वरुण, चंडीगढ़ : शिक्षा मनुष्य द्वारा निर्मित एवं विकसित एक ऐसी व्यवस्था है जो उसे जंगली जीवन से निकालकर आज के आधुनिक वैज्ञानिक सभ्य जीवन में ले आई, अर्थात जिसने धरती पर जन्मे मानव रूपी प्राणी को धरती का सबसे बुद्धिमान सभ्य एवं तर्क मय इंसान बनने में मदद करी
इस सभ्यता और मानव विकास के सफर में कई पड़ाव आई l पहले मनुष्य सभ्यता के शुरुआती दौर में, वह नदियों और तालाबों के किनारे गांव एवं बस्तियां बसाकर रहने लगा, जिसमें सभी लोग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं जैसे कृषि, पशुपालन और बाकी बुनियादी जरूरतों के लिए मिलकर काम करते थे l
धीरे-धीरे जब जब खेती और मूलभूत सुविधाओं को पूरा करने के लिए सभी व्यक्तियों की जरूरत ना थी, तो उनमें से कुछ बुद्धिमान कर्मठ व्यक्तियों को आचार्य, ऋषि एवं योगी के रूप में वनो, पहाड़, ऐसे एकांत और उपयुक्त स्थान पर कार्यशाला बनाने के लिए में भेजा जाने लगा ताकि वह शोध, विज्ञानिक अनुसंधान एवं समाज राष्ट्र, देश की जरूरतों के लिए अध्ययन कर सकें l इसी कड़ी में धीरे धीरे विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों का निर्माण भारतीय सभ्यता का सर्वप्रथम एक सुनहरा अध्याय बना l
उस समय शिक्षक, अचार्य, शोधकर्ता एवं प्राध्यापकों का समाज में बहुत सम्मान होता था l एवं राजनीति और राजा का हस्तक्षेप सिर्फ इतना ही होता था कि वह आचार्य, प्राध्यापकों एवं विश्वविद्यालयों को आर्थिक एवं अन्य जरूरतों को मुहैया कराता था l परंतु राजनीति एवं राजा उनकी शैक्षणिक एवं शोध की स्वतंत्रता में कभी हस्तक्षेप नहीं करते थे l इसी का नतीजा था कि उस समय भारत के शोध , कला, विज्ञान, संस्कृति, योग, अध्यात्म एवं साहित्य का लोहा पूरी दुनिया मानती थी और भारतीय समाज एवं सभ्यता उन्नति एवं विकास के शिखरों पर थी l
परंतु दुर्भाग्यवश मध्यकाल में जब बाहरी आक्रांताओं का हमला हुआ और खासकर जब भारत ब्रिटिश साम्राज्य का गुलाम बना, उस समय अपने सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक साम्राज्यवाद को सशक्त करने के लिए बाहरी ताकतों के द्वारा सबसे पहला और खतरनाक काम जो किया गया, वह था शैक्षणिक संस्थाओं की स्वतंत्रता को खत्म करना और उसमें हस्तक्षेप कर अपने निहित हितों को साधने के लिए भारतीय इतिहास, सभ्यता संस्कृति और सभ्यता को तोड़ मरोड़ कर पेश करना, और अपनी पश्चिमी सरोकारों एवं मूल्यों को भारतीय समाज पर थोपना l और इसका ही परिणाम था कि भारतीय समाज चाहे वह विज्ञान हो, कला हो या और कोई पहलू हो उसमें पीछे रह गया और आज भी पश्चिमीकरण एवं पश्चिमी संस्कृति की मानसिक गुलामी भारतीय समाज एवं सभ्यता के विकास के लिए बड़ी परेशानी बनी हुई है l
जब भारत आजाद हुआ तो हालांकि हमारे संविधान के निर्माताओं ने शैक्षणिक स्वतंत्रता एवं शोध शिक्षा एवं विवेचना को मूलभूत अधिकार का दर्जा नहीं दिया l इसका एक कारण यह भी था की अनुच्छेद 19 में निहित अपने विचार व्यक्त करने एवं अभिव्यक्ति की आजादी को मूलभूत अधिकार का दर्जा दिया गया था l इस बात में कोई दो राय नहीं की शोध, शैक्षणिक विवेचना एवं शिक्षा के द्वारा समाज, राष्ट्र और देश की समस्याओं विचारधाराओं एवं साहित्य पर काम करने की, राजनीतिक हस्तक्षेप से स्वतंत्रता, किसी भी समाज और राष्ट्र को आगे बढ़ाने के लिए बहुत आवश्यक शर्त है l
इस पर राजनीतिक हस्तक्षेप समाज और राष्ट्र के विकास में सबसे बड़ी बाधा साबित हो सकता है l हालांकि शिक्षा एवं शोध पर नियंत्रण, विनियमन या रेगुलेशन उस सीमा तक बिल्कुल जायज है यहां अनुच्छेद 19 की तर्ज पर ही इसका विनियमन किया जाए ताकि यह समाज, राष्ट्र या देश कि विरोधी ताकतों के प्रचार का शस्त्र ना बन जाए या फिर जानबूझकर इसका दुरुपयोग देश, समाज या राष्ट्र की अखंडता, एकता, प्रभु सत्ता और आपसी भाईचारा को तोड़ने या नुकसान बनाने के लिए ना किया जाए l
परंतु किसी कुलपति, प्राध्यापक शोधकर्ता को केवल एवं केवल राजनीतिक कारणों से उत्पीड़ित, परेशान या अभियोजन करना पहले ही कई समस्याओं का सामना कर रहे भारतीय शोध एवं शैक्षणिक जगत को हतोत्साहित करने वाला कदम हो सकता है l इसलिए जरूरत है कि गलत इंटेंशन एवं जानबूझकर राजनीतिक हित को साधने के लिए होने वाले राजनीतिक हस्तक्षेप से बचने के लिए एवं शैक्षणिक स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए विशेष सेफगार्ड एवं उपाय भारतीय भारतीय संसद या न्यायपालिका द्वारा बनाए जाएं जैसे कि डॉक्टरों और चिकित्सा जगत के लिए बनाए गए हैं l
ताकि हमारे समाज, राष्ट्र एवं देश के विकास एवं उन्नति के लिए दिन रात निस्वार्थ भाव से काम करने वाले शोधकर्ता, प्राध्यापक एवं अचार्य सही एवं उचित स्वतंत्रता से अपना बहुमूल्य योगदान समाज एवं राष्ट्र निर्माण के लिए डाल सके l