के के शर्मा , बीकानेर : दुनिया में कई तरह के विचारक हुए। जिनके नाम की पहचान उनके कामों से हुई। इन्हीं विचारकों में से एक नाम पं. दीनदयाल उपाध्याय का भी था। पं. दीनदयाल उपाध्याय बहुप्रतिभा के धनी थे। वे एक भारतीयविचारक ही नहीं बल्कि अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री इतिहासकार और पत्रकार भी थे। दीनदयाल उपाध्याय भारतीय जनसंघ के नेता और भारतीय राजनीतिक एवं आर्थिक चिंतन को वैचारिक दिशा देने वाले पुरोधा थे। यह अलग बात है कि उनके बताए सिद्धांतों और नीतियों की चर्चा साम्यवाद और समाजवाद की तुलना में बेहद कम हुई है। वे उस परंपरा के वाहक थे जो नेहरु के भारत नवनिर्माण की बजाय भारत के पुनर्निर्माण की बात करती है। एकात्म मानववाद के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने भारत की तत्कालीन राजनीति और समाज को उस दिशा में मुड़ने की सलाह दी है, जो सौ फीसदी भारतीय है। वे मानव को विभाजित करके देखने के पक्षधर नहीं थे।
सुविधाओं में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है; पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया में अपने नाना पंडित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति थे।दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके मामा ने किया।दीनदयाल जी की षिक्षा का श्री गणेष गंगापुर में हुआ। तत्पष्चात् कोटा (राजस्थान) से पांचवी कक्षा पास की और राजगढ़ (अलवर) चले आये जहाँ से उन्होंने 8 वीं और 9 वीं कक्षाएं उत्तीर्ण की। साधन के अभाव में अपने सहोदर की पुस्तकों का प्रयोग जब
वह सो जाता था तब वे स्वयं कर लेते थे। राजगढ़ से सीकर जाकर उन्होंने हाईस्कूल में प्रवेष लिया। दुर्भाग्य से परीक्षा से पूर्व यह काफी बीमार हो गये, किन्तु जब परीक्षाफल निकला तो वे प्रथम श्रेणी में सभी विषयों में विषेष योग्यता सहित पास हुए जो अपने में स्वयं एक कीर्तिमान था। उपरोक्त सफलता से प्रभावित होकर सीकर के महाराज ने उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान किया और पुस्तकों के लिए 250 रुपये की सहायता तथा 10 रुपये मासिक की छात्रवृत्ति भी दी। सन् 1937 में पिलानी से इन्टर परीक्षा पुनः प्रथम श्रेणी में सभी विषयों में विषेष योग्यता सहित पास की। घर में बिजली होने के बाबजूद, घर के लोगों को सोने में बाधा न पड़े इसलिए वे एक कोने में लालटेन की रोषनी में पड़ा करते थे।एक बार उन्होंने अपनी चाची के कहने पर धोती तथा कुर्ते में और अपने सिर पर टोपी लगाकर सरकार द्वारा संचालित प्रतियोगी परीक्षा दी जबकि उसी परीक्षा में दूसरे उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहने हुए थे। उम्मीदवारों ने मजाक में उन्हें ’पंडित जी’ कहकर पुकारा। यह एक उपनाम था जिसे लाखों लोगों ने बाद में उन्हें सम्मान और प्यार देने के लिए उपयोग किया। इस परीक्षा में वे चयनित उम्मीदवारों में सबसे ऊपररहे। पंडित दीनदयाल जी के जीवन की एक ओर प्रेरणादायक बात थी, उनका सादगी भरा जीवन और ईमानदार व्यक्तित्व। पंडित दीनदयाल जी इतने बड़े नेता, समाजसेवी और लेखक आदि होने के बावजूद बहुत ही सादगी भरा जीवन व्यतित करते थे । उनकी देशवासियों के प्रति हमेशा से आत्मीयता और सेवाभाव का व्यक्तित्व रहता था। एक बार पंडित दीनदयाल जी रेलगाड़ी से यात्रा कर रहे थे । रेलगाड़ी में एक गरीब बच्चा जूते पालिश करने के लिए आया । उस बच्चे के पास बैठे एक साहब ने बच्चे के कहने पर बच्चे को जूते पालिश करने के लिए दे दिए । बच्चा जैसे ही जूते पालिश शुरू करने वाला था, तब उन साहब ने कहा तुम्हारे पास जूते चमकाने के लिए कपड़ा है क्या ? बच्चे ने खा नहीं । साहब ने कहा लाओ जूते दे दो नहीं करवाने जूते पालिश । बच्चा निराश होकर जाने लगा, तब पंडित दीनदयाल जी ने उसे रोक और अपने गमछे में से कपडा फाड़ के उस बच्चे को दे दिया । पंडित दीनदयाल जी ने बच्चे से कहा की अब साहब के जूते अच्छे से पालिश करदो। वह साहब यह दृश्य देखकर हैरान हो गए। जब अगले स्टेशन पर हजारों कार्यकर्ताओं द्वारा भारत माता के जय घोषों से उन साहब ने पंडित दीनदयाल जी का स्वागत होते देखा तो वह पूर्ण रूप से चकित रह गए पंडित दीनदयाल जी थे । इस प्रकार एक बार पंडित दीनदयाल उपाध्याय रेलगाड़ी से यात्रा कर रहे थे. इत्तेफाक से उसी रेलगाड़ी मे गुरू गोलवरकर भी यात्रा कर रहे थे. जब गोलवलकर को यह पता चला कि उपाध्याय भी इसी रेलगाड़ी में हैं तो उन्होंने खबर भेजकर उनको अपने पास बुलवा लिया. उपाध्याय आए और लगभग एक घंटे तक सेकेंड क्लास के डिब्बे में गुरू गोलवलकर के साथ बातचीत करते रहे. उसके बाद वह अगले स्टेशन पर थर्ड क्लास के अपने डिब्बे में वापस चले गए.अपने डिब्बे में वापस जाते समय टीटीई के पास गए और बोले- श्रीमान मैंने लगभग एक घंटे तक सेकेंड क्लास के डिब्बे में ट्रैवेल किया है, जबकि मेरे पास थर्ड क्लास का टिकट है. नियम के हिसाब से मेरा एक घंटे का जो भी किराया बनता है. वह आप मेरे से ले लीजिए. TTE ने कहा- कोई बात नहीं आप अपने डिब्बे में चले जाइए. आखिर जब दीनदयाल नहीं माने और पीछे ही पड़ गए तो TTE ने दो घंटे का किराया जोड़ा और उनसे ले लिया.
पंडित दीन दयाल जी के एकात्म मानववाद का व्यावहारिक रूप भारत की प्राचीन अवधारणा ‘‘वसुदैव कुटुम्बकम’’ एवं ‘‘सर्वे भवन्तु सुखनः’’ का हो यह दूसरा स्वरूप है।पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था:- वे लोग जिनके सामने रोजी-रोटी का सवाल है, जिन्हें न रहने के लिए मकान है और न तन ढकने के लिए कपड़ा। अपने मैले-कुचैले बच्चों के बीच जो दम तोड़ रहे हैं और शहरों के उन करोड़ों निराष भाई-बहनों को सुखी व सम्पन्न बनाना हमारा लक्ष्य है। ग्रामों में जहाँ समय अच्ल खड़ा है, जहाँ माता और पिता अपने बच्चों के भविष्य को बनाने में असमर्थ हैं, जब तक हम आषा और पुरुषार्थ का संदेष उन तक नहीं पहुँचा पायेंगे, तब तक हम राष्ट्र के चैतन्य को जागृत नहीं कर सकेंगे। एकात्म मानव-दर्शन राष्ट्रत्व के दो पारिभाषित लक्षणों को पुनर्जीवित करता है, जिन्हें”चिति ” (राष्ट्र की आत्मा) और ”विराट” (वह शक्ति जो राष्ट्र को ऊर्जा प्रदान करता है) कहते हैं।आजादी के बाद देश की राजनैतिक दिशा स्पष्ट नहीं थी क्योंकि आजादी के आंदोलन के समय इस विषय पर बहुत च्यादा चिन्तन नहीं हुआ था। अंग्रेजी शासनकाल में सबका लक्ष्य एक था ”स्वराज” लाना लेकिन स्वराज के बाद हमारा रूप क्या होगा? हम किस दिशा में आगे बढेंग़े? इस बात का ज्यादा विचार ही नहीं हुआ। पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 1964 में कहा था कि हमें ”स्व” का विचार करना आवश्यक है। बिना उसके स्वराय का कोई अर्थ नहीं। केवल स्वतंत्रता ही हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती। जब तक कि हमें अपनी असलियत का पता नहीं होगा तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है। राष्ट्रीय दृष्टि से तो हमें अपनी संस्कृति का विचार करना ही होगा, क्योंकि वह हमारी अपनी प्रकृति है। स्वराय का स्व-संस्कृति से घनिष्ठ संबंध रहता है। संस्कृति का विचार न रहा तो स्वराज की लड़ाई स्वार्थी व पदलोलुप लोगों की एक राजनीतिक लड़ाई मात्र रह जायेगी। स्वराय तभी साकार और सार्थक होगा जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन सकेगा। इस अभिव्यक्ति में हमारा विकास भी होगा और हमें आनंद की अनुभूति भी होगी। अत: राष्ट्रीयऔरमानवीय दृष्टियों से आवश्यक हो गया है कि हम भारतीय संस्कृति के तत्वों का विचार करें। भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह सम्पूर्ण जीवन का, सम्पूर्ण सृष्टि का, संकलित विचार करती है। उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़ों-टुकड़ों में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं।राष्ट्रीय एकता के मर्म को समझाते हुए उन्होंने लिखा था–‘‘यदि हम एकता चाहते हैं तो भारतीय राष्ट्रीयता जो हिंदू राष्ट्रीयता है तथा भारतीय संस्कृति जो हिंदू संस्कृति है उसका दर्शन करें। उसे मानदंड बनाकर चलें। भागीरथी की पुण्यधाराओं में सभी प्रवाहों का संगम होने दें। यमुना भी मिलेगी और अपनी सभी कालिमा खोकर गंगा में एकरूप हो जाएगी।”.उन्होंने देश में बदलाव के लिए नारे एवं बेवजह प्रदर्शनों को कभी प्राथमिकता नहीं दी। देश की समस्याओं के निवारण के लिए वह पुरूषार्थ को ही महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने कहा –‘‘आज देश के व्याप्त अभावों की पूर्ति के लिए हम सब व्यग्र हैं। अधिकाधिक परिश्रम आदि करने के नारे भी सभी लगाते हैं। परंतु नारों के अतिरिक्त वस्तुतः अपनी इच्छानुसार सुनहले स्वप्नों, योजनाओं तथा महत्वाकांक्षाओंके अनुकूल देश का चित्र निर्माण करने के लिए उचित परिश्रम और पुरूषार्थ करने को हममें से पिचानवे प्रतिशत लोग तैयार नहीं है। जिसके अभाव में यह सुंदर-सुंदर चित्र शेखचिल्ली के स्वप्नों के अतिरिक्त कुछ और नहीं” .सन 1947 में भारत राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो गया था। किंतु, अंग्रेजों के जाने के पश्चात भी औपनिवेशिक संस्कृति के अवशेष भारत के तथाकथित बुर्जुआ वर्ग पर हावी रहे। इस मानसिकता को राष्ट्र के सांस्कृतिक उत्थन में बाधक बताते हुए उन्होंने कहा था-‘‘राष्ट्रभक्ति की भावना को निर्माण करने और उसको साकार स्वरूप देने का श्रेय भी राष्ट्र की संस्कृति का ही है तथा वही राष्ट्र की संकुचित सीमाओं को तोड़कर मानव की एकात्मता का अनुभव कराती है। अतः संस्कृति की स्वतंत्रता परमावश्यक है। बिना उसके राष्ट्र की स्वतंत्रता निरर्थक ही नहीं, टिकाऊ भी नहीं रह सकेगी।‘‘ .उनका स्पष्ट मत था कि राष्ट्रीय एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए राष्ट्र की सांस्कृतिक एकात्मता भी आवश्यक है। अपने विचारों को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था-‘‘भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है, एक से अधिक संस्कृति कानारा देश के टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। अतः आज लीग का द्वि-संस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहुस्ंस्कृतिवाद नहीं चल सकता। आज तक एक संस्कृतिवाद को संप्रदायवाद कहकर ठुकराया गया किंतु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझकर इस एक संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता तथा अखंडता बनी रह सकती है तथा तभी हम अपनी संपूर्ण समस्याओं को सुलझा सकते हैं।” हमारे देश में चाणक्य नीति, विदुर नीति, शुक्र नीति बहुत पहले लिखी गई है, जो समाज का मार्गदर्शनकरती आई है. लेकिन भारत का अपना कोई विचार था ही नहीं, हम जंगली थे, हम अंग्रेजों की वजह से सभ्य बने, ऐसा हमें बताया गया और हमने गर्दन हिलाकर उसे स्वीकार भी कर लिया और उसके बाद पाश्चात्य विचारों के अनुकरण का सिलसिला शुरू हो गया. स्वतंत्रता के पश्चात् इसमें कुछबदलाव आएगा ऐसा लगा था, पर ऐसा हुआ नहीं. ऐसे समय में दीनदयाल जी ने एकात्म-मानव दर्शन देश के सामने प्रस्तुत किया. स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् हमारे देश का यह एकमात्र दर्शन है.एक राष्ट्र लोगों का एक समूह होता है जो एक लक्ष्य ‘,’ एक आदर्श ‘,’ एक मिशन’ के साथ जीते हैं और एक विशेष भूभाग को अपनी मातृभूमि के रूप में देखते हैं. यदि आदर्श या मातृभूमि दोनों में से किसी का भी लोप हो तो एक राष्ट्र संभव नहीं हो सकता.अपने राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा भारत के मूलभूत समस्याओं का प्रमुख कारण है.पं दीनदयाल एक युग-द्रष्टा थे. आजादी के बाद जब उन्होंनेभारत के विकास के लिए ग्रामीण-विकास और लघु-उद्योग को बढ़ावा देने की बात की, तो किसी ने ध्यान नहीं दिया. 1950 के दशक में जब बड़े-बड़े सार्वजनिक निर्गमों की स्थापना सोवियत रूस की नकल पर ‘महालनोबिस’ माॅडल पर हो रही थी, उन्होंने इसका विरोध किया था. उनके विरोध का आधार था भारत के संदर्भ में पश्चिम की अंधी नकल. वे बड़े उद्योगों के विरोधी नहीं थे, परंतु वे भारत की तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर लघु-उद्योगों को बढ़ावा देना चाहते थे, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था सुधरे.आज लगभग 60 वर्ष बाद उनकी बात अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही है.हमारे गांव और गरीबी जहां थी, कमोबेश अभी भी वहीं पर है, जबकि ज्यादातर बड़े सार्वजानिक उद्गम सफेद हाथी साबित हुए हैं. अब जब कि साम्यवाद ध्वस्त हो चुका है, पूंजीवाद को विखरते-टूटते हम देख ही रहे हैं, भारत एवं विश्व के समक्ष इस दर्शन की प्रासंगिकता पर नए सिरे से विचार का समय आ गया है।पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि भारतवर्ष विश्व में सर्वप्रथम रहेगा तो अपनी सांस्कृतिक संस्कारों के कारण. उनके द्वारा स्थापित एकात्म मानववाद की परिभाषा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ज्यादा सामयिक है. उन्होंने कहा था कि मनुष्य का शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा ये चारों अंग ठीक रहेंगे तभी मनुष्य को चरम सुख और वैभव की प्राप्ति हो सकती है. जब किसी मनुष्य के शरीर के किसी अंग में कांटा चुभता है तो मन को कष्ट होता है , बुद्धि हाथ को निर्देशित करती है कि तब हाथ चुभे हुए स्थान पर पल भर में पहुँच जाता है और कांटें को निकालने की चेष्टा करता है. यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. सामान्यत: मनुष्य शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा इन चारों की चिंता करता है. मानव की इसी स्वाभाविक प्रवृति को पं. दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की संज्ञा दी.पंडितदीनदयाल जी छुआछूत के कट्टर विरोधी थे। वे प्रायः इस बात का आग्रहकरते थे कि उन्हें किसी हरिजन बस्ती में रहने वाले कार्यकर्ता के यहाँ ठहराया जाये। कई रचनात्मक कार्यों में, हरिजनों के साथ झाडू लगाने में, सफाई करने में वे आगे रहते थे और प्रसन्नता का अनुभव करते थे। किसी भी दीन-दुःखी व्यक्ति की सहायता करने में वे सुख का अनुभव करते थे। उन्होंने कहा था कि किसी भी समाज में विभिन्न जातियाँ, उपराजतियाँ हो सकती हैं, किन्तु उनमें आपस में टकराव या व्यवहारिक भेदभाव हो, ऐसा हमने कभी नहीं चाहा। ‘‘जिस सामाजिक व्यवस्था में व्यक्ति और व्यक्ति के बीच अर्थात् समाज के व्यवहार में परस्पर अनुकूलता होगी, वहाँ व्यक्ति की स्वतन्त्रता और उसका सम्मान सुरक्षित होगा’’। दीन दयाल उपाध्याय ने व्यक्ति एवं समाज में समन्वय का समर्थन किया. व्यक्ति और समाज को बांटा नहीं जा सकता क्योंकि वह एकात्म है. दीनदयाल उपाध्याय विकेन्द्रीकरण के समर्थक थे. हर व्यक्ति के हाथ को काम की बात का दर्शन है एकात्म. हर व्यक्ति की सृजनशीलता को सम्मान देने वाली व्यवस्था होनी चाहिए. एकात्म मानववादी व्यवस्था सरकार नहीं, बल्कि समाज का कार्य है. पंडितदीनदयाल ने दुनिया को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सिद्धांत दिया, जो व्यक्ति को परिवार,समाज, देश-दुनिया और प्रकृति से जोड़ता है। उन्होंने आर्थिक लोकतंत्र का सिद्धांत दिया। उनका कहना था कि जिस प्रकार प्रत्येक वयस्क नागरिक को मतदान का अधिकार मिलता है, ठीक उसी तरह लोगों को कार्य करने का भी मिलना चाहिए।उनका मानना था कि गरीबों को रोटी देने के बजाए उनको रोटी पैदा करने की ताकत देना जरूरी है। लोगों को सक्षम बनाना चाहिए, ताकि वे अपनी जरूरतों को पूरा कर सके ।
1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना हुई। दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये।जनसंघ के संस्थापक डाॅ श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जनसंघ की स्थापना के दो वर्ष के भीतर ही कश्मीर की जेल में मृत्यु हो गयी या शायद हत्या कर दी गयी. उसके बाद पं दीनदयाल ने अकेले विषम परिस्थितियों में 16 वर्ष तक अत्यंत परिश्रम से जनसंघ को खड़ा किया. उनकी कार्यक्षमता, खुफिया गतिधियों और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनके लिए गर्व से सम्मानपूर्वक कहते थे कि, ‘यदि मेरे पास दो दीनदयाल हों,तो मैं भारत का राजनीतिक चेहरा बदल सकता हूं’।प.दीनदयाल उपाध्याय अपने सहयोगी नेताओं और कार्यकताओं को इतना सक्रिय और समर्पित बना पाए कि जनसंघ लोकसभा के 1957 , 1962और 1967 के चुनावों के बाद न केवल देश का दूसरा बड़ा दल बनकर उभरा बल्कि 1967 में उत्तर प्रदेश के 9 राज्यों में बने गैर कांग्रेसी सरकारों में महत्वपूर्ण भागीदार भी बना |‘स्व’ के लिए कुछ न चाह कर अपना सारा जीवन संगठन और देश को दे दिया.उन्होंने देश की राजनैतिक व्यवस्था व अर्थतंत्र का भी गहन अध्ययन कर शुक्र, वृहस्पति, और चाणक्य की भांति आधुनिक राजनीति को शुचि व शुध्दता के धरातल पर खड़ा करने की प्रेरणा दी। राजनीति उनके लिए न कैरियर थी, न ख्याति का साधन था और न ही ताकत हासिल करने का उपकरण। वे जातिवाद मुक्त राजनीति के प्रवक्ता के रूप में थे, वे गरीब, किसान, मजदूर और हाशिये के लोगों के उत्थान की बात करते थे और सामंती संस्कृति पर प्रहार भी कर रहे थे।दीनदयाल उपाध्याय संभवत: पहले भारतीय राजनीतिक विचारक थे, जिन्होंने वाम-दक्षिण विभाजन को कृत्रिम और लोकतांत्रिक विकास में बाधक मान कर अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कम्युनिस्टों के आयातित विचार को अभारतीय करार दिया तो हिंदू महासभा, राम राज्य परिषद और स्वतंत्र पार्टी के जनसंघ के साथ विलय को भी खारिज कर दिया। यह विलय भी तब लगभग सोलह प्रतिशत से अधिक मतों का हकदार बन जाता। उपाध्याय के लिए राजनीतिक अस्तित्व से अधिक राजनीतिक अस्मिता महत्त्वपूर्ण थी। इसका परिचय तो उनके प्रभाव में जनसंघ ने 1953 में ही दे दिया था। राजस्थान में जागीरदारी उन्मूलन विधेयक लाया गया था। जनसंघ के पास विधानसभा में आठ विधायक थे। उनमें छह विधायक इस विधेयक के विरोधी थे। उसके सामने यह कठिन प्रश्न था। छह विधायकों को पार्टी से निकाल दिया गया।राजनीतिकजीवन से बाहर रह कर आदर्श की बात करना आसान है और उसके केंद्र में रह कर आदर्श पर अडिग रहना कठिन है। राजनीति में चुनाव अग्निपरीक्षा के समान होता है, जिसमें सामाजिक यथार्थऔर भविष्य के समाज की कल्पना के लिए बनाए गए आदर्शों के बीच टकराव होता है।वे स्वयं राजनीतिको तात्कालिक सफलता-विफलता के आईने में नहीं देखते थे। जहां जातिविहीन समाज के प्रवक्ता डॉ. लोहिया जातीय समीकरण के आधार पर फर्रूखाबाद से चुनाव लड़ रहे थे वहीं दीनदयाल उपाध्याय ने जौनपुर में अपने पक्ष के जातीय समीकरण को स्वयं ही अपना विरोधी बना लिया। क्योंकि वेसभाओं में जाति के आधार पर मतदान की निंदा करते हुए उन लोगों से चले जाने की अपील करते थे, जो जाति के आधार पर उनका समर्थन करने आते थे। वे जातिवाद मुक्त राजनीति के प्रवक्ता के रूप में चुनाव में थे। वे गरीब, किसान, मजदूर और हाशिए के लोगों के उत्थान की बात कर रहे थे और सामंती संस्कृति पर प्रहार भी कर रहे थे।उन्होंने अपने आदर्शवादी यथार्थ को व्यावहारिक यथार्थ के सामने झुकने नहीं दिया। वे हारगए और संदेश दिया कि ‘दीनदयाल हार गया, जनसंघ जीत गया’।वे जिन कारणों और जिस उद्देश्य से हारे उससे यह चुनाव भारतीय राजनीति के इतिहास में रेखांकित हो गया। भले ही राजनीति आज जातीय सांप्रदायिक समीकरणों के दलदल में फंसी हुई है, पर जौनपुर का चुनाव उस बीज की तरह भारतीय उपचेतना में विद्यमान है, जो राजनीति को इस दलदल से निकालने का संकल्प था।
राजनीति पर उनके विचार —
–एक राष्ट्र लोगों का एक समूह होता है जो एक लक्ष्य ‘,’ एक आदर्श ‘,’ एक मिशन’ के साथ जीते हैं और एक विशेष भूभाग को अपनी मातृभूमि के रूप में देखते हैं. यदि आदर्श या मातृभूमि दोनों में से किसी का भी लोप हो तो एक राष्ट्र संभव नहीं हो सकता.
–जब हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता हैं, केवल भारत ही नहीं. माता शब्द हटा दीजिये तो भारत केवल जमीन का टुकड़ा मात्र बनकर रह जायेगा.
–भारत जिन मुश्किलों का सामना कर रहा है उसका प्रमुख कारण इसकी राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा करना है.
–अनेकता में एकता व विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति ही भारतीय संस्कृति की सोच रही है.
–हम लोगो ने उस समय खुद पर गर्व किया था जब अंग्रेज शासन के अन्दर हमने अंग्रेजी वस्तुओं का विरोध किया और पर यह आश्चर्य है की अब अंग्रेजो के जाने के बाद हम अंग्रेजो का अनुसरण क्यों कर रहे है.
–अवसरवादिता ने राजनीति में लोगों के विश्वास को हिला दिया है.किसीसिद्धांत को न मानने वाले अवसरवादी हमारे देश की राजनीति को नियंत्रित करते हैं
–व्यक्ति को वोट दें, बटुए को नहीं, पार्टी को वोट दें, व्यक्ति को नहीं; सिद्धांत को वोट दें, पार्टी को नहीं
–सत्तापक्ष कमजोर हो और विपक्ष ना हो तो लोकतंत्र के लिए खतरा होता है।
–आज की राजनीति ने गरीबी को मंत्र बना दिया है। गरीब, गरीब बना रहेगा तो वोट बैंक बना रहेगा।
–अंग्रेजी का शब्द रिलिजन धर्म के लिए सही शब्द नहीं है.उनकी मान्यता थी कि हिन्दू कोई धर्म या संप्रदाय नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय संस्कृति हैं।
–मुसलमान हमारे शरीर का शरीर और हमारे खून का खून हैं.
–सिद्धांतहीन अवसरवादी लोगों ने हमारे देश की राजनीति का बागडोर संभाल रखा है.
–राज्य में समस्त शक्तियां समाहित होती हैं – राजनीतिक और आर्थिक दोनों – परिणामस्वरुप धर्म की गिरावट होता है.
राजनीतिक क्रान्ति के साथ-साथ वैचारिक क्रान्ति भी आवष्यक है, इस उद्देष्य को लेकर सन् 1947 में लखनऊ से ‘राष्टधर्म’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाषन शुरू हुआ- उसके संस्थापक पं. दीनदयाल जी थो, पहला सम्पादकीय भी उन्होंने ही लिखा था। तदोपरान्त इस कार्य से श्री अटलबिहारी बाजपेई भी जुड़ गये। शीघ्र ही इन लोगों के निर्देषन में तीन पत्र-पत्रिकाएं निकलने लगी। (1) राष्ट्रधर्म (मासिक) (2) पांचजन्य (साप्ताहिक) (3) स्वदेष (दैनिक)। पं. दीनदयाल जी ने दो अन्य पत्रिकाओं ‘हिमालय’ तथा ‘राष्ट्रभक्त’ का प्रकाषन भी किया।उन्होंने नाटक ‘चंद्रगुप्त मौर्य’ और हिन्दी में शंकराचार्य की जीवनी लिखी। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. के.बी. हेडगेवार की जीवनी का मराठी से हिंदी में अनुवाद किया। उनकी अन्य प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों में ‘सम्राट चंद्रगुप्त’, ‘जगतगुरू शंकराचार्य’, ‘अखंडभारत क्यों हैं’, ‘राष्ट्र जीवन की समस्याएं’, ‘राष्ट्र चिंतन’ और ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ आदि हैं।
19 दिसंबर 1967 में दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष चुना गया पर नीयति को कुछ और ही मंजूर था। 11 फ़रवरी, 1968 की सुबह मुग़ल सराय रेलवे स्टेशन पर दीनदयाल का निष्प्राण शरीर पाया गया। इसे सुनकर पूरा देश दुःख में डूब गया।आजतक उनकी मौत एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है।देश हमेशा के लिए एक प्रखर चिंतक और विलक्षण राजनेता से वंचित हो गया.पण्डित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्र के सजग प्रहरी व सच्चे राष्ट्र भक्त के रूप में भारतवासियों के प्रेरणास्त्रोत रहे हैं । राष्ट्र की सेवा में सदैव तत्पर रहने वाले दीनदयालजी का यही उद्देश्य था कि वे अपने राष्ट्र भारत को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक क्षेत्रों में बुलंदियों तक पहुंचा देख सकें ।52 वर्ष की उम्र में पं दीनदयाल चले गये, पर अपने पीछे इतना कुछ छोड़ गये कि इस देश के राष्ट्रवादी उनके ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकेंगे.एकात्म मानववाद के मंत्रद्रष्टा पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजनीति में भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के प्रतिनिधि थे. उनका स्थान सनातन भारतीय प्रज्ञा प्रवाह को आगे बढ़ानेवाले प्रज्ञा-पुरुषों में अग्रगण्य है. सादा जीवन उच्च विचार की प्रतिमूर्ति पंडित उपाध्याय के विचारों में देश की मिट्टी की सुवास को अनुभव किया जा सकता है. वह वास्तव में, राजनीति में ऋषि परंपरा के मनीषी थे.वह भारतीय जनसंघ से अवश्य जुड़े रहे, फिर भी दलीय संकीर्णताओं से ऊपर थे. राजनीति उनके लिए साध्य नहीं, समाज सेवा का साधन मात्र थी. अटलजी के अनुसार, ‘‘वह राजनीति का आध्यात्मीकरण चाहते थे. उनकी आस्थाएं प्राचीन अक्षय राष्ट्र जीवन की जड़ों से रस ग्रहण करती थीं, किंतु वह रूढ़िवादी नहीं थे.’ इतिहास के वर्तमान दौर में प. दीनदयाल उपाध्याय की पहचान भारतीय जनता पार्टी के मूल अवतार भारतीय जनसंघ के महान नेता के रूप में बनी है जबकि वह एक महान राष्ट्र नायक थे जिनका इस रूप में आकलन अभी राष्ट्र औरइतिहास को करना है उसी तरह जिस तरह डा. भीमराव अम्बेडकर की पहचान मात्र दलित नेता के रूप में आंकी गयी थी जबकि वह एक महान राष्ट्र नायक थे | मगर उनकी इस छवि का एहसास अभी भी अपेक्षित रूप से दिखाई नही देता | यह विडम्बना तो है किन्तु है तथ्य |’