यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि कश्मीर मसले में अगर सरदार वल्लभ भाई पटले की चली होती तो आज कश्मीर संकट नहीं रहता। उन्होंने जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा हरि सिंह को भारत में विलय के लिए राजी कर लिया था, लेकिन नेहरू और शेख अब्दुल्ला की दोस्ती के चलते वह कश्मीरका भारत में विलय नहीं करा पाए। दरअसल सरदार पटेल हैदराबाद के तुरंत बाद कश्मीर को भी भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बना लेना चाहते थे, लेकिन नेहरू से अहसमतियों के चलते वह ऐसा नहीं कर पाए। हालांकि समय ने एक बार फिर करवट बदली और पाक परस्त कबाइलियों के आक्रमण के बाद जब महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी तो पटेल ने एक बार फिर महाराजा को विलय का प्रस्ताव भेजा, इस पर वह राजी हो गए। इस तरह कश्मीर के भारत में सर्शत विलय पर मुहर लग गई।
इसके बाद भारतीय सेना ने कठिन और विपरीत परिस्थितियों में श्रीनगर पहुंचकर कबाइलियों को खदेड़ने का अभियान शुरू किया। जिस तरह भारतीय सेना पाक परस्त कबाइलियों को ध्वस्त कर रही थी उससे लग रहा था कि जल्द ही उनके कब्जे वाले कश्मीर को पूरी तरह मुक्त करा लिया जाएगा। इसी बीच युद्धविराम की घोषणा हो गई और भारतीय सेना को अपना अभियान रोकना पड़ा। इसका नतीजा यह हुआ कि गिलगित और कुछ हिस्से पर पाकिस्तानी सेना और कबाइलियों का नियंत्रण रह गया, जो आज तक भारत के लिए नासूर बना हुआ है।
बहुत कम लोग जानते हैं कि जम्मू कश्मीर में कबाइलियों के आक्रमण के दौरान सेना भेजने के निर्णय के पीछे भी सरदार पटेल ही थे। कश्मीर में सेना भेजने का निर्णय लेने के लिए दिल्ली में एक बैठक का आयोजन किया गया था। इस बैठक की अध्यक्षता लॉर्ड माउंटबेटन ने की। पंडितजी (जवाहलाल नेहरू), सरदार वल्लभभाई पटेल, रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह, जनरल बुकर, कमांडर-इन-चीफ जनरल रसेल, आर्मी कमांडर आदि बैठक में शामिल हुए।कबाइलियों के हमले पर हाथ खड़े करते हुए जनरल बुकर ने कहा कि हमारे पास इनसे मुकाबले लायक संसाधन नहीं हैं। लॉर्ड माउंटबेटन का रवैया भी इस मुद्दे पर झिझक भरा रहा। नेहरू भी इस मसले पर चुप रहे।सहसा सरदार पटेल अपनी सीट पर से उठे। उन्होंने निर्णायक स्वर में कहा, ‘‘जनरल हर कीमत पर कश्मीर की रक्षा करनी होगी। आगे जो होगा, देखा जाएगा। संसाधन हैं या नहीं, इसके बारे में मत सोचिए। हमें हर हाल में कबाइलियों को खदेड़ना है। ’’अगर उस दिन सरदार पटेल आक्रामक नहीं होते, तो आज कश्मीर पाक का हिस्सा होता। कश्मीर पर अपनी बेबसी पटेल ने कभी नहीं छुपाई। पटेल कहते थे कि, “यदि नेहरू और गोपाल स्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृहमंत्रालय से अलग न करते तो हैदराबाद की तरह इस मुद्दे को भी आसानी से देशहित में सुलझा लेते।” परंतु यह सत्य है कि सरदार पटेल कश्मीर में जनमत संग्रह तथा कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने पर बेहद क्षुब्ध थे।पटेल कश्मीर को किसी भी तरह के विशेष राज्य का दर्जा देने के खिलाफ थे कई देशों से सीमाओं के जुड़ाव के कारण कश्मीर का विशेष सामरिक महत्व था इस बात को पटेल बखूबी समझते थे इसीलिए वे कश्मीर को भारत में मिलाना चाहते थे।
आजादी के बाद भारत में विलय होने वाली दूसरी रियासत जूनागढ़ थी जो चारों तरफ से भारत से घिरा था, लिहाजा पटेल ने जूनागढ़ को तेल-कोयले की सप्लाई, हवाई-डाक संपर्क रोक कर आर्थिक घेरेबंदी कर दी। जूनागढ़ की जनता भी नवाब के खिलाफ विद्रोह पर उतर आई थी। आखिरकार, 26 अक्टूबर 1947 को जूनागढ़ का नवाब परिवार समेत पाकिस्तान भाग गया।7 नवंबर 1947 को जूनागढ़ को औपचारिक तौर पर भारत में शामिल कर लिया गया। जूनागढ़ के विलय में सरदार पटेल की खास दिलचस्पी छुपी भी नहीं थी क्योंकि यहीं पर प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर था। सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को लेकर भी नेहरु ओर पटेल में विवाद था।जब आज़ादी के बाद जूनागढ़ रियासत को भारत का अभिन्न अंग बना लिया गया था, तब गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने शपथ ली थी कि सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार कराया जाएगा और उसकी भव्यता और गौरव को पुनर्स्थापित किया जाएगा।
“समुद्र के जल को हथेली में लेकर हम प्रतिज्ञा करते हैं कि सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाएंगे”। लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल ने भारतीय स्वतंत्रता के बाद 13 नवंबर, 1947 को गुजरात में मनाए गए प्रथम नूतन वर्ष के शुभ दिन अपने सहयोगियों महान गुजरात के स्वप्नदृष्टा व ‘जय सोमनाथ’ के लेखक तथा सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता कन्हैयालाल माणेकलाल मुंशी और तत्कालीन नवा नगर के जामसाहब दिग्विजय सिंह के साथ मिल कर यह प्रतिज्ञा की। जब सरदार पटेल ने इस विषय पर महात्मा गांधी जी से बात की तो उन्हें जीर्णोद्धार से कोई आपत्ति नही थी लेकिन उन्होंने कहा कि मंदिर के पुनर्निर्माण में सरकारी पैसे का उपयोग ना हो और मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए खर्च जनता के सहयोग से हो, जिसे सरदार पटेल ने तुरंत मान लिया था, वो नही चाहते थे कि इस पर कोई बहस हो और इस वजह से कोई देरी हो।सरदार की यह घोषणा समूचे सौराष्ट्र में हर्ष की लहर दौड़ा गई। भामाशाहों में होड़ लग गई। जामसाहब ने एक लाख रुपए, जूनागढ़ के प्रशासक शामलदास गांधी ने 51 हजार रुपए और अन्य धनपतियों ने भी धन की सरिता बहा दी। इसके बाद सोमनाथ मंदिर न्यास की स्थापना हुई। करीब तीन साल बाद 19 अप्रेल, 1950 को तत्कालीन सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री ढेबरभाई ने मंदिर के गर्भगृह निर्माण के लिए भूमि खनन विधि की। 8 मई को दिग्विजय सिंह ने मंदिर का शिलान्यास किया। एक साल बाद 11 मई, 1951को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने समुद्र में स्नान कर सुबह साढ़े नौ बजे होरा नक्षत्र में मंदिर में शिवलिंग की प्रतिष्ठा की।13 मई, 1965को दिग्विजय सिंह ने गर्भगृह और सभामंडप पर कलश प्रतिष्ठा कराई तथा शिखर पर ध्वजारोहण किया। इस बीच दिग्विजय सिंह का निधन हो गया। 28 नवंबर, 1966 को मुंशी ने स्वर्गीय दिग्विजय सिंह की पत्नी गुलाब कुंवरबा की ओर से निर्माण कराए जाने वाले दिग्विजय द्वार का शिलान्यास किया। 4 अप्रेल, 1970 को मूकसेवक रविशंकर महाराज ने सोमनाथ मंदिर परिसर में सरदार पटेल की आदमकद प्रतिमा का अनावरण किया। 19 मई, 1970 को सत्य साईबाबा ने दिग्विजय द्वार का उद्घाटन किया।1 दिसंबर 1995 को तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने नृत्यमंडप पर कलश प्रतिष्ठा कर नवनिर्मित मंदिर राष्ट्र को समर्पित किया। मंदिर निर्माण के सरदार पटेल के दृढ़ संकल्प को साकार करने में काकासाहब गाडगिल, दत्तात्रेय वामन, खंडूभाई देसाई, बृजमोहन बिड़ला, दयाशंकर दवे, जयसुखलाल हाथी, चित्तरंजन राजा, मोरारजीभाई देसाई सहित अनेक लोगों का सहयोग रहा। सोमनाथ मंदिर आज लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के दृढ़ संकल्प का प्रतीक बना हुआ है। संभवत: इसीलिए गुजरात के प्रसिद्ध कवि नर्मद ने भी अपनी कविता में सोमनाथ को पश्चिमी गुजरात का प्रहरी बताया है।
उनकी दूरदर्शिता का लाभ यदि उस समय लिया जाता तो अनेक वर्तमान समस्याओं का जन्म न होता। 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में पटेल ने चीन तथा उसकी तिब्बत के प्रति नीति से सावधान किया था और चीन का रवैया कपटपूर्ण तथा विश्वासघाती बतलाया था। अपने पत्र में चीन को अपना दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा कहा था। उन्होंने यह भी लिखा था कि तिब्बत पर चीन का कब्जा नई समस्याओं को जन्म देगा। 1950 में नेपाल के संदर्भ में लिखे पत्रों से भी पं॰ नेहरू सहमत न थे। 1950में ही गोवाकी स्वतंत्रता के संबंध में चली दो घंटे की कैबिनेट बैठक में लम्बी वार्ता सुनने के पश्चात सरदार पटेल ने केवल इतना कहा “क्या हम गोवा जाएंगे, केवल दो घंटे की बात है।” नेहरू इससे बड़े नाराज हुए थे। यदि पटेल की बात मानी गई होती तो 1961 तक गोवा की स्वतंत्रता की प्रतीक्षा न करनी पड़ती।
गृहमंत्री के रूप में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय नागरिक सेवाओं (आई.सी.एस.) का भारतीयकरण कर इन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (आई.ए.एस.) बनाया। अंग्रेजों की सेवा करने वालों में विश्वास भरकर उन्हें राजभक्ति से देशभक्ति की ओर मोड़ा।
क्या देश के प्रथम प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल हो सकते थे????????????
कई कांग्रेसी भी चाहते थे कि वे ही प्रधानमंत्री बनें, लेकिन महात्मा गांधी ने उन्हें नहीं चुना।भारत के लौह पुरुष के रूप में पहचाने जाने वाले सरदार पटेल एक दृढ़प्रतिज्ञ राजनेता थे जिसके कारण कांग्रेस का हर एक सदस्य उन्हें देश के प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता था। लेकिन इतनी खूबियां और काबलियत होने के बावजूद उन्हें देश का प्रधानमंत्री नहीं चुना ।
1946 में जैसे-जैसे भारत को आजादी मिलने की उम्मीदें बढ़ रहीं थी वैसे-वैसे कांग्रेस के द्वारा सरकार के गठन की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी थी। सभी की निगाहें कांग्रेस के अध्यक्ष के पद पर टिकी हुई थीं क्योंकि ये लगभग तय हो चुका था कि जो कांग्रेस का अध्यक्ष बनेगा वही भारत के प्रधानमंत्री के पद के लिए भी चुना जाएगा। भारत छोड़ो आंदोलन का हिस्सा बनने के कारण कांग्रेस का ज्यादातर नेता जेल में थे। छह साल से अध्यक्ष पद का चुनाव ना हो पाने के कारण मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने ही कांग्रेस के अध्यक्ष पद की कमान संभाली हुई थी।
1946 में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होने थे, मौलाना आज़ाद भी इस चुनाव नें भाग लेना चाहते थे और साथ ही प्रधानमंत्री भी बनने के इच्छुक थे। लेकिन महात्मा गांधी के साफ मना कर देने के बाद उन्हें यह विचार छोड़ना पड़ा। मौलाना आजाद को मना करने के साथ-साथ गांधी ने ये जाहिर कर दिया था कि उनका समर्थन नेहरू के साथ है।29 अप्रैल 1946 अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरने की आखिरी तारीख थी। इस नामांकन में सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि नेहरू को गांधी के समर्थन के बाद भी राज्य की कांग्रेस समिति द्बारा समर्थन नहीं मिला। सिर्फ इतना ही नहीं, 15 राज्यों में से करीबन 12 राज्यों ने सरदार पटेल को कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में प्रस्तावित किया और बाकी 3 राज्यों ने किसी का भी समर्थन नहीं किया। 12 राज्यों द्बारा मिला समर्थन सरदार पटेल को अध्यक्ष बनाने के लिए काफी था।गांधी चाहते थे कि नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष पद को संभाले इसलिए उन्होंने जे बी कृपलानी पर दबाव डाला कि वे कांग्रेस कार्य समिति के कुछ सदस्यों को नेहरू को समर्थन देने के लिए राज़ी करें। गांधी के दबाव में कृपलानी जी ने कुछ सदस्यों को इस बात के लिए मना भी लिया। नेहरू को समर्थन दिलवाने के लिए जो भी गांधी कर रहे थे वो कांग्रेस के संविधान के खिलाफ था। सिर्फ इतना ही नहीं, इसके बाद गांधी ने सरदार पटेल से मुलाकात कर कांग्रेस अध्यक्ष पद के उम्मीदवार की दौड़ से हट जाने का निवेदन किया। सरदार पटेल सारी कूटनीति को समझते हुए भी कांग्रेस की एकता बनाए रखने के लिए गांधी का ये निवेदन स्वीकार कर लिया जिसके कारण नेहरू प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार बन गए।उन्हे उपप्रधान मंत्री एवं गृह मंत्री का कार्य सौंपा गया। किन्तु इसके बाद भी नेहरू और पटेल के सम्बन्ध तनावपूर्ण ही रहे। इसके चलते कई अवसरों पर दोनो ने ही अपने पद का त्याग करने की धमकी दे दी थी।
नेहरू प्रधानमंत्री तो बन गए लेकिन इससे एक सवाल पैदा हो गया कि आखिर गांधी ने ऐसा किया क्यूं? शायद ये और ज्यादा बड़ा सवाल तब बन गया जब सरदार पटेल के उम्मीदवार के पद से हटने की खबर सुनकर राजेंद्र प्रसाद के मुंह से एक ही बात निकली कि एक बार फिर गांधी ने अपने चहेतेचमकदार चेहरे के लिए अपने विश्वासपात्र सैनिक की कुर्बानी दे दी।
नेहरू और पटेल के प्रति गांधी के रूख पर हुए अध्ययन के अनुसार गांधी को मॉडर्न विचार पसंद थे जिसकी झलक उन्हें विदेश में पढ़े नेहरू में दिखती थी। उन्हें लगता था कि नेहरू की नरम नीति देश के लिए सफल साबित होगी। दूसरी वजह यह थी कि नेहरू ने ये साफ जाहिर कर दिया था कि वह किसी व्यक्ति के आधीन कोई भी पद स्वीकार नहीं करेंगे। नेहरू से पक्षपाती स्नेह के कारण गांधी नेहरू की हार को अपनी हार के रूप में देख रहे थे।
स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू व प्रथम उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल में आकाश-पाताल का अंतर था। यद्यपि दोनों ने इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की थी परंतु सरदार पटेल वकालत में पं॰ नेहरू से बहुत आगे थे तथा उन्होंने सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य के विद्यार्थियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। नेहरू प्राय: सोचते रहते थे, सरदार पटेल उसे कर डालते थे। नेहरू शास्त्रों के ज्ञाता थे, पटेल शस्त्रों के पुजारी थे। पटेल ने भी ऊंची शिक्षा पाई थी परंतु उनमें किंचित भी अहंकार नहीं था। वे स्वयं कहा करते थे, “मैंने कला या विज्ञान के विशाल गगन में ऊंची उड़ानें नहीं भरीं। मेरा विकास कच्ची झोपड़ियों में गरीब किसान के खेतों की भूमि और शहरों के गंदे मकानों में हुआ है।” पं॰ नेहरू को गांव की गंदगी, तथा जीवन से चिढ़ थी। पं॰ नेहरू अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के इच्छुक थे
कुछ सूत्रों का कहना है कि नेहरू ने तो गांधी को अध्यक्ष नहीं बनाए जाने पर अलग पार्टी बनाने तक की धमकी दे दी थी जिससे अंग्रेज़ों को भारत की आज़ादी टालने का मौका मिल जाता और साथ ही वह पूरे देश के सामने नेहरू द्बारा लज्जित हो जाते, इसी के चलते गांधी ने अपनी वीटो पावर का इस्तमाल नेहरू के पक्ष में किया। शायद यही वजह है कि गांधी ने ये कहा भी था कि पद और सत्ता की लालसा में नेहरू अंधे हो गए हैं।
गांधी ने जो किया उसे हर कोई गलत मानता है, उस पर सवाल उठना भी लाज़मी है लेकिन कहीं न कहीं सवाल सरदार पटेल पर भी उठे कि उन्होंने इसका विरोध क्यों नहीं किया? आखिर उनके लिए क्या जरूरी था- देश या गांधी?
सरदार पटेल जहां पाकिस्तान की छद्म व चालाकी पूर्ण चालों से सतर्क थे वहीं देश के विघटनकारी तत्वों से भी सावधान करते थे। विशेषकर वे भारत में मुस्लिम लीग तथा कम्युनिस्टों की विभेदकारी तथा रूस के प्रति उनकी भक्ति से सजग थे। अनेक विद्वानों का कथन है कि सरदार पटेल बिस्मार्क की तरह थे। लेकिन लंदन के टाइम्स ने लिखा था “बिस्मार्क की सफलताएं पटेल के सामने महत्वहीन रह जाती हैं। यदि पटेल के कहने पर चलते तो कश्मीर, चीन, तिब्बत व नेपाल के हालात आज जैसे न होते। पटेल सही मायनों में मनु के शासन की कल्पना थे। उनमें कौटिल्य की कूटनीतिज्ञता तथा महाराज शिवाजी की दूरदर्शिता थी। वे केवल सरदार ही नहीं बल्कि भारतीयों के हृदय के सरदार थे।