देवकिशन भाती : एक हालिया अध्ययन में पहली बार भारत में नाइट्रोजन की स्थिति का मूल्यांकन किया गया है जो बताता है कि यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल ने नाइट्रोजन चक्र को बुरी तरह प्रभावित किया है।इस बार तो हमने अपने एक एकड़ के खेत में चार-चार बार यूरिया डाला। आप मानिए कि 200 किलो से अधिक का यूरिया खेतों में डाल दिया, लेकिन उपज पिछले साल से भी कम ही मिल पाई। अब यह यूरिया हमारे लिए जी का जंजाल बन गया है। खेतों में डालो तो मुसीबत है और न डालने का तो अब सवाल ही नहीं पैदा होता।” बिहार के बेगुसराय जिले के बखरी गांव के 82 साल के किसान नंदन पोद्दार की इस उलझन का इलाज फिलहाल किसी के पास नहीं है। यूरिया उनके खेतों का वह जीवन बन गया है जिसकी फसल जहर के रूप में कट रही है।
देश को कृषि के क्षेत्र में मजबूत बनाने के उद्देश्य से यूरिया का इस्तेमाल हरित क्रांति (1965-66) के बाद पूरे देश में किया गया। पोद्दार कहते हैं, “शुरुआती सालों में देश के कई इलाकों में इस यूरिया के बारे में किसानों को विधिवत जानकारी नहीं दी गई। बल्कि रात में खेतों में यूरिया की बोरी चुपचाप डाल दी जाती थी, इससे भी जब बात नहीं बनी तब गांव के सरपंच के माध्यम से यूरिया किसानों को अपने-अपने खेतों में उपयोग करने के लिए आग्रह किया गया।” सभी किसानों से सरकार ने 1966-67 के दौरान यूरिया का इस्तेमाल करने की लगातार चिरौरी की। उन्होंने बताया कि हमें ऐसा लगा था कि खेती से होने वाला नुकसान यूरिया के उपयोग से मुनाफे में बदल जाएगा। हुआ भी ऐसा ही। पैदावार बढ़ने से हम खुश थे। हालांकि शुरू में हम डर भी रहे थे कि यूरिया के इस्तेमाल से कहीं हमारी फसल ही चौपट न हो जाए। हमने डरते-डरते पहली बार 1967 में एक एकड़ में केवल चार किलो यूरिया डाला। जब फसल तैयार हुई तो हमें अपनी आंखों पर भरोसा नहीं हुआ। क्योंकि पहली बार हम देख रहे थे कि गेहूं की उपज हमें तीन गुना अधिक मिली।
पोद्दार ने बताया कि पहले हम इतने ही खेत में गोबर की खाद डाल कर चार कुंतल (400 किलो ग्राम) उपज लेते थे। अब हम देख रहे थे कि सीधे 1200 किलो से अधिक गेहूं की उपज मिली। हम सभी को यकीन नहीं हुआ कि यह कौन सा चमत्कार है। मेरे खेतों में बढ़ी पैदावार को देख गांव के अन्य किसानों ने भी अगले साल यानी 1968 में अपने-अपने खेतों में सहकारी समितियों से मिलने वाला यूरिया डाला और वे भी अपनी-अपनी फसल देखकर गदगद थे। आखिर तीन गुना ज्यादा फसल पाकर कौन किसान होगा जो खुशी से फूला नहीं समाएगा। देखते ही देखते यूरिया खेतों का नायक बन चुका था।सरकार ने भी यूरिया के प्रचार में कसर नहीं छोड़ी थी। ऊपर से चला यह प्रचार नीचे तक जोर मारने लगा और किसान तो इसकी ऐसे तारीफ करने लगे जैसे अभी फिल्मी हीरो पेप्सी और कोला की करते हैं। इसकी वजह भी तो थी। भारतीय किसानों ने आफियत का दौर बहुत कम देखा है। आसमान और जमीन से निकलती उम्मीदों में झूलते थे। एक किसान को भला क्या चाहिए? उसकी खेतों की उपज उसके कुटुंब का पेट भरे। और जब खेतों की सामान्य उपज से तीन गुना ज्यादा मिलने लगा तो जैसे लगा कि देवी अण्णपूर्णा प्रसन्न हो गई।
नाइट्रोजन पौधों के लिए जरूरी होती है क्योंकि यह पौष्टिक तत्वों को प्रतिबंधक बनाता है। क्लोरोफिल और प्रोटीन सिंथेसिस के जरिए पौधे इससे भोजन तैयार करते हैं। प्राकृतिक रूप से यह जरूरी पौष्टिक तत्व मिट्टी में डाइएजोट्रोफ जीवाणु के जरिए मौजूद रहते हैं। ये दाल जैसे पौधों की जड़ों में उपस्थित होते हैं। लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद यह प्राकृतिक मौजूदगी पर्याप्त नहीं रही क्योंकि यह बढ़ती आबादी को भोजन उपलब्ध कराने में असमर्थ थी। इस कारण प्राकृतिक रूप से मौजूद नाइट्रोजन के पूरक के लिए कृत्रिम फर्टीलाइजर का आविष्कार किया गया।
पोद्दार कहते हैं कि वह बिलकुल अजीब समय था। यूरिया डाला तो खेतों में जा रहा था लेकिन उपज का नशा हमें चढ़ रहा था। और हम इस नशे को बढ़ाते चले गए। हमने अगले साल (1969) अपने खेतों में यूरिया की मात्रा दोगुनी कर दी क्योंकि अब हमें यह महसूस होने लगा था िक जितना अिधक यूरिया डालेंगे, उतनी उपज अच्छी होगी। चार के स्थान पर इस बार हमने पूरे दस किलो यूरिया एक एकड़ के खेत में डाल दिया। उम्मीद के मुताबिक तीन से बढ़कर पांच गुना यानी 1200 के मुकाबले 2000 किलोग्राम गेहूं की उपज हमें मिली। देश में किसानों द्वारा 1975 के आसपास अपने-अपने खेतों में तीन से पांच गुना यूरिया डालना एक सामान्य सी बात बनकर रह गई थी। यह भी सही है कि उसी दर से उनका उत्पादन भी बढ़ रहा रहा था। लेकिन किसानों को इस बारे में सरकार की ओर से कोई अधिकृत जानकारी देने का कहीं दूर-दूर तक कोई कार्यक्रम नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि किसान अपने खेतों में यूरिया का उपयोग लगातार बढ़ा रहा था।
उन्होंने बताया कि हम तो यह सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि जिस यूरिया को हम सोना समझ बैठे हैं, वह धीरे-धीरे हमारे खेतों को बंजर कर रहा है। 1985 से 1995 के बीच प्रति एकड़ 125 किलोग्राम यूरिया डाल कर उपज का दस से 12 गुना बढ़ाया। यहीं से हम नीचे उतरने लगे। खेती में पैदावार घटने लगी जबकि हम यूरिया की मात्रा साल दर साल बढ़ाते गए। 1997 में हमने 175 किलो यूरिया डाला और पाया क्या? वही बस दस गुना। यानी अब यूरिया बढ़ाने से खेतों की पैदावार नहीं बढ़ रही थी बल्कि घट रही थी।1995 के बाद से पैदावार लगातार घट रही है। चालीस सालों से यूरिया के अंधाधुंध इस्तेमाल ने खेतों को बंजर कर दिया है। आखिर एक बार फिर से किसानों ने अपने खेतों में गोबर आदि की खाद डालनी शुरू की। इससे पैदावार तो नहीं बढ़ी लेकिन घटनी भी कम हुई। लेकिन 2010 तक आते-आते अब गोबर की खाद भी आसानी से नहीं उपलब्ध हो पा रही थी। आज के हालात ये हैं कि किसान एक एकड़ के खेत में 225 से 250 किलो यूरिया डालने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। कारण कि हर हाल में वही 15-20 साल पहले की 12 गुना उपज की जो दरकार है। अब तमाम कोशिशें नाकाम साबित हो रही हैं। पोद्दार पुराने समय को याद करते हुए बताते हैं कि आज से 50 साल पहले हमारे देश के प्रधानमंत्री हमसे यूरिया इस्तेमाल करने की चिरौरी कर रही थे। आज पांच दशक के बाद जब हमारे खेत पूरी तरह से खत्म होने वाले हैं तो वर्तमान प्रधानमंत्री हमसे (26 दिसंबर, 2017 को प्रसारित मन की बात में) अब यूरिया का कम से कम उपयोग करने की अपील कर रहे हैं। यही नहीं अब सरकार यूरिया पर सब्सिडी भी कम करती जा रही है। 2015-16 के बजट में यूरिया के लिए 72,438 करोड़ सब्सिडी रखी गई थी, जिसे 2016-17 के दौरान घटाकर 70,000 करोड़ रुपए कर दिया। पोद्दार ने एक अनुमान लगाते हुए बताया कि पिछले 50 सालों में हमने एक एकड़ के खेत में लगभग 6,610 किलो यूरिया का इस्तेमाल कर लगभग 5,337 कुंतल उपज (गेहूं व चावल) हासिल की। यह सिर्फ एक अकेले किसान नंदन पोद्दार की कहानी नहीं है। विडंबना है कि एक अकेला किसान पांच दशकों में 6,610 किलो ग्राम से अधिक यूरिया का इस्तेमाल कर चुका है।