाकिस्तान से बातचीत करने पर सहमत हो गया। मुंबई में होटल ताजऔर अन्य स्थानों पर हुए भीषण आतंकी हमले में करीब एक सौ सत्तर निर्दोष-निहत्थे लोग मारे गए थे। देश तब भी आक्रोश से उबल पड़ा था और हर तरफ से यही आवाज उठी थी कि पाकिस्तान से बदला लिया जाए, लेकिन कुछ नहीं हुआ।पाकिस्तान ने देश-दुनिया को हिला देने वाले उस हमले की साजिश रचने वालों के खिलाफ कुछ नहीं किया और फिर भी कुछ समय बाद भारत पाकिस्तान से बातचीत करने लग गया। ऐसा ही गुरदासपुर, पठानकोट आदि में आतंकी हमले के बाद किया गया। इससे पाकिस्तान का मनोबल बढ़ा और उसने भारत को परेशान करना जारी रखा। देखना है कि पुलवामा हमले के बाद क्या होता है? पुलवामा की घटना के बाद भारत ने पाकिस्तान को दिया हुआ सर्वाधिक अनुकूल राष्ट्र का दर्जा अवश्य छीन लिया है, लेकिन यह काम तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था।पुलवामा में इतना बड़ा हमला स्थानीय लोगों की मदद के बिना नहीं हो सकता। चिंता की बात यह है कि आने वाले समय में इस तरह के हमले बढ़ने की आशंका है, क्योंकि अफगानिस्तान में अमेरिका तालिबान से समझौता करने की कोशिश में है। यह समझौता तालिबान और ऐसे ही अन्य आतंकियों के साथ पाकिस्तान का भीमनोबल बढ़ाएगा। इसके चलते कश्मीर में आतंकियों की आमद और उनकी गतिविधियां बढ़ सकती हैं। इसका अंदेशा इसलिए है, क्योंकि कश्मीर में जैश, लश्कर और हिजबुल मुजाहिदीन सरीखे संगठन अपनी पैठ बनाए हुए हैं। ऐसे संगठनों की सक्रियता के चलते ही कश्मीरी अपनी सूफी संस्कृति को भूलकर चरमपंथ के रास्ते पर जा रहे हैं। इसी कारण पाकिस्तान को कश्मीर में दखल देने में आसानी हो रही है। पुलवामा हमले की जिम्मेदारी जिस जैश-ए-मोहम्मद ने अपने सिर ली, वह वही आतंकी संगठन है, जिसने पठानकोट एयरबेस पर हमला किया था। इसके सरगना मसूद अजहर को कंधार विमान अपरहण कांड के वक्त रिहा करना पड़ा था। संयुक्त राष्ट्र ने जैश पर प्रतिबंध लगा रखा है, लेकिन उसके सरगना मसूद पर पाबंदी के प्रयास इसलिए सफल नहीं हो पा रहे, क्योंकि चीन अड़ंगा लगाए हुए है। वह जिस तरह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मसूद अजहर पर पाबंदी नहीं लगने दे रहा, उससे यह साफ है कि वह भारत को नीचा दिखाने के लिए ऐसा कर रहा है।देश का राजनीतिक नेतृत्व इससे अपरिचित नहीं हो सकता कि कश्मीरी जनता का एक वर्ग किस तरह कश्मीर गए भारतीयों को विदेशियों की तरह देखता है। इसीकारण घाटी में तैनात सुरक्षा बलों के परिजन सदैव उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं। घाटी के लोग भारत विरोधी मानसिकता से तब ग्रस्त हैं, जब वहां केंद्र सरकारों ने पानी की तरह पैसा बहाया है। यह पैसा नेताओं की जेबों में अधिक गया है। वहां की औसत जनता को लगता है कि दिल्ली उनकी अनदेखी कर रही है, जबकि इस अनदेखी की जड़ में कश्मीर के दल हैं। वहां अलगाववादी संगठनों के साथ बुद्धिजीवियों और मजहबी नेताओं की एक ऐसी जमात भी तैयार हो गई है, जो सदैव कश्मीरी जनता को भड़काने की ताक में रहती है। इस पर हैरानी नहीं कि पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान से बदला लेने की मांग तेज हुई है। लोग गुस्से में हैं और वे यह चाहते हैं कि पाकिस्तान को करारा जवाब दिया जाए। यह गुस्सा स्वाभाविक है। पाकिस्तान को यह संदेश देना जरूरी है कि वह इसी तरह कश्मीर में खून-खराबा नहीं कर सकता, लेकिन क्या पाकिस्तान के खिलाफ एक और सर्जिकल स्ट्राइक जैसी कार्रवाई से कश्मीर में शांति आ जाएगी? दिल्ली में बैठे नीति-नियंताओं को कश्मीर घाटी के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा।
कश्मीर में जो ऐतिहासिक भूलें हुई हैं उन सबको ठीक नहीं कियाजा सकता, लेकिन कुछ का प्रतिकार अवश्य किया जा सकता है, जैसे धारा 370 को समाप्त करना। यह धारा कश्मीर में अलगाववाद की भावना को बढ़ाने का काम कर रही है। यह सही समय है, जब केंद्र सरकार धारा 370 खत्म करने की दिशा में आगे बढ़े। संसद का एक आपातकालीन विशेष सत्र केवल इसलिए बुलाया जाए, ताकि इस अलगाववादी धारा को खत्म किया जा सके। कुछ दल इसका विरोध कर सकते हैं, लेकिन देश यह देखेगा कि कौन अलगाववाद को पोषित करने वाले संवैधानिक प्रावधान के साथ है और कौन विरोध में? ध्यान रहे कि धारा 370 एक अस्थायी धारा है और इसे नेशनल कांफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला के दबाव में शामिल किया गया था। देश के तत्कालीन नेतृत्व ने शेख अब्दुल्ला के दबाव में आकर जो भूल की, उसके ही दुष्परिणाम अब हद से ज्यादा बढ़ गए हैं।
हमारे राजनीतिक नेतृत्व को जहां यह समझने की जरूरत है कि कश्मीर को सही रास्ते पर लाए बगैर पाकिस्तान को सबक नहीं सिखाया जा सकता, वहीं यह भी कि यह धारा 370 का ही दुष्परिणाम है कि तमाम कश्मीरी यह मानने लगे हैं कि उन्हें विशिष्ट अधिकार प्राप्त हैं और वे भारत से अलग हैं। वे कश्मीरियत की बात तो करतेहैं, लेकिन उसे भारतीयता से अलग मानते हैं। इस मानसिकता का प्रतिकार हर हाल में करना होगा।
कई लोग आशंकित रहते हैं कि इसे ख़त्म करने से बवाल हो सकता है। यह महज़ भ्रांति है, क्योंकि राज्य में जितने लोग इस धारा के समर्थक हैं, उससे ज़्यादा इसके विरोधी। इसलिए, अगर संसद इसे ख़त्म करने का प्रस्ताव पारित करती है, तो बहुत होगा, मुट्ठी भर लोग श्रीनगर की सड़कों पर निकलेंगे। इस तरह का विरोध तो यहां 26-27 साल से आए दिन हो रहा है। एक और विरोध प्रशासन झेल लेगा, जैसे 8 अगस्त 1953 को तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला को कथित तौर पर कश्मीर को भारत से अलग करने की साज़िश रचने के आरोप में डिसमिस करके जेल में डाल देने पर विरोध ज़रूर हुआ था परंतु वह धीरे-धीरे शांत हो गया। ठीक इसी तरह धारा 370 ख़त्म करने पर विरोध होगा, लेकिन धीरे-धीरे शांत हो जाएगा और कम से कम एक नासूर की स्थाई सर्जरी तो हो जाएगी।
एक उपलब्ध रिपोर्ट के मुताबिक़, डॉ. भीमराव आंबेडकर भी कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने ने शेख़ अब्दुल्ला को लताड़ते हुए साफ़ शब्दों में कह दिया था, “आप चाहते हैं, भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, वह आपके यहां सड़कें बनाए, आपको राशन दे और कश्मीर का वही दर्ज़ा हो जो भारत का है! लेकिन भारत के पास सीमित अधिकार हों और जनता का कश्मीर पर कोई अधिकार नहीं हो। ऐसे प्रस्ताव को मंज़ूरी देना देश के हितों से दग़ाबाज़ी करने जैसा है और मैं क़ानून मंत्री होते हुए ऐसा कभी नहीं करूंगा।“ तब अब्दुल्ला नेहरू से मिले जिन्होंने उन्हें गोपाल स्वामी आयंगर के पास भेज दिया। आयंगर सरदार पटेल से मिले और उनसे कहा कि वह इस मामले में कुछ करें क्योंकि नेहरू ने अब्दुल्ला से इस बात का वादा किया था और अब यह उनकी प्रतिष्ठा से जुड़ गया है।दरअसल, धारा 370 को लागू करते समय नेहरू ने भरोसा दिया था कि यह अस्थायी व्यवस्था है, जो समय के साथ घिस–घिस कर ख़ुद समाप्त हो जाएगी, लेकिन यह घिसने की बजाय परमानेंट हो गई।
एक सच यह भी है कि केंद्र इस राज्य को आंख मूंदकर पैसे देता है, फिर भी राज्य में उद्योग–धंधा खड़ा नहीं हो सका। यहां पूंजी लगाने के लिए कोई तैयार नहीं, क्योंकि यह धारा आड़े आती हैं। उद्योग का रोज़गार से सीधा संबंध है। उद्योग नहीं होगा तो रोज़गार के अवसर नहीं होंगे। राज्य सरकार की रोज़गार देने की क्षमता कम हो रही है। क़ुदरती तौर पर इतना समृद्ध होने के बावजूद इसे शासकों ने दीन-हीन राज्य बना दिया है। यह केंद्र के दान पर बुरी तरह निर्भर है। इसकी माली हालत इतनी ख़राब है कि सरकारी कर्मचारियों के वेतन का 86 फ़ीसदी हिस्सा केंद्र देता है। इतना ही नहीं इस राज्य के लोग पूरे देश के पैसे पर ऐश करते हैं। धारा 370 हटाने के बाद राज्य की 95 फ़ीसदी आबादी का विकास होगा जो अब तक मुख्यधारा से कटी हुई है क्योंकि सत्ता सुख भोगने वाले राजनेता अकेले ही अब तक सारी मलाई खाते रहे हैं।
केंद्र सरकार की ओर से सद्भावना के अथक प्रयासों के बावजूद कश्मीर में कानून−व्यवस्था की हालत चौपट होती जा रही है। आए दिन खून−खराबे की खबरें आ रही हैं। पाकिस्तान की शह पर स्थानीय लोगों के संरक्षण से आतंकवादी आए दिन रक्तपात कर रहे हैं। इन्हें रोकने का प्रयास करने वाले सैन्य बलों को भाड़े के पत्थरबाजों का सामना करना पड़ा रहा है। देश अपने ही घर में युद्ध जैसे मोर्चे से जूझ रहा है। अब तक हजारों सैन्यकर्मियों और आम लोगों की जान जा चुकी है। कश्मीर में अघोषित युद्ध लड़ा जा रहा है। आतंकवादियों को सरेआम संरक्षण देने वाली भीड़ पर सरकार का किसी तरह का नियंत्रण नहीं रह गया है। यह स्थिति देश की सम्प्रभुता−एकता और अखण्डता के लिए जबरदस्त चुनौती है। देश के बाकी राज्यों में हालात कमोबेश सामान्य हैं, किन्तु अकेले जम्मू−कश्मीर ने पूरे देश की नाक में दम कर रखा है। केन्द्र सरकार इस राज्य के लाड़−दुलार पर अरबों रूपए खर्च करने के साथ ही सुरक्षा बलों का रक्त बहा रही है। सैन्य बलों ने सदाशयता दिखाने में कसर बाकी नहीं रखी। भीषण बाढ़ के दौरान सैन्यकर्मियों ने अपनी जान तक दांव पर लगाते हुए हजारों लोगों की जिंदगी बचाई। इसके बावजूद सुरक्षा बलों पर आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई के दौरान स्थानीय लोगों के हमले जारी हैं। उनकी त्याग−तपस्या का कोई गुण−एहसान लोगों पर नहीं है।
इस हालात के लिए जम्मू−कश्मीर की सरकार भी काफी हद तक जिम्मेदार है। पीडीपी हो या चाहे नेशनल कांफ्रेंस, सारे राजनीतिक दल शहीद होने वाले सुरक्षाकर्मियों की चिताओं पर राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। इसके लिए कश्मीर के अलगाववादी संगठनों के खिलाफ भी सख्ती आवश्यक है और वहां के दलों के प्रति भी। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी सरीखे दलों से ज्यादा उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। ये जब भी विपक्ष में होते हैं, अलगाववादियों के सुर में ही बात करते हैं। यह भी समझने की जरूरत है कि हुर्रियत सरीखे संगठनों को पलने देना भारतीय हितों की अनदेखी करना है।
अब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सेना और सुरक्षा बलों को खुली छूट दे दी है, तब यह उम्मीद की जाती है कि वे देश के दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब देने में समर्थ होंगे, लेकिन इसी के साथ यह भी उम्मीद की जाती है कि कश्मीर में अलगाववाद और आतंक के विष के जो बीज बोए गए और जो अब वृक्ष बन गए हैं, उन्हें जड़-मूल से उखाड़ने का भी काम किया जाएगा। इसमें कश्मीर के राजनीतिक या गैर-राजनीतिक संगठन समेत अन्य जो भी बाधक बने, उससे सख्ती से निपटा जाना चाहिए।
दरअसल अब यह स्पष्ट है कि विश्व समुदाय भारत के इस घरेलू मुद्दे पर तमाशबीन से अधिक कुछ नहीं है। इसके विपरीत मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप अलग से लगाया जा रहा है। जबकि इसमें पाकिस्तान का कितना बड़ा हाथ है, उस पर कोई उंगली नहीं उठा रहा है। यह मामला पूरी तरह से भारत का घरेलू है। संयुक्त राष्ट्र संघ चीन−पाकिस्तान जैसे देशों का मानवाधिकारों के मामले में कुछ नहीं बिगाड़ पाया। उल्टे चीन तो वीटो पावर की धौंस में परिषद को ही आईना दिखाता रहा है। ऐसे में भारत को जम्मू−कश्मीर में मानवाधिकारों के मामले में सफाई देने की जरूरत ही नहीं है। भाइचारे की नीति को कश्मीर में पत्थरबाजों की भीड़, पाकिस्तान तथा विश्व के दूसरे मुल्कों ने भारत की कमजोरी मान लिया है। यही वजह है कि हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। इसकी असली जड़ है विषेष राज्य का दर्जा। जब तक यह समाप्त नहीं होगा। दूसरे राज्यों के लोगों को वहां रहने−बसने का अधिकार नहीं मिलेगा तब तक देश ऐसे ही हर रोज सैनिकों की लाशों से लथपथ होता रहेगा। भारत को विश्व समुदाय की परवाह किए बगैर इस प्रावधान धारा 370 को खत्म करना होगा। तभी देश में शांति−तरक्की के नए सूरज का उदय हो सकेगा।
के के शर्मा, नवल सागर कुंआ , बीकानेर