आशीष रावत : आज देश में चारों ओर मोदी-मोदी की ही तूती बोल रही है। लगभग ऐसी ही स्थिति कभी पंडित नेहरू की भी हुआ करती थी। जब देश आजाद हुआ तो राष्ट्र की राजनीति में पंडित नेहरू की टक्कर के अनेक दिग्गज नेता मौजूद थे। जिन्हें या तो कांग्रेस छोड़नी पड़ी या फिर उन्हें पंडित नेहरू ने हाशिए पर पहुंचा दिया। यही स्थिति नरेन्द्र मोदी की भी है। उन्होंने अपनी पार्टी के अनेक दिग्गज नेताओं को मार्गदर्शक मंडल में बिठा दिया है। एक अन्य मुद्दे में पंडित नेहरू पर मोदी इसलिए भारी हैं कि जब पंडित नेहरू ने विभिन्न चुनाव लड़े तो उन्हें अनेक नेताओं का सहयोग प्राप्त था मगर मोदी ने सभी चुनाव अपने बलबूते पर लड़े। चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपने चहेते लोगों को विभिन्न प्रदेशों का मुख्यमंत्री बनाने में कोई संकोच नहीं किया। यह दोनों नेता देश की जनता से सीधा नाता जोड़ने में विश्वास रखते हैं और इसके लिए वह हिन्दी भाषा का उपयोग करते हैं। पंडित नेहरू के शासनकाल के अंतिम दिनों में भले ही विपक्षी सांसदों की कमी हो मगर धाकड़ विपक्षी नेताओं की कमी नहीं थी। मोदी के शासनकाल में विपक्ष छिन्न-भिन्न है और विपक्ष के पास कोई सर्वमाननीय राष्ट्रीय नेता नहीं है।
जहां तक विभिन्नताओं का संबंध है पंडित नेहरू हालांकि गुटनिरपेक्ष नीति का दावा किया करते थे मगर उनका झुकाव हमेशा रूस की ओर रहा। फिलीस्तीन से दोस्ती करने पर उनका विशेष ध्यान था। अमेरिका से उनके संबंध कभी भी मैत्रीपूर्ण नहीं रहे। इसका कारण यह है कि 1952 में अमेरिका भारत को विभिन्न सैनिक संधियों का भागीदार बनाना चाहता था। मगर पंडित नेहरू ने रूस के मुकाबले में बनाई जाने वाली इन सैनिक संधियों जैसे नाटो, सीटो में शामिल होने से इनकार कर दिया जबकि पाकिस्तान ने अमेरिका का हाथ थाम लिया। इस कारण अमेरिका ने भारत को नजरअंदाज करके पाकिस्तान को आर्थिक और सैनिक सहायता भरपूर मात्रा में दी। जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तो ब्रिटेन और अमेरिका को भारत की सहायता के लिए इसलिए मैदान में कूदना पड़ा क्योंकि वह चीन की विस्तारवादी नीतियों को अपने लिए खतरा समझते थे। भारत ने इसलिए भी रूस का साथ दिया क्योंकि कश्मीर के मुद्दे पर रूस ने हमेशा संयुक्त राष्ट्र संघ में वीटो के अधिकार का उपयोग दिया। रूस से प्रभावित होने के कारण पंडित नेहरू ने देश के विकास के लिए पंचवर्षीय योजना का सिलसिला शुरू किया जबकि मोदी ने शासन सम्भालते ही योजना आयोग को नीति आयोग में बदल दिया और पंचवर्षीय योजनाओं का सिलसिला खटाई में डाल दिया।
जहां तक आर्थिक नीति का संबंध है इन दोनों महानायकों की आर्थिक नीतियों में आकाश-पाताल का अंतर है। पंडित नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था पर जोर दिया। अर्थात् देश की अर्थव्यवस्था के तीन महत्वपूर्ण अंग स्टेट, सहकारी और निजी क्षेत्र थे। मोदी ने स्टेट सेक्टर और सहकारी सेक्टर को नजरअंदाज करके देश की समूची अर्थव्यवस्था निजी कम्पनियों के हवाले कर दी। नेहरू युग में विभिन्न वस्तुओं के मूल्यों पर नियंत्रण था ताकि बड़े-बड़े पूंजीपति मनमाना मुनाफा न कमा सकें जबकि मोदी ने मूल्य नियंत्रण को ताक पर रखकर उन्हें मुनाफा कमाने की खुली छूट दे दी। पंडित नेहरू ने शुरू से इस बात का प्रयास किया कि देश में अंधाधंुध विदेशी पूंजी निवेश ना हो क्योंकि वह देश की अर्थव्यवस्था को विदेशियों को बेचने के खिलाफ थे। मगर मोदी ने समूची देश की अर्थव्यवस्था के दरवाजे विदेशी कम्पनियों के लिए खोल दिए हैं। मोदी सरकार का यह भी प्रयास है कि जनता से संबंधित विभिन्न विभागों एवं कार्यक्रमों को सरकार के हाथ से लेकर निजी हाथों को सौंपा जाए। इसलिए विभिन्न सरकारी कम्पनियों के निजीकरण की प्रक्रिया तेज की गई है। पंडित नेहरू का पूरा जोर जनकल्याण योजनाओं पर था जबकि मोदी सरकार ने इन पर अधिक ध्यान देना कम कर दिया है। इन दोनों राष्ट्र नायकों की नीतियों में भी एक अंतर साफ है। पंडित नेहरू के शासनकाल में भ्रष्टाचार और घोटालों का सिलसिला शुरू हो गया था। इस संदर्भ में जीप घोटाला और जीवन बीमा निगम घोटाले का उल्लेख किया जा सकता है। नेहरू ने इन घोटालों को सख्ती से रोकने का कोई प्रयास नहीं किया। जबकि मोदी के शासनकाल में अभी कोई घोटाला सार्वजनिक नहीं हुआ। इन दोनों राष्ट्र नायकों में एक अंतर यह भी है कि नेहरू की विदेश नीति में रूस और उसके समर्थक देशों का बोलबाला था जबकि मोदी ने सभी देशों से दोस्ती गांठने का प्रयास किया है। एक ओर तो वह सउदी अरब से दोस्ती गांठ रहे हैं और दूसरी ओर इजरायल से भी वह मैत्रीपूर्ण संबंध बना चुके हैं।