माननीय मुख्यमंत्री महोदया श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया, राजस्थान के नाम पत्र
विषय: उदयपुर, नवलखा महल से आर्य साहित्य विक्रेता एवं प्रकाशक श्री लाजपत अग्रवाल की गिरफ़्तारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं आर्यसमाज की मान्यताओं पर हमला है।
उदयपुर में नवलखा महल में सत्यार्थ प्रकाश महोत्सव में अमर स्वामी प्रकाशन के प्रकाशक श्री लाजपत अग्रवाल को गिरफ्तार कर लिया गया है। आप सम्मलेन में आर्यसमाज के स्टाल से वैदिक साहित्य का प्रचार कर रहे थे। उस साहित्य में इस्लाम की मान्यताओं पर समीक्षात्मक प्रकाश डालने वाले साहित्य भी सम्मिलित था। पुलिस द्वारा यह तत्परता एक स्थानीय मुस्लिम पार्षद की शिकायत पर की गई। इस एकतरफा कार्यवाही के कारण पुरे देश के आर्यों में भयंकर रोष है। ध्यान दीजिये आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द लिखित सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें समुल्लास में इस्लाम की समीक्षा को लेकर भी मुस्लिम समाज पिछले 130 वर्षों से आर्यसमाज का विरोध करता रहा हैं। आर्यसमाज के साहित्य प्रकाशक महाशय राजपाल और परमानन्द (लाहौर) को अपना बलिदान ऋषि सिद्धांत की रक्षा के लिए देना पड़ा था। हैदराबाद और सिंध में जब सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाया गया तो आर्यसमाज ने देशव्यापी आंदोलन कर उसे निरस्त करवा दिया था। स्वतंत्र भारत में भी कश्मीर और दिल्ली में सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाने की मुसलमानों की निति असफल हुई थी।
स्वामी दयानन्द ने स्पष्ट रूप से सत्यार्थ प्रकाश के 14वें समुल्लास की अनुभूमिका में लिखा है कि
-यह लेख केवल मनुष्यों की उन्नति और सत्यासत्य के निर्णय के लिये है।
-सब मतों के विषयों का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान होवे, इससे मनुष्यों को परस्पर विचार करने का समय मिले और एक दूसरे के दोषों का खण्डन कर गुणों का ग्रहण करें।
– सज्जनों की रीति है कि अपने वा पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करें।
-और हठियों का हठ दुराग्रह न्यून करें करावें, क्योंकि पक्षपात से क्या-क्या अनर्थ जगत् में न हुए और न होते हैं।
-यह लेख हठ, दुराग्रह, ईर्ष्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिये किया गया है न कि इन को बढ़ाने के अर्थ।
-एक दूसरे की हानि करने से पृथक् रह परस्पर को लाभ पहुँचाना हमारा मुख्य कर्म है।
स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए अनेक आर्य विद्वानों ने इस्लाम के सिद्धांतों पर समीक्षात्मक लेखन किया। उनके द्वारा रचित साहित्य के मूल उद्देश्य को न देखकर कुछ लोग उसे निंदात्मक रूप में लेते हैं। इसे ही कट्टरवाद कहा जाता हैं। मत-मतान्तर की मान्यताओं की समीक्षा निष्पक्ष विद्वान् और चिंतक सदा करते आये हैं। कबीर, नानक, दादू आदि की परम्परा शताब्दियों से चलती आयी हैं। इन समाज सुधारकों की अभिव्यक्ति का सभ्य समाज ने सदा स्वागत किया हैं। प्रशासन ने उन्हें सदा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है। आर्यसमाज का समीक्षात्मक साहित्य इसी अभिव्यक्ति के तहत आता हैं। जिसकी रक्षा करना सरकार का दायित्व है।
अपने कर्त्तव्य के निर्वहन के विपरीत शासन द्वारा शिकायत होने पर एकतरफा कार्यवाही की गई जो निंदा करने योग्य हैं। लाजपत जी आर्यसमाज के साहित्य को बेच रहे थे। कोई अपराध नहीं कर रहे थे। फिर भी उन्हें गिरफ्तार कर दिया गया। क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उलंग्घन नहीं है ?
क्या यह आर्यसमाज की धार्मिक आज़ादी के अधिकार का अतिक्रमण नहीं है? क्या यह एक विशेष वर्ग को खुश करने के लिए निर्दोष व्यक्ति के मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है?
समस्त आर्यसमाज एवं उससे सम्बंधित संस्थाएं राजस्थान सरकार से यह अनुरोध करती है कि लाजपत जी को तत्काल प्रभाव से ससम्मान रिहा करे। अन्यथा आर्यसमाज को गौरवशाली इतिहास के समान आंदोलन करना पड़ेगा। जिसका उत्तरदायित्व आर्यसमाज का नहीं सरकार की ही बनेगा।
-राष्ट्र निर्माण पार्टी / समस्त आर्यसमाज से सम्बंधित संस्थाएं
(यह पत्र सभी आर्यसमाज, वेद प्रचार मंडल, संस्थान, कार्यकर्ता राजस्थान सरकार के नाम अतिशीघ्र उनके official email ID
cmrajasthan@nic.in पर भेजें। )
#RightofFreedomofExpression