इतिहास के वर्तमान दौर में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पहचान भारतीय जनता पार्टी के मूल अवतार भारतीय जनसंघ के महान नेता के रूप में बनी हुई है, जबकि वह महान राष्ट्र नायक थे, जिनका इस रूप में आकलन अभी राष्ट्र और इतिहास को करना है, उसी तरह जिस तरह डा. भीम राव अबेदकर की पहचान मात्र एक दलित नेता के रूप में आंकी गई है, जबकि वह एक महान राष्ट्रनायक थे। यह विडबना है मगर है एक तथ्य। पंडित दीनदयाल ने अपने गहन अध्ययन और मंथन से राष्ट्रोत्थान के लिए आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक समरसता, राजनीतिक शुचिता, राजनीतिक दलों के लिए मर्यादाओं और लोकतंत्र की प्रकृति और सिद्धांतों बारे जो विचार प्रतिपादित किए वे राष्ट्रजीवन को वर्तमान चिंतनीय स्थिति से उबारने के लिए पूरी तरह कारगर हैं।
उन्होंने समग्र रूप से एकात्म मानववाद का जो दर्शन प्रस्तुत किया वह शोध का विषय बना हुआ है। उनका राजनीतिक दलों बारे विचार था कि उनका वैचारिक अधिष्ठान हो, उनमें आंतरिक लोकतंत्र हो, कार्यकत्र्ता अनुशासित, समर्पित और विचारों के प्रति प्रतिबद्ध हों। यदि ऐसा नहीं होगा तो ऐसे राजनीतिक दल लोकतंत्र के लिए खतरा बने रहेंगे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितबर, 1916 को मथुरा जिला के गांव नगला चन्द्रभान में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था, किन्तु बचपन में ही उन्हें कई आघात सहने पड़े थे। अभी 3 वर्ष के ही थे कि पिता का देहांत हो गया और 19 वर्ष की आयु तक थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद उनकी माता, नाना, छोटे भाई और नानी की भी मृत्यु हो गई। तब उनकी संभाल उनके मामा-मामी जी द्वारा की जाने लगी। मगर एक बाद दूसरी पांच मौतों का आघात उन्हं हताश नहीं कर पाया और वह शिक्षा की सीढिय़ां चढ़ते गए। युवा दीनदयाल के जीवन में उस समय एक क्रांतिकारी मोड़ आया, जब वह 1937 में बी.ए. की पढ़ाई के लिए कानपुर गए और वहां उनका सपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ। बस थोड़े समय बाद ही उन्हें आभास होने लगा कि उन्हें जीवन का ध्येय मिल गया है। 1942 आते-आते उन्होंने संघ कार्य में पूरा जीवन लगाने का मन बना लिया।
ठीक उसी समय उनके मामी-मामी उनसे विवाह करने का आग्रह कर रहे थे। इस बात को लेकर उनके मामा जी ने उन्हें जो पत्र लिखा, उसके उत्तर मे उन्होंने मामा-मामी को लिखा, ‘समाज की उन्नति के बिना व्यक्ति का विकास असंभव है। यदि कुछ व्यक्ति समाज में उन्नत हो भी गए तो क्या लाभ। वस्तुत: वह हानिकारक विकास होगा। आज समाज को हमार जीवन की अपेक्षा है, हमें उस अपेक्षा को पूरा करना है, जिस समाज की रक्षा के लिए राम ने वनवास सहा, कृष्ण ने कई संकटों का सामना किया, राणा प्रताप जंगल-जंगल मारे फिर, शिवाजी ने जीवन की बाजी लगा दी, रानी झांसी ने बलिदान दिया, गुरु गोबिंद सिंह के बच्चों ने दीवार में चिने जाना स्वीकार किया, क्या उसकी खातिर हम अपने जीवन की आकांक्षाओं का भी त्याग नहीं कर सकते हैं? परमात्मा ने हमें सब प्रकार से समर्थ बनाया है, फिर हम परिवार में से एक को भी देश के लिए नहीं दे सकते।
उनके ये उद्गार ही उनका महानता को दर्शाने के लिए पर्याप्त हैं। राष्ट्र के प्रति इन्हीं उदात्त विचारों को लेकर वह 1942 में संघ के पूर्णकालिक प्रचारक बन गए और मात्र 3 वर्ष के बाद 1945 में उनकी कर्मठता, निष्ठा, समर्पण भाव और संगठन कौशल के कारण उन्हें उत्तर प्रदेश जैसे विशाल प्रदेश के सह-प्रांत प्रचारक की जिमेदारी सौंपी गई, जिसे वह 1951 में उस समय तक निभाते रहे, जब अप्रत्याशित रूप से संघ के तत्कालीन सर संघचालक श्री गुरु जी गोलवलकर ने उन्हें डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा प्रस्तावित राजनीतिक दल में सहयोग करने के लिए सौंप दिया।
दिसबर, 1952 में नवगठित राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ के कानपुर में आयोजित पहले अधिवेशन में, जहां डा. मुखर्जी पहले अध्यक्ष निर्वाचित हुए, वहीं डा. मुखर्जी ने उन्हें पहला महासचिव नियुक्त किया। तभी से वह जनसंघ को वैचारिक और संगठनात्मक दृष्टि से नई दिशा देने और कार्यकत्र्ताओं के ‘चाल, चरित्र और चेहरे को विशिष्ट गुणों से मंडित करने के अभियान में जुट गए, जिस अभियान के चलते उन्हें जनसंघ जनता में ‘पार्टी विद ए डिफै्रंस (अन्य दलों से विशिष्ट) के विशेषण से पहचाना जाने लगा था, तब उनकी आयु मात्र 36 वर्ष की थी। मगर देश और जनसंघ का दुर्भाग्य यह हुआ कि 1953 में जमू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिए प्रजा परिषद् की ओर से चलाए गए आंदोलन के चलते वहां की परिस्थिति का जायजा लेने के लिए जब डा. मुखर्जी जमू गए तो वहां के तत्कालीन ‘प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने उन्हें गिरतार कर श्रीनगर में नजरबंद कर दिया। तब देश के राजनीतिक क्षेत्र में यह सवाल गूंजने लगा था कि शैशव अवस्था में ही यतीम हो गए जनसंघ का क्या होगा, किन्तु पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इस चुनौती को स्वीकार किया और अपने सहयोगियों के साथ कार्यकत्र्ताओं को निराश-हताश नहीं होने दिया।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय अपने सहयोगी नेताओं और कार्यकर्ताओं को इतना सक्रिय और समर्पित बना पाए कि जनसंघ लोकसभा के 1957, 1962 और 1967 के चुनावों के बाद न केवल देश का दूसरा बड़ा दल बन कर उभरा, बल्कि 1967 में उत्तर भारत के 9 राज्यों में बनीं गैर-कांग्रेसी सरकारों में महत्वपूर्ण भागीदार भी बना। इन उत्साहपूर्ण परिस्थितियों के चलते उनके जीवन में एक और मोड़ आया, जब अपने सहयोगियों के आग्रह पर अनिच्छुक होते हुए भी पार्टी का अध्यक्ष बनना स्वीकार कर लिया। 30 दिसबर, 1967 को कयुनिस्ट शासित केरल की राजधानी कालीकट में आयोजित पार्टी अधिवेशन में उनकी ताजपोशी हुई।
यह इतना अभूतपूर्व था कि विरोधी क्षेत्रों में हड़कप मच गया और उन्हीं में से कुछ तत्वों ने साजिश रच कर प्रधान बनने के मात्र 43 दिन बाद ही मुगलसराय जाते हुए रेलयात्रा के दौरान 10-11 फरवरी, 1968 की रात्रि उनकी हत्या कर दी गई और उनका शव मुगलसराय स्टेशन के यार्ड में रेल पटरी के पास लिटाया हुआ पाया गया। विडबना यह है कि उनकी रहस्यपूर्ण मृत्यु के साजिशयों का पता नहीं लगाया गया। इस जघन्य हत्या पर देश में कोहराम मचना स्वाभाविक था। तब एक बार फिर यह सवाल गूंजने लगा कि अब जनसंघ का भविष्य क्या होगा? किन्तु तब तक जनसंघ किशोर बन चुका था, जो पंडित दीनदयाल द्वारा उत्सव ऊर्जा के बल पर आगे बढ़ता ही गया।