के के शर्मा : अच्छा ज़रा सोच कर देखो क्या हो यदि देश में ऐसा कानून आ जाए जिसमें:
1. किसी भी हिंदू पर कोई गैर-हिंदू (मुस्लिम/क्रिस्चियन) कोई भी केस दर्ज कराता है तो उसकी तुरंत गिरफ्तारी की जाएगी और कंप्लेन दर्ज कराने वाले का नाम भी नहीं बताया जाएगा.
2. आरोपी के पास कोई अधिकार नही होंगे उस व्यक्ति के बारे में जानने का जिसने उसके खिलाफ मामला दर्ज कराया है.
3. अगर किसी मुस्लिम/क्रिस्चियन से किसी हिंदू ने व्यापार करने से मना किया तो वो कानूनन दंड का अपराधी होगा.
4. अगर आरोपी के ऊपर मामला झूठा सिद्ध हुआ तो उस पर IPC के अंतर्गत केस दर्ज नहीं किया जाएगा.
थर्रा गया न मन?
यदि 2014 में मोदी न आते तो यह सारी बातें एक कानून के अंतर्गत आपके ऊपर लागू हो जाती. यह कानून था कांग्रेस का जिसको बहुत कम लोग जानते हैं. इसको कहा गया था ‘प्रिवेंशन ऑफ कम्युनल एंड टार्गेटेड वोइलेंस बिल, 2011’
दरअसल 2004 का चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस ने सोनिया गाँधी के कहने पर नेशनल एडवाइजरी कॉउंसिल का गठन किया. यह कोई सरकारी संगठन नहीं था बल्कि पूरी तरह से प्राइवेट आर्गेनाईजेशन था जो सोनिया गाँधी के अंतर्गत काम करता था.
इस बिल के अंतर्गत हिंदुओं को सिर्फ जाती के आधार पर ही नहीं बल्कि उनकी भाषा और उनकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार भी बांटा जाता. इतना ही नहीं बल्कि इसके अंतर्गत आपकी तुरंत गिरफ्तारी के बाद ज़मानत का कोई प्रावधान नहीं था.
इस बिल को 2011 में ही पास करने का प्लान कांग्रेस का था मगर तब स्थितियां ठीक नहीं थी. तब उसने इसको 2012 में टाल दिया मगर तब तक अन्ना आंदोलन की आंधी आ गयी थी और उसके बाद 2013 में मोदी ने पूरा खेल पलट दिया. इसके बाद इस बिल को कांग्रेस ने ठंडे बस्ते में डाल दिया.
अब गलती से भी कांग्रेस सत्ता में आई तो ये बिल फिर पिछले दरवाजे से एक कानून के रूप में आपके सामने पेश कर देगी. वो आपसे सीधे वोट मांग नहीं सकते इसलिए आपको नोटा दबाने को कह रहे हैं.
आपका नोटा सिर्फ भाजपा का वोट काटेगा और कुछ नहीं. SC/ST एक्ट अब अब्दुल/अंथोनी पर भी लग गया है जो पहले नहीं था मगर एक भी अकबर/अंथोनी कांग्रेस को वोट देने की जगह नोटा दबाने को नहीं कह रहा. केवल अमर ही नोटा-नोटा चिल्ला रहा है.
खेल अब भी नहीं समझे?
SC/ST एक्ट में आज नहीं तो कल सुधार मोदी कर ही देंगे. आपका विरोध इसको बदलने के लिए और मजबूती देगा मगर यदि मोदी सत्ता से दूर हुए तो ये बिल आपका इंतजार कर रहा है. ये न केवल कांग्रेस के छूटे हुए मुस्लिम वोट उसको वापस दिलाएगा बल्कि उन क्षेत्रों में भी कोंग्रेस दोबारा खड़ी हो जाएगी जहाँ हिंदू बंटे हुए हैं.
हिंदू आतंकवाद ऐसे ही नहीं बोला गया था.
इस पूरे बिल को पूरा पढ़े
साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा अधिनियम,2011वीं शताब्दी का काला कानून
सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा प्रस्तावित इस विधेयक को केन्द्रीय सरकार ने स्वीकार कर लिया था। इस विधेयक का उद्देश्य बताया गया था कि यह देश में साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में सहायक सिद्ध होगा। इसको अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि यदि दुर्भाग्य से यह पारित हो जाता तो इसके परिणाम केवल विपरीत ही नहीं होते अपितु देश में साम्प्रदायिक विद्वेष की खाई इतनी चौडी हो जाती जिसको पाटना असम्भव हो जाता। यहां तक कि एक प्रमुख सैक्युलरिस्ट पत्रकार, शेखर गुप्ता ने भी स्वीकार किया था कि,”इस बिल से समाज का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण होता। इसका लक्ष्य अल्पसंख्यकों के वोट बैंक को मजबूत करने के अलावा हिन्दू संगठनों और हिंदू नेताओं का दमन करना था। जिस प्रकार सरकार की रुचि भ्रष्टाचार को समाप्त करने की जगह भ्रष्टाचार को संरक्षण देकर उसके विरुद्ध आवाज उठाने वालों के दमन में है,उसी प्रकार यह सरकार साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने की जगह हिंसा करने वालों को संरक्षण और उनके विरुद्ध आवाज उठाने वाले हिंदू संगठनों और उनके नेताओं को इसके माध्यम से कुचलना चाहती थी। इस अधिनियम के माध्यम से केन्द्र राज्य सरकारों के कार्यों में हस्तक्षेप कर देश के संघीय ढांचे को ध्वस्त कर देती। यह भारतीय संविधान की मूल भावना को तहस-नहस करता हुआ भी दिखाई दे रहा था। यह अधिनियम एक नई तानाशाही को तो जन्म देता ही, यह हिन्दू समाज की भावनाओं और उनको वाणी देने वाले हिन्दू संगठनों को भी कुचल देता।
जिस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अनुशंसा (आदेश) पर इस विधेयक को लाया जा रहा था, वह एक समानांतर सरकार की तरह काम कर रही थी। यह न तो एक चुनी हुई संस्था है और न ही इसके सभी सदस्य जनता के द्वारा चुने गये प्रतिनिधी थे। सरकार जो तर्क “सिविल सोसाईटी” या अन्य जन संगठनों के विरुद्ध प्रयोग करती है, वह स्वयं उस के विपरीत आचरण कर रही थी। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद एक असंवैधानिक महाशक्ति है जो बिना किसी जवाबदेही के सलाह की आड में आदेश देती थी। केन्द्र सरकार दासत्व भाव से उनके आदेशों को लागू करने के लिये हमेशा ही तत्पर रहती थी। जिस ड्राफ्ट कमेटी ने इस विधेयक को बनाया था, उसके सदस्यों के चरित्र का विचार करते ही उनकी नीयत के बारे में किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रहती है। इस समिती में 9 सद्स्य और उनके 4 सलाहकार थे । इन सब में समानता के यही बिंदू थी कि ये सभी हिंदू संगठनों के घोर विरोधी थे , हमेशा गुजरात के हिन्दू समाज को कटघरे में खडा करने के लिये तत्पर रहते थे और अल्पसंख्यकों के हितों का एकमात्र संरक्षक दिखने के लिये देश को भी बदनाम करने में संकोच नहीं करते। हर्ष मंडेर रामजन्मभूमि आन्दोलन और हिन्दू संगठनों के घोर विरोधी हैं। अनु आगा जो कि एक सफल व्यवसायिक महिला हैं, गुजरात में मुस्लिम समाज को उकसाने के कारण ही एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचानी जाती । तीस्ता सीतलवाड और फराह नकवी की गुजरात में भूमिका सर्वविदित है। उन्होंने न केवल झूठे गवाह तैय्यार किये थे अपितु देश विरोधियों से अकूत धनराशी प्राप्त कर झूठे मुकदमे दायर किये थे और जांच प्रक्रिया को प्रभावित करने का संविधान विरोधी दुष्कृत्य किया था। आज इनके षडयंत्रों का पर्दाफाश हो चुका है, ये स्वयं न्याय के कटघरे में कभी भी खडे हो सकते है। ये लोग अपनी खीज मिटाने के लिये किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। जो काम वे न्यायपालिका के माध्यम से नहीं कर सके ,ऐसा लगता है वे इस विधेयक के माध्यम से करना चाहते हैं। एक प्रकार से इन्होनें अपने कुत्सित इरादों को पूरा करने के लिये चोर दरवाजे का प्रयोग किया है। इनके घोषित-अघोषित सलाहकारों के नाम इनका भंडाफोड करने के लिये पर्याप्त हैं।” मुस्लिम इन्डिया” चलाने वाले सैय्यद शहाबुद्दीन, धर्मान्तरण करने के लिये विदेशों में भारत को बदनाम करने वाले जोन दयाल , हिन्दू देवी-देवताओं का खुला अपमान करने वाली शबनम हाशमी और नियाज फारुखी जिस समिती के सलाहकार हों , वह कैसा विधेयक बना सकते हैं इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। भारत के बडबोले मंत्री, कपिल सिब्बल द्वारा इस अधिनियम को सार्वजनिक करते हुए गुजरात के दंगों और उनमें सरकार की कथित भूमिका का उल्लेख करना सरकार की नीयत को स्पष्ट करता है। ऐसा लगता है कि सारी सैक्युलर ब्रिगेड मिलकर जो काम नहीं कर सकी, उसे सोनिया इस विधेयक के माध्यम से पूरा करना चाहती थी। गुजरात के संदर्भ में सभी कसरतें व्यर्थ जा रही थी। आरोप लगाने वाले स्वयं आरोपित बनते जा रहे हैं। कानून के शिकंजे में फंसने की दहशत से वे मरे जा रहे हैं। इस अधिनियम का प्रारूप देखने से ऐसा लगता है मानो उन्हीं चोट खाये इन तथाकथित मानवाधिकारवादी ने इसको बनाने के लिये अपनी कलम चलाई थी। इस विधेयक को सार्वजनिक करने का समय बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ दिन पूर्व ही अमेरिका के ईसाईयत के प्रचार के लिये बदनाम “अंतर्राष्ट्रीय धर्म स्वातंत्र्य आयोग” ने भारत को अपनी निगरानी सूची में रखा था। उन्होंनें भी गुजरात और ओडीसा के उदाहरण दिये हैं।मानावधिकार का दलाल अमेरिका मानवाधिकारों के सम्बंध में अमेरिका का दोगलापन जगजाहिर है। इस आयोग को चिंता है ओडिसा और गुजरात की घटनाओं की, परन्तु उसको कश्मीर के हिन्दुओं या मणिपुर और त्रिपुरा में ईसाई संगठनों द्वारा हिन्दुओं के नरसंहारों की चिंता क्यों नहीं होती? इससे भी बडे दुर्भाग्य का विषय यह है कि भारत के किसी सैक्युलर नेता नें अमेरिका को धमकाकर यह नहीं कहा कि उसको भारत के आन्तरिक मामलों में दखल देने का अधिकार नहीं है। भारत के मुस्लिम और ईसाई संगठनों नें इसका स्वागत किया था। इससे उनकी भारत बाह्य निष्ठा स्पष्ट होती है। इस बदनाम आयोग की रिपोर्ट के तुरन्त बाद इस विधेयक को सार्वजनिक करना, ऐसा लगता मानों ये दोनों एक ही जंजीर की दो कडिया हैं। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के गलत इरादों का पता इसी बात से लगता है कि इन्होंनें साम्प्रदायिक दंगों के कारणों का विश्लेषण भी नहीं किया। ड्राफ्ट समिति की स्दस्य अनु आगा ने अप्रैल ,2002 में कहा था,” यदि अल्पसंख्यकों को पहले से ही तुष्टीकरण और अनावश्यक छूटें दी गई हैं तो उस पर पुनर्विचार करना चाहिये। यदि ये सब बातें बहुसंख्यकों के खिलाफ गई हैं तो उनको वापस लेने का साहस होना चाहिये। इस विषय पर सार्वजनिक बहस होनी चाहिये।’(इन्डियन एक्स.,8 अप्रैल,2002) इन नौ वर्षों में अनु आगा ने इस विषय में कुछ नहीं किया। शायद उन्हें मालूम चल गया था कि यदि सत्य सामने आ गया तो ऐसा अधिनियम बनाना पडेगा जो प्रस्तावित अधिनियम के बिल्कुल विपरीत होगा।
यह अधिनियम विदेशी शक्तियों के इशारे पर ही लाया गया था। ऐसा लगता है कि एक अन्तर्राष्ट्रीय षडयंत्र के आधार पर हिन्दू समाज, हिन्दू संगठनों और हिन्दू नेताओं को शिकंजे में कसने का प्रयास किया जा रहा था।
इस विधेयक के कुछ खतरनाक प्रावधान निम्नलिखित थे-
[1] यह विधेयक साम्प्रदायिक हिंसा के अपराधियों को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर बांटने का अपराध करता है। किसी भी सभ्य समाज या सभी राष्ट्र में यह वर्गीकरण स्वीकार्य नहीं होता। अभी तक यही लोग कहते थे कि अपराधी का कोई धर्म नहीं होता। अब इस विधेयक में क्यों साम्प्रदायिक हिंसा के अल्पसंख्यक अपराधियों को दंड से मुक्त रखा गया है? प्रस्तावित विधेयक का अनुच्छेद 8 अल्प्संख्यकों के विरुद्ध घृणा का प्रचार अपराध मानता है। परन्तु हिन्दुओं के विरुद्ध इनके नेता और संगठन खुले आम दुष्प्रचार करते हैं। इस विधेयक में उनको अपराधी नहीं माना गया है। इनका मानना है कि अल्पसंख्यक समाज का कोई भी व्यक्ति साम्प्रदायिक तनाव या हिंसा के लिये दोषी नहीं है। वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में इनके धार्मिक नेताओं के भाषण व लेखन अन्य धर्मावलम्बियों के विरुद्ध विषवमन करते हैं। भारत में भी कई न्यायिक निर्णयों और आयोगों की रिपोर्टों में इनके भाषणों और कृत्यों को ही साम्प्रदायिक तनाव के मूल में बताया गया है। ओडीसा और गुजरात की जिन घटनाओं का ये बार-बार प्रलाप करते हैं, उनके मूल में भी आयोगों और न्यायालयों नें अल्पसंख्यकों की हिंसा को पाया है। मूल अपराध को छोडकर प्रतिक्रिया वाले को ही दंडित करना न केवल देश के कानून के विपरीत है अपितु किसी भी सभ्य समाज की मान्यताओं के खिलाफ है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में कथित अल्पसंख्यक समाज द्वारा हिंदू समाज पर 1,50,000 से अधिक हमले हुए हैं तथा हिन्दुओं के मंदिरों पर लगभग 500 बार हमले हुए हैं। 2010 में बंगाल के देगंगा में हिंदुओं पर किये गये अत्याचारों को देखकर यह नहीं लगता कि यह भारत का कोई भाग है। बरेली और अलीगढ में हिन्दू समाज पर हुए हमले ज्यादा पुराने नहीं हुए हैं। एक विदेशी पत्रकार द्वारा विदेश में ही पैगम्बर साहब के कार्टून बनाने पर भारत में कई स्थानों पर हिन्दुओं पर हमले किसी से छिपे नहीं हैं। अपराधी को छोडना और पीडित को ही जिम्मेदार मानना क्या किसी भी प्रकार से उचित माना जा सकता है? एक अन्य सैक्युलर नेता,सैम राजप्पा ने लिखा है,” आज जबकि देश साम्प्रदायिक हिंसा से मुक्ति चाहता है, यह अधिनियम मानकर चलता है कि साम्प्रदायिक दंगे बहुसंख्यक के द्वारा होते हैं और उनको ही सजा मिलनी चाहिये। यह बहुत भेदभावपूर्ण है।”(दी स्टेट्समैन, 6 जून, 2011)
[2] अनुच्छेद 7 के अनुसार यदि एक मुस्लिम महिला के साथ दुर्व्यवहार होता है तो वह अपराध है, परन्तु हिन्दू महिला के साथ किया गया बलात्कार अपराध नहीं है जबकि अधिकांश दंगों में हिन्दू महिला की इज्जत ही निशाने पर रहती है।
[3] जिस समुदाय की रक्षा के बहाने से इस शैतानी विधेयक को लाया गया है, उसको इस विधेयक में” समूह” का नाम दिया है। इस समूह में कथित अल्पसंख्यकों के अतिरिक्त अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भी शामिल किया गया है। क्या इन वर्गों में परस्पर संघर्ष नहीं होता? शिया-सुन्नी के परस्पर खूनी संघर्ष जगजाहिर हैं। इसमें किसकी जिम्मेदारी तय करेंगे? अनुसूचित जातियों के कई उपवर्गों में कई बार संघर्ष होते हैं,हालांकि इन संघर्षों के लिये अधिकांशतः ये सैक्युलर बिरादरी के लोग ही जिम्मेदार होते हैं। इन सबका यह मानना है कि उनकी समस्याओं का समाधान हिंदू समाज का अविभाज्य अंग बने रहने में ही हो सकता है। यह देश की अखण्डता और
हिन्दू समाज को भी विभक्त करने का षडयंत्र है। इन दंगों की रोकथाम क्या इस अधिनियम से हो पायेगी? इन संघर्षों को रोकने के लिये जिस सदभाव की आवश्यकता होती है, इस कानून के बाद तो उसकी धज्जियां ही उधडने वाली हैं।
[4] इस विधेयक में बहुसंख्यक हिन्दू समाज को कट्घरे में खडा किया गया है। सोनिया को ध्यान रखना चाहिये कि हिन्दू समाज की सहिष्णुता की इन्होनें कई बार तारीफ की है। कांग्रेस के एक अधिवेशन में इन्होनें कहा था कि भारत में हिन्दू समाज के कारण ही सैक्युलरिज्म जिंदा है और जब तक हिन्दू रहेगा भारत सैक्युलर रहेगा। विश्व में जिसको भी प्रताडित किया गया, उसको हिंदू नें शरण दी है। जब यहूदियों, पारसियों और सीरियन ईसाइयों को अपनी ही जन्मभूमि में प्रताडित किया गया था तब हिन्दू ने ही इनको शरण दी थी। अब उसी हिन्दू को निशाना बनाने की जगह साम्प्रदायिक तनावों के मूल को समझना चाहिये। सोनिया को वोट बैंक की चिंता छोडकर देशहित का विचार करना चाहिये। यदि ये सहिष्णु हिन्दू समाज को एक नरभक्षी दानव के रूप में दिखायेंगे तो साम्प्रदायिक वैमनस्य की खाई और चैडी हो जायेगी जिसे कोई नहीं पाट सकेगा। सलाहकार परिषद के ही एक सदस्य, एन.सी. सक्सेना ने कहा था ,” यदि अल्पसंख्यक समुदाय के किसी व्यक्ति द्वारा बहुसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति पर अत्याचार होता है तो यह विषय भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत आयेगा, प्रस्तावित अधिनियम में नहीं।” (दी पायनीयर, 23 जून, 2011) इस कानून का संरक्षण केवल बहुसंख्यक समाज के लिये नहीं , अल्पसंख्यक समाज के लिये भी है। फिर इस अधिनियम की आवश्यक्ता ही क्या है? क्या इससे उनके इरादों का पर्दाफाश नहीं हो जाता ?
[5] इस विधेयक में साम्प्रदायिक हिंसा की परिभाषा दी है,” वह कृत्य जो भारत के सैक्युलर ताने बाने को तोडेगा।” भारत में सैक्युलरिज्म की परिभाषा अलग-अलग है। भारतीय संविधान में या इस विधेयक में कहीं भी इसे परिभाषित नहीं किया गया। क्या अफजल गुरू को फांसी की सजा से बचाना,आजमगढ जाकर आतंकियों के हौंसले बढाना, बटला हाउस में पुलिस वालों के बलिदान को अपमानित कर आतंकियों की हिम्मत बढाना,मुम्बई हमले में बलिदान हुए लोगों के बलिदान पर प्रश्नचिंह लगाना, मदरसों में आतंकवाद
के प्रशिक्षण को बढावा देना, बंग्लादेशी घुसपैठियों को बढावा देना सोनिया की निगाहों में सैक्युलरिज्म है और इनके विरुद्ध आवाज उठाना सैक्युलर ताने-बाने को तोडना ? ये लोग सैक्युलरिज्म की मनमानी परिभाषा देकर क्या देशभक्तों को प्रताडित करना चाहते हैं ?
[6] विधेयक के उपबंध 74 के अनुसार यदि किसी व्यक्ति के ऊपर घृणा सम्बन्धी प्रचार या साम्प्रदायिक हिंसा का आरोप है तो उसे तब तक दोषी माना जायेगा जब तक कि वह निर्दोष सिद्ध न हो जाये। यह उपबंध संविधान की मूल भावना के विपरीत है। भारत का संविधान कहता है कि जब तक अपराध सिद्ध न हो जाये तब तक आरोपी निर्दोष माना जाये। यदि यह विधेयक पास हो जाता है तो किसी को भी जेल में भेजने के लिये उस पर केवल आरोप लगाना पर्याप्त रहेगा। उसके लिये अपने आप को निर्दोष सिद्ध करना कठिन ही नहीं असम्भव हो जायेगा। इस विधेयक में यह भी प्रावधान है कि अगर किसी हिन्दू के किसी व्यवहार से उसे मानसिक कष्ट हुआ है तो वह भी प्रताडना की श्रेणी में आयेगा। इसका अर्थ है कि अब किसी अल्पसंख्यक नेता के कुकृत्य या देश विरोधी काम के बारे में नहीं कहा जा सकता।
[7] यदि किसी राज्य के कर्मचारी के विरुद्ध इस प्रकार का आरोप है तो उसके लिये उस राज्य का मुख्यमंत्री भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि वह उसे नहीं रोक सका है। इसका अर्थ है कि अब झूठी गवाही के आधार पर किसी भी विरोधी पक्ष के मुख्यमंत्री को फंसाना अब ज्यादा आसान हो जायेगा। जो मुख्यमंत्री अब तक इनके जाल में नहीं फंस पा रहे थे, अब उनके लिये जाल बिछाना ज्यादा आसान हो जायेगा।
[8] यदि किसी संगठन का कोई कार्यकर्ता आरोपित है तो उस संगठन का मुखिया भी जिम्मेदार होगा क्योंकि वह भी इस अपराध में शामिल माना जायेगा। अब ये लोग किसी भी हिंदू संगठन व उनके नेताओं को आसानी से जकड सकेंगे। कसर अब भी नहीं छोड रहे परन्तु अब वे अधिक मजबूती से इन पर रोक लगा कर मनमानी कर सकेंगे।
[9] यदि दुर्भाग्य से यह विधेयक पास हो जाता है तो राज्य सरकार के अधिकारों को केन्द्र सरकार आसानी के साथ हडप सकती है। कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय होती है। केन्द्र सरकार ऐसे विषयों पर सलाह दे सकती है या “एड्वाइजरी” जारी कर सकती है। इससे भारत का संघीय ढांचा सुरक्षित रहता है। परन्तु अब संगठित साम्प्रदायिक और किसी सम्प्रदाय को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली हिंसा राज्य के भीतर आंतरिक उपद्रव के रूप में देखी जायेगी। पहले केन्द्र सरकार की मंशा अनुच्छेद 355 का उपयोग कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की थी। परन्तु अब इस कदम को वापस लेकर वे राजनीतिक दलों के विरोध की धार को कुंद करना चाहते हैं। परन्तु इनके राज्य सरकारों को कुचलने के इरादों में कोई कमी नहीं आयी है।
[10] प्रस्तावित अधिनियम में निगरानी व निर्णय लेने के लिये जिस प्राधिकरण का प्रावधान है उसमें 7 सदस्य होंगे। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष समेत इन 7 में से 4 सदस्य अल्पसंख्यक वर्ग के होंगे। क्या इससे परस्पर अविश्वास नहीं बढेगा? इसका मतलब यह स्पष्ट है कि हर व्यक्ति ,चाहे किसी भी पद पर हो, केवल अपने समुदाय की चिंता करता है। इस चिंतन का परिणाम क्या होगा इस पर देश को अवश्य विचार करना होगा। किसी न्यायिक प्राधिकरण का साम्प्तदायिक आधार पर विभाजन देश को किस ओर ले जायेगा ?
[11] इस प्राधिकरण को असीमित अधिकार दिये गये हैं। ये न केवल पुलिस व सशस्त्र बलों को सीधे निर्देश दे सकते हैं अपितु इनके सामने दी गई गवाही न्यायालय के सामने दी गई गवाही मानी जायेगी। इसका अर्थ है कि तीस्ता जैसी झूठे गवाह तैय्यार करने वाली अब अधिक खुल कर अपने षडयंत्रों को अन्जाम दे सकेंगी।
[12] अनुच्छेद 13 सरकारी कर्मचारियों पर इस प्रकार शिकन्जा कसता है कि वे मजबूरन अल्पसंख्यकों का साथ देने के लिये मजबूर होंगे चाहे वे ही अपराधी क्यों न हों।
[13] यदि यह विधेयक लागू हो जाता है तो किसी भी अल्पसंख्यक व्यक्ति के लिये किसी भी बहुसंख्यक को फंसाना बहुत आसान हो जायेगा। वह केवल पुलिस में शिकायत दर्ज करायेगा और पुलिस अधिकारी को उस हिन्दु को बिना किसी आधार के भी गिरफ्तार करना पडेगा। वह हिन्दू किसी सबूत की मांग नहीं कर सकता क्योंकि अब उसे ही अपने को निरपराध सिद्ध करना है। वह शिकायतकर्ता का नाम भी नहीं पूछ सकता। अब पुलिस अधिकारी को ही इस मामले की प्रगति की जानकारी शिकायतकर्ता को देनी है जैसे कि वह उसका अधिकारी हो। शिकायतकर्ता अगर यह कहता है कि आरोपी के किसी व्यवहार, कार्य या इशारे से वह मानसिक रूप से पीडित हुआ है तो भी आरोपी दोषी माना जायेगा। इसका अर्थ है कि अब कोई भी किसी मौलवी या किसी पादरी के द्वारा किये गये किसी दुष्प्रचार की शिकायत भी नहिं कर सकेगा न ही वह उनके किसी घृणास्पद साहित्य का विरोध कर सकेगा।
[14] इस विधेयक के अनुसार अब पुलिस अधिकारी के पास असीमित अधिकार होंगे। वह जब चाहे आरोपी हिन्दू के घर की तलाशी ले सकता है। यह अंग्रेजों के द्वारा लाये गये कुख्यात रोलेट एक्ट से भी खतरनाक सिद्ध हो सकता है।
[15] इस विधेयक की धारा 81 में कहा गया है कि ऐसे मामलों नियुक्त विशेष न्यायाधीश किसी अभियुक्त के ट्रायल के लिये उसके समक्ष प्रस्तुत किये बिना भी उसका संज्ञान ले सकेगा और उसकी संपत्ति को भी जब्त कर सकेगा।
[16] किसी अल्पसंख्यक के व्यापार में बाधा डालना भी इसमें अपराध है। यदि कोई मुसलमान किसी हिंदू की सम्पत्ति को खरीदना चाहता है और वह हिंदू मना करता है तो इसमें वह अपराध बन जायेगा।
[17] अब हिन्दू को इस अधिनियम में इस कदर कस दिया जायेगा कि उसको अपने बचाव का एक ही रास्ता दिखाई देगा कि वह धर्मांतरण को मजबूर हो जायेगा। इसके कारण धर्मांतरण की गतिविधियों में जबर्दस्त तेजी आयेगी। इस विधेयक के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों का ही विश्लेषण किया जा सका है। जैसा चित्र अभी तक सामने आया है यदि यह पास हो जाता है तो परिस्थिती और भी भयावह होगी। आपात काल में किये गये मनमानीपूर्ण निर्णय भी फीके पड जायेंगे। हिन्दू का हिन्दू के रूप में रहना और भी मुश्किल हो जायेगा। मनमोहन सिंह ने पहले ही कहा था कि देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार है। यह विधेयक इस कथन का नया संस्करण है। इस विधेयक के विरोध में एक सशक्त आंदोलन खडा करना पडेगा तभी इस तानाशाहीपूर्ण कदम पर रोक लगाई जा सकती है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू) सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा विधेयक की रोकथाम के बारे में 2011
Q1. सांप्रदायिक हिंसा को रोकने वाले बिल का पूरा नाम क्या था?
उत्तर: सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा (न्याय और reparations प्रवेश) विधेयक, 2011 की …रोकथाम.
Q1a: क्या यह पूरे भारत में लागू होता?
उत्तर: हाँ, लेकिन यह जम्मू और कश्मीर के राज्य मे लागू नहीं होता.
Q2. कौन इस बिल के मसौदा को तैयार करवा रहा था?
उत्तर: राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) इसकी अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के नेतृत्व किया जा रहा था।
Q.3 राष्ट्रीय सलाहकार परिषद क्या है?
उत्तर: राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) केन्द्रीय सरकार के एक आदेश द्वारा गठित किया गया था. यह एक संविधानेतर एक सुपर संसद के रूप में था. इसमे 22 सदस्यों को चुना गया था। जो लोग इसमे मूल रूप से कर रहे थे वह श्रीमती सोनिया गांधी द्वारा चुने गये थे.वे सभी कांग्रेस समर्थक ,हिंदू विरोधी लोग विभिन्न सरकारी संगठनों वे (गैर सरकारी संगठनों) से संबंधित इन लोग को जैसे हर्ष Mander, तीस्ता Setalvad (जो प्रारूपण समिति के सदस्य थे वह भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा तय किया गये थे। झूठी कथाएँ, झूठे गवाहों और मामलों में माननीय न्यायालय के समक्ष गुजरात में झूठे शपथ – पत्र प्रस्तुत करने के लिए जिम्मेदार ठहराया थे।)
प्रश्न 4 इस बिल को कहां प्रस्तुत किया जाना था?
उत्तर: 2011 में संसद के मानसून सत्र में इसे कानून बनाने के लिए इस बिल को प्रस्तुत किया जाना था।
Q.5 इस बिल के बारे में क्या आप को पता है?
उत्तर: जैसा कि नाम से पता चलता है, इस विधेयक को देश में सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के उद्देश्य से लाया जा रहा था. यह उन लोगों को जो साम्प्रदायिक हिंसा किसी ‘समूह’ यानी अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के खिलाफ सज़ा करना है.
Q5a. अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अत्याचार की रोकथाम के लिए कोई अन्य अधिनियम है?
उत्तर: हाँ, (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989
Q.6 इस विधेयक के अनुसार, जो हमेशा अपराधी है?
उत्तर: बहुसंख्यक समुदाय (पढ़ें हिंदुओं).
Q.7 इस विधेयक के अनुसार, जो एक शिकार है?
उत्तर: अल्पसंख्यक समुदाय यानी मुसलमानों, ईसाई और अन्य अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति.
Q.8 गवाह कौन है?
उत्तर: कोई भी व्यक्ति जो अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बंधित ( मुस्लिम, ईसाई और अन्य अल्पसंख्यकों) और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के खिलाफ सांप्रदायिक अशांति जैसे मामले में इस अधिनियम के बारे में जानकारी रखता हे।
Q.9 जो दंगा करने वालो के खिलाफ़ पुलिस मे शिकायत दर्ज कर सकते हैं?
उत्तर: केवल अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम, ईसाई और अन्य अल्पसंख्यकों) और अनुसूचित जाति के सदस्यों, अनुसूचित जनजाति पुलिस के साथ एक शिकायत दर्ज कर सकते हैं.
बहुसंख्यक समुदाय (हिंदुओं पढ़ें) के सदस्य एक शिकायत नहीं दर्ज कर सकते हैं.
Q.10 एक बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य की गिरफ्तारी (हिंदू पढ़ें) के लिए आवश्यक सबूत है?
उत्तर: कोई भी सबूत जो कि बहुसंख्यक समुदाय (पढ़ें हिंदू) के सदस्य की गिरफ्तारी के लिए आवश्यक है. यदि हिंदू अल्पसंख्यक समुदाय के एक व्यक्ति के खिलाफ शिकायत करता है. इस प्रकार यह आपराधिक कानून के बुनियादी सिद्धांत है जो कहता है हर कोई निर्दोष है जब तक दोषी साबित के खिलाफ है. यहाँ बहुसंख्यक समुदाय (हिंदू पढ़ा) के सदस्य दोषी है जब तक वह अपनी बेगुनाही को साबित नही कर देता है.
Q.11 क्या सांप्रदायिक दंगो का शिकायतकर्ता अल्पसख्यक ही होगा?
उत्तर: निश्चित रूप से हाँ. पुलिस मे केवल अल्पसंख्यकों जो बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों के खिलाफ दर्ज कराई (हिंदुओं पढ़ें) की शिकायत ले जाएगा.
Q.12 कौन इस बिल के तहत गिरफ्तार किया जा सकता है ?
उत्तर: यदि एक संघ (जो हिंदू है) के सदस्य अल्पसंख्यको के खिलाफ किसी को भी अपराध मे नाम लेने पर (पढ़ें हिंदू) उनका सदस्य माना जाएगा और उसको गिरफ्तार किया जा सकता है.
जैसे व्यवहार में यह मतलब होगा कि अगर एक लोक सेवक किसी भी अपराध के साथ चार्ज किया जाता है, राज्य के मुख्यमंत्री को भी गिरफ्तार किया जा सकता है.
जैसे व्यवहार में यह भी मतलब होगा कि अगर किसी भी अखबार में एक अल्पसंख्यक नेता की ओर से शिकायत है कि उसे इस भाषण मे नफ़रत की रिपोर्ट प्रकाशित करने से उसे मानसिक रूप से चोट लगी है तो इस प्रकार भी संपादक, मालिक, प्रकाशक, अखबार के संवाददाता को भी गिरफ्तार किया जा सकता है।
Q.13 प्रस्तावित अधिनियम के तहत अपराध क्या था?
उत्तर: कोई अल्पसंख्यक समुदाय ( मुस्लिम, ईसाई, अन्य अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति) के सदस्यों के खिलाफ बहुसंख्यक समुदाय (पढ़ें हिंदुओं) के सदस्यों द्वारा किये गये कार्य से नफरत प्रचार, यातना, चोट, हत्या, यौन उत्पीड़न,सांप्रदायिक हिंसा आदि दंगों की एक घटना में एक अपराध है.
Q.14 अगर बहुसंख्यक समुदाय का एक सदस्य (पढ़ें हिंदू) घायल हो जाता है या हत्या या उसके घर को आग या उसकी पत्नी के साथ बलात्कार, यह इस प्रस्तावित अधिनियम के तहत एक अपराध था?
उत्तर: नहीं, बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य किसी भी क्रूरता का शिकार हो तो भी (हिंदुओं पढ़ें) एक अपराध नहीं है. बहुसंख्यक समुदाय (हिंदू पढ़ा) के सदस्य इस प्रस्तावित अधिनियम के तहत शिकायत नहीं दर्ज कर सकते थे.
Q.15 यदि एक मुस्लिम किसी दुसरे घायल या उसपर अत्याचार या उस मुस्लिम को मारता है, यह इस प्रस्तावित अधिनियम के तहत एक अपराध था?
उत्तर: नहीं, यह इस प्रस्तावित अधिनियम के तहत एक अपराध नहीं है.यदि शत्रुतापूर्ण वातावरण ना हो।
Q.16 अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति से नफरत,या उसके खिलाफ दुष्प्रचार इस अधिनियम के तहत एक अपराध है?
उत्तर: ये सवाल कुछ अस्पष्ट बात की ओर संदर्भ कर रहे हैं ।ओर इसका मोटे तौर पर दुरुपयोग किया जा सकता है है. निम्नलिखित स्थितियों शामिल हो सकते हैं:
i. यदि बहुसंख्यक समुदाय (पढ़ें हिंदू) के सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय के एक मुस्लिम अर्थात सदस्य के लिए किराए पर एक कमरा दे्ने के लिए मना कर दिया, मुस्लिम बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य के खिलाफ शिकायत (हिंदू पढ़ा)दर्ज कर सकते हैं क्योंकि वह एक मुसलमान था इस लिये उसे कमरा देने से इनकार कर दिया था . बहुसंख्यक समुदाय (हिंदू पढ़ा) के सदस्य इस प्रकार गिरफ्तार किया जा सकता है. अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम पढ़ा) के सदस्य के कोई सबूत देने की जरूरत नहीं है. हिंदू साबित होता है कि वह निर्दोष है और कोई गलत प्रतिबद्ध है.
द्वितीय. इसी प्रकार यदि बहुसंख्यक समुदाय के एक सदस्य (पढ़ें हिंदू) व्यापारी के अल्पसंख्यक समुदाय के एक सदस्य (मुसलमान पढ़ें) आपूर्तिकर्ता से एक मुसलमान ने एक शिकायत पर कच्चे माल खरीदने के लिए मना कर दिया है, हिंदू बिना सबूत गिरफ्तार किया जा सकता है.
iii. या धर्मों पर एक चर्चा संगोष्ठी के मामले में, कट्टरवाद, आतंकवाद आदि अल्पसंख्यक समुदाय (मुस्लिम पढ़ने के) के एक सदस्य उन आयोजकों के खिलाफ शिकायत दर्ज कर सकते हैं और उन्हें उनके खिलाफ शत्रुतापूर्ण वातावरण के निर्माण के लिए गिरफ्तार कर लिया. यह स्वतंत्रता भाषण और अभिव्यक्ति संविधान के खिलाफ की गारंटी के मौलिक अधिकार के खिलाफ है.
iv. यदि एक समाचार पत्र के किसी भी राज्य में सांप्रदायिक हिंसा के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित, अल्पसंख्यक के किसी भी सदस्य उनके खिलाफ शत्रुतापूर्ण माहौल बनाने के लिए समाचार पत्र के खिलाफ शिकायत और उनकी गिरफ्तारी के लिए नेतृत्व कर सकते हैं।
Q.17 कौन प्रस्तावित अधिनियम के प्रावधानों को लागू करेंगे?
उत्तर: संक्षेप में राष्ट्रीय साम्प्रदायिक सद्भाव, न्याय और हर्जाने के लिए राष्ट्रीय प्राधिकर्ण.
Q.18 कौन राष्ट्रीय प्राधिकरण के सदस्य थे?
उत्तर: इस मे 7 सदस्यों होते हैं. अध्यक्ष और वाइस अध्यक्ष सहित सात सदस्यों मे 4 हमेशा अल्पसंख्यक समुदाय, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति से होते हे.
इसका मतलब यह है कि बिल मानता है कि केवल अल्पसंख्यकों अल्पसंख्यकों के साथ न्याय कर सकते हैं. यह एक खतरनाक आधार के रूप में इसका मतलब है कि एक न्यायाधीश या राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या किसी अन्य लोक सेवक हमेशा अपने धर्म के अनुसार कार्य करता है.
Q.20 क्या राष्ट्रीय प्राधिकरण के अध्यक्ष या वाइस अध्यक्ष बहुसंख्यक समुदाय से चुना जा सकता था?
उत्तर: नहीं अध्यक्ष और वाइस अध्यक्ष कभी हिंदुओं मे से नही चुने जाते.
Q.21 राष्ट्रीय प्राधिकरण की शक्तियां क्या थी?
उत्तर: राष्ट्रीय प्राधिकरण सांप्रदायिक हिंसा या यहां तक कि भारत के किसी भी भाग में सांप्रदायिक हिंसा की प्रत्याशा के मामले में लगभग असीमित अधिकार है.
राष्ट्रीय प्राधिकरण पोस्टिंग की निगरानी, सरकारी सेवकों के पुलिस सहित स्थानान्तरण, सुरक्षा बलों आदि भी सांप्रदायिक हिंसा की आशंका के अल्पसंख्यकों के खिलाफ मामले में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति.वे भी पुलिस, सुरक्षा, और सशस्त्र बलों के लिए निर्देश दे सकता है.
इसका मतलब यह भी है कि एक छोटी, तुच्छ जानकारी के आधार पर, राष्ट्रीय प्राधिकरण राज्य सरकार की सभी शक्तियों ले सकते हैं और राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप कर सकते हैं.
इसके अलावा राष्ट्रीय प्राधिकरण को अधिकार है ओर शक्ति है कि यह एक सिविल कोर्ट मे किसी को बुलाना उपस्थिति, सबूत प्राप्त कर सकते हैं, गवाह या दस्तावेजों की जांच है, और अन्य सभी एक मामले की सुनवाई के दौरान करने की शक्ति इसके पास है.
प्रत्येक राज्यों सरकार ने राज्य स्तर पर ऐसे अधिकारियों को भी माना जाएगा.
Q.22 प्राधिकरण के एक सदस्य बनने की योग्यता क्या थी?
उत्तर: नेशनल अथॉरिटी के एक सदस्य बनने के लिए, एक व्यक्ति को हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश की जरूरत नहीं है. उस व्यक्ति का सद्भाव को बढ़ावा देने का एक रिकॉर्ड, मानवाधिकार, न्याय, आदि होना चाहिए।
Q.23 इस प्रस्तावित अधिनियम के तहत अपराध की प्रकृति क्या थी?
उत्तर: (गिरफ्तारी वारंट के बिना) अपराध संज्ञेय और गैर जमानती (पुलिस से जमानत नहीं प्राप्त कर सकते हैं) थे.
Q.24 क्या अनुमान है के इस रूप में इस अधिनियम के तहत अपराध के लिए?
उत्तर: एक हिंदू जो अधिनियम के तहत गिरफ़्तार किया गया है किसी भी अपराध के साथ चार्ज करने के लिए दोषी हो सकता था जब तक वह अपनी बेगुनाही साबित साबित नही करता है।
अब आपको तय करना है कि भाजपा को चुनना है या नोटा दबाकर इस बिल को पास करवाना है?????
(के के शर्मा, नवल सागर कुंआ, बीकानेर)
Thanks for opening our eyes. We all are hindu. Jai hind.