भोपाल : मानसी तीन बहनों में सबसे बड़ी है. पिछले साल वह बारहवीं में थी. पिता की कैंसर से मौत हो चुकी है. तीनों बहनों की जिम्मेदारी मां पर है, जो छोटे-मोटे काम से अपना परिवार चलाती हैं. मानसी पढ़ने में तेज थीं, लेकिन एक वक्त ऐसा आया जब फीस जमा करने के भी पैसे नहीं थे. स्कूल से नाम कटाने का फैसला लिया. स्कूल वालों को पता चला तो सच में पारिवारिक स्थिति खराब पाई गई. बच्ची की फीस का प्रबंध किया गया. उसने साल पूरा किया. मेरिट में आई. सरकार ने उसे सम्मानित किया. अब वह कॉलेज में है.
ऐसे ही बच्चों की मदद के लिए 12 साल से सक्रिय हैं 56 साल के कृष्णकुमार दुबे, जो सरस्वती विद्या मंदिर निशातपुरा में संस्कृत के आचार्य हैं. वे बचे समय में ऐसे बच्चों की सूची लेकर समाज से संपर्क करते हैं. इनके पूर्व विद्यार्थियों में ही आईएएस अफसर, जज, डॉक्टर, बैंक अफसर सब हैं. सबसे उतनी ही मदद लेते हैं, जिससे किसी की बकाया फीस भरी जा सके. अब तक ऐसे एक हजार से ज्यादा बच्चों के लिए मदद जुटा चुके हैं.
मानसी सरस्वती विद्या मंदिर, निशातपुरा के उन बच्चों में से है, जिनके परिजन हर साल फीस जमा न करा पाने की वजह से मायूस होकर स्कूल से नाम कटाने का निवेदन करते हैं. यहां नर्सरी से बारहवीं तक के करीब 1000 बच्चे हैं. ज्यादातर निम्न मध्यमवर्गीय पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं. किसी के पिता सब्जी बेचते हैं, स्ट्रीट फूड का स्टाल है, गुमठी है या कहीं छोटी-मोटी नौकरी है. वे बच्चों को पढ़ाने के मकसद से ही कभी भोपाल आए थे.
विद्यालय के प्रधान आचार्य रामकुमार व्यास बताते हैं – हम संपर्क अभियान के तहत सबसे पहले इन बच्चों के घरों में जाकर देखते हैं कि आर्थिक स्थिति कैसी है? जब लगता है कि वाकई मुश्किल हालात हैं तो हम अपने संपन्न पूर्व छात्रों का दरवाजा खटखटाते हैं. कारोबारी और सामाजिक संगठनों के पास भी जाते हैं. सब लोग खुले दिल से मदद करते हैं. एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है, जब फीस न भर पाने से किसी बच्चे की पढ़ाई अधूरी रही हो. सिर्फ फीस ही नहीं. यूनिफार्म, बस्ते, कॉपी, किताबें सबका इंतजाम करते हैं. और तो और सर्दी में जब बच्चे बिना स्वेटर के दिखाई देते हैं तो उनसे अकेले में पूछते हैं कि स्वेटर क्यों नहीं पहना, बीमार पड़ जाओगे. बच्चे संकोच में बताते हैं कि पैसे नहीं हैं. फीस मुश्किल से जमा की है. पूरी तसदीक के बाद कपड़ा कारोबारियों से संपर्क शुरू होता है. लोग नए गरम कपड़े, हर नाप के, दे देते हैं. कृष्णकुमार जी की जेब में हर समय एक सूची ऐसे बच्चों की होती है. बड़ी नौकरियों या कारोबार में गए पूर्व छात्र अपने परिवार सहित इस स्कूल में आते हैं. कृष्ण जी हमेशा गुरु दक्षिणा में बच्चों की सूची आगे करते हैं. सब उम्मीद से ज्यादा ही देते हैं. ऐसा कभी नहीं हुआ कि फीस या कॉपी-किताबों की कमी की वजह से कभी किसी का नाम कटा हो.
जरूरतमंद की कोई जाति नहीं होती
हमने कभी नहीं देखा कि कौन विद्यार्थी दलित है, कौन ब्राह्मण. मैं आचार्य हूं और एक ब्राह्मण हूं. संपन्न वर्ग के सामने इन बच्चों के लिए झोली फैलाता हूं. देखिए गरीबी किसी की जाति देखकर नहीं आती. जरूरतमंद और प्रतिभाशाली बच्चे हर जाति में हैं. समाज ने भी यह पूछकर मदद नहीं दी कि किस जाति के बच्चे को देना है. हमारे मददगार भी हर जाति और धर्म के हैं. कृष्णकुमार दुबे