नालंदा विश्वविद्यालय में एक से एक ज्ञानी हुए। यहाँ तक कि आर्यभट्ट जैसे परम्-ज्ञानी यहाँ के कुलपति हुए। दस हज़ार से ऊपर छात्र और लगभग दो हज़ार ज्ञानी शिक्षक यहाँ रहते थे।
फिर आया बारहवीं सदी के अंत में एक बर्बर तुर्क आक्रमणकारी..बख़्तियार ख़िलजी..!! उसकी तबियत हो गयी खराब। कितने ही नीम-हकीम खतरेजानों ने इलाज़ किया, ससुरा ठीक ही न हो। फिर किसी ने नालंदा विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभाग के प्रमुख आचार्य राहुल शीलभद्र का जिक्र किया। पर तुर्क का इलाज़ आयुर्वेदिक विधि से हो, यह पचा नहीं उसे..वह भी किसी काफ़िर के हाथों..!! पर मरता क्या न करता..!!
ख़ैर, आचार्य शीलभद्र आएं और दुश्मन को भी अतिथि मानने वाली बौद्धयुगीन भारतीय संस्कृति के तहत उसका इलाज़ किया। बताते हैं कि बख़्तियार के अहम की तुष्टि हेतु, आचार्य शीलभद्र ने पवित्र कुरआन के पन्नों पर दवा लगाई ताकि जब बख़्तियार पढ़ते समय उन पन्नों को पलटे, तो उँगलियों में लगकर वह दवाइयाँ बख़्तियार के मुंह में जाएँ।
कुछ ही दिन में बख़्तियार ख़िलजी आश्चर्यजनक रूप से ठीक हो गया। उस सनकी को बड़ा क्रोध आया कि उसे एक काफ़िर के हाथों ठीक होना पड़ा। एहसानफरामोश ने तुरन्त मात्र 200 घुड़सवार लड़ाकों की सेना तैयार की और नालंदा विश्वविद्यालय पर चढ़ बैठा..!!इससे भी ज्यादा आश्चर्य कि तब बीस हज़ार के लगभग छात्र और दो हज़ार शिक्षक, जिसमें अधिकांशतया शांतिप्रिय-अहिंसक बौद्ध थे..वहाँ परिसर में मौज़ूद थे।
बख़्तियार ख़िलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने का आदेश दिया। बताते हैं कि उसके साथ उसकी सेना में ही कोई विद्वान भी था, जिसने अनुरोध किया कि हुज़ूर, बहुत मूल्यवान पुस्तकें हैं..जिनमें ज्ञान का अपार भण्डार छिपा हुआ है। इस पर संभवतः बख़्तियार ख़िलजी ने उक्त विद्वान से सवाल दागा कि क्या हमारी पवित्र पुस्तक से भी ज्यादा ज्ञान है इन पुस्तकों में..??
अब मरता क्या न करता..?? उक्त विद्वान को पता था कि गलती हुई नहीं कि ये साइको उसकी गरदन धड़ से अलग कर देगा..जैसे कि आजकल तालिबानी और आईएसआईएस वाले करते हैं मज़हब के नाम पर..!! सो उसने धीमे से कहा- नहीं हुज़ूर..!! बस फिर क्या था..बख़्तियार ने पूरे नालंदा विश्वविद्यालय को जला डाला। तीन महीने तक अमूल्य पुस्तकें धू-धूकर जलती रहीं।
इनमें से कुछ पुस्तकों को कुछ बौद्ध भिक्षु अपने कपड़ों में छुपा ले गए..जिससे कि आगे तिब्बत ज्ञान का एक बड़ा केंद्र बन कर उभरा..!! जिन चन्द प्रतिलिपियों की उपयोगिता समझ, चीनी छात्रों ने जान दे दी सागर में कूद कर, वही दूसरी तरफ इस जाहिल धर्मांध ने पूरे ज्ञान के सागर में ही आग लगा दी। आज भी उस अग्निकांड के साक्ष्य दिखते हैं।
“नालन्दा” का अर्थ ही होता है- ‘नालम्’ यानी कमल अथवा ज्ञान और ‘दा’ का अर्थ होता है देना यानी ज्ञान देना (नालन्दा= नालम् + दा)..!! पर ज्ञान कहाँ से देता, आना तो अन्धकार युग था..!! इसी प्रकार तक्षशिला आदि ज्ञान के केन्द्र भी नष्ट कर दिए गए..!! तभी जिस भारत ने याज्ञवल्क्य, चाणक्य, पतंजलि, आर्यभट्ट, बराहमिहिर, भाष्कराचार्य इत्यादि जैसे विद्वान दिए, वहाँ आगे चलकर न्यूटन, आइंस्टीन इत्यादि जैसे आधुनिक जगत के पश्चिमी विद्वान छा गए।
काश कि नालन्दा विश्वविद्यालय के तमाम छात्रों को वहाँ के बौद्ध शिक्षक तमाम विषयों की पढ़ाई के अलावे, अहिंसा के साथ-साथ जरूरत के वक़्त, “रक्षा अध्ययन” का पाठ भी पढ़ाते..अन्यथा महज़ दो सौ बर्बर-जाहिल लड़ाकुओं की फ़ौज़ क्या टिकती भी बीस हज़ार लोगों के समक्ष..?? रामधारी सिंह दिनकर जी जैसे विद्वान ने बताया है कि ‘बुतशिकन’ शब्द यानी जिसका अर्थ मूर्ति भंजन से है, उसमें बुत का मतलब ही बुद्ध से है..तभी अभी हाल में ही बामियान में बुद्ध की मूर्तियां तोड़ी गयी थी तालिबान द्वारा..!!:)