बीकानेर : हापुर में गौ हत्या के नाम पर भीड़ द्वारा एक व्यक्ति की जान ले ली गयी, लाल गंज मे भीड़ ने काम ना करने पर एसडीओ, जेई को दौड़ा-2 कर पीटा, दो साल पहले शिवाजी शिंदे नाम के शख़्स की हत्या 1500 लोगो की भीड़ सिर्फ इसलिये कर देती है, क्योंकि व्हाट्सअप पर बच्चा चोरी का एक मेसज वायरल होता है, अखलाख केस में भी यही हुआ, कुछ ऐसा ही 65 वर्ष की रुकमणी के साथ भी हुआ जब सोशल मीडिया पर वायरल होती एक तथाकथित बच्चा चोर की तस्वीर ने भीड़ द्वारा गलती से एक निरपराध महिला की जान ले ली। भारत के सरकारी आकड़ो की बात करे, तो अकेले 2015 में ही कुल 53 ऐसे मामले आये जिनमें आक्रांतित भीड़ ने, मासूम या तथाकथित मासूम, या आरोपित की जान ली। आजादी के बाद मॉब लिंचिंग की सबसे बड़ी घटना 1984 (सिख विरोधी दंगे) में हुई थी, ओर इसी तरह की मोब लिंचिंग के शिकार 1990 में कश्मीरी पंडित हुए थे और गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में बैठे लोग हुए थे।
कुछ लोगों के लिये ख़बरे अलग हो सकती है, लेकिन वास्तव में दोनों ही ख़बरे भीड़तंत्र द्वारा न्याय का ही रूप है, दलील सुनेंगे तो दोनों ही पक्ष यही कहेंगे कि ‘सरकार फेल हो गई, इसलिये हमने न्याय किया…’ ।इस समय इन घटनाओं में बढ़ोतरी होने की वजह लोगों के मन में बसा गुस्सा है. वो गुस्सा किस बात पर है ये मायने नहीं रखता. लोग गुस्से में हैं, नाराज हैं और हताश हैं लेकिन उन्हें खुद पता नहीं है कि ऐसा क्यों है. अगर आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि जितनी भी घटनाएं हुई हैं वहां जो पीड़ित है उसे आकस्मिक चुनाव हुआ है. लोग पहले गुस्सा होते हैं फिर अपना टारगेट ढूंढते हैं.’
कुछ ऐसा ही दृश्य जैसा की 1980 से लेकर 1990 के बॉलीवुड फिल्मों में अक्सर दर्शाया जाता था। कुछ लोग इसे भीड़ तंत्र का न्याय कहते है, लेकिन भीड़ का ऐसा कौन सा चेहरा है, जो मनुष्यों के झुण्ड को जानवर बना देती है?जब हम छोटे थे तो तेज आंधी या तूफान में अक्सर खुद को संभाल नहीं पाते थे. हमें लगता कि वो तेज आंधी अपने साथ छतों पर लहराते झंडों, खपरैल छतों, पेड़ की टहनियों के साथ हमें भी अपने साथ उड़ा कर ले जाएगी.तब हमारे बड़े बुज़ुर्ग हमसे कहा करते कि- जब भी ऐसी तेज आंधी या तूफान आए तो समूह में रहना- दस-पंद्रह लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़कर, किसी एक जगह पर जमीन पर बैठ जाना. आंधी गुजर जाएगी और समूह आपको सुरक्षा देगा.
लेकिन आज जिस तरह से समूह एक उन्मादी भीड़ में तब्दील होता जा रहा है उससे हमारे भीतर सुरक्षा कम, डर की भावना बैठती जा रही है. भीड़ अपने एक अलग किस्म के तंत्र का निर्माण कर रही है- जिसे आसान भाषा में हम भीड़तंत्र भी कह सकते हैं.ये एक ऐसा तंत्र है जिसकी न तो कोई विचारधारा है न ही कोई सरोकार. वो कहीं भी किसी भी बात पर आक्रामक हो जाती है और जिस किसी से भी उसको नफरत या घृणा होती है वो उसे उसी वक्त सजा देने का फैसला कर देती है. अक्सर ये सजा रंग-रूप और बर्ताव में बर्बर होती है.
भीड़तंत्र यानी मोबोक्रेसी, मान्यता है, या एक भावना, गुस्सा या एक कुंठा है ? भीड़ न्याय करती है, यही भीड़ जंतरमंतर पर ऐतिहासिक आंदोलन करती है, यही भीड़ सरकार भी चुनती है, यही भीड़ दंगा भी करती है…यही भीड़ धरना भी करती है, स्कूल कॉलेज बंद करवाती है, विभिन्न सामुदायिक लाभ के लिये बसों को फूंक देती है, कैसी भीड़ है ये जो अंध मान्यताओं के नाम पर जुबान वालो से लेकर बेजुबानों का क़त्ल कर गर्व भी महसूस करती है, क़त्ल करके शांति और प्रेम का पैगाम देती है, यही भीड़ तथाकथित विभिन्न धार्मिक चोलों की भी बात करती है।
भीड़ एक अन्धविश्वास है, जो कभी किसी नेता पर, कभी किसी धार्मिक, अधार्मिक मान्यता पर, तो कभी किसी सुचना पर हो जाती है…
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संसद को भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या के मामलों से प्रभावी तरीके से निपटने के लिए नया कानून बनाने पर विचार करना चाहिए. शीर्ष अदालत ने भीड़ द्वारा हिंसा और लोगों को पीट-पीटकर मारने की घटनाओं के लिए केंद्र ओर राज्य सरकारों को जवाबदेह बनाया.साथ ही न्यायालय ने उनसे कहा कि वे सोशल मीडिया पर गैरकानूनी और विस्फोटक संदेशों तथा वीडियो के प्रचार प्रसार पर अंकुश पाने और रोकने के लिए कदम उठायें क्योंकि ये ऐसी घटनाओं के लिए प्रेरित करते हैं.
शीर्ष अदालत ने कहा कि ‘भीड़तंत्र की इन भयावह गतिविधियों’ को नया चलन नहीं बनने दिया जा सकता.
भीड़तंत्र द्वारा नफरत के विस्फोट का यह अंतहीन सिलसिला थमता हुआ नहीं दिख रहा है. देशभर में इन दिनों यह भयावह दृश्य देखा जा रहा है. ऐसी घटनाओं ने देश के विचारकों को गहरी चिंता में डाल दिया है.देशदुनिया इस समय धर्मजनित भीड़तंत्र की ऐसी दहलीज पर खड़ी है जहां हिंसा और नफरत का अंतहीन सिलसिला चल निकला है.
अमूमन भीड़ का एक ही चेहरा सामने आता है. एक उन्मादी भीड़ किसी इंसान को घेर कर मार रही होती है. वो शख्स बेकसूर भी हो सकता है तो आरोपी भी हो सकता है. लेकिन हाथ में कानून लेकर भीड़ जब जानवर बनने पर आमादा हो जाती है तो हैवान की रूह भी कांप जाती है.
झारखंड के जमशेदपुर में बच्चा चोरी के आरोप में एक भीड़ ने चार लोगों को पीट पीट कर मार डाला. पश्चिम बंगाल में एक नाबालिग की फेसबुक पर आपत्तिजनक पोस्ट के बाद उसका घर ही जला दिया गया।कहीं भीड़ का इस्तेमाल सियासी फायदे के लिये हो रहा है. बंगाल में सांप्रदायिक तनाव के जरिये राजनीति की रोटियां सेंकने के लिये सियासत भीड़तंत्र की गुलामी कर रही है. अराजक होती भीड़ के खौफनाक चेहरे की तस्वीर हर राज्य में एक सी है.इस भीड़ के आंख-कान, दिल और दिमाग नहीं होते. इसे सामने वाले के शरीर से बहता लहू और तड़पता जिस्म नहीं दिखाई देता. इसके कानों में रहम की भीख नहीं सुनाई देती. इसके दिल में मरते हुए इंसान को लेकर संवेदनाओं की हलचल नहीं होती तो इसके दिमाग में अपने किये का असर नहीं होता है. आखिर इस उन्मादी भीड़ के दिमाग में कौन सा फितूर होता है?किसी भी घटना के बाद भीड़ ‘अज्ञात’ नाम के तत्व में समा जाती है जहां से उसकी खोज मुश्किल होती है. पुलिस अज्ञात लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लेती है. एक बार फिर भीड़ किसी भीड़ में गायब हो जाती है.
बहती गंगा में हाथ धोने वाली भीड़ अपने पापों के घड़े भरने का काम करती आई है. कभी किसी को मार कर या फिर कभी किसी को मरते देख मूकदर्शक बनकर. दोनों ही तरीके की भीड़ का चरित्र एक सा है जो मानवता और भावनाविहीन है.
समाजिक चिंतक बहस कर सकते हैं समाज की इस भीड़ पर लेकिन खुद समाज को सोचना होगा कि सभ्य और विकसित समाज में ये भीड़तंत्र कहीं इतना हिंसक तो कहीं इतना क्रूर क्यों है?कहीं भीड़ का इस्तेमाल सियासी फायदे के लिये हो रहा है. बंगाल में सांप्रदायिक तनाव के जरिये राजनीति की रोटियां सेंकने के लिये सियासत भीड़तंत्र की गुलामी कर रही है.
कहीं भीड़ को सत्ता का समर्थन मिला हुआ है तो कहीं अपने रक्तचरित्र से वो सत्ता का ख्वाब देख रही है. गुस्से और नफरत से निरंकुश होती ये भीड़ अराजक नहीं बल्कि अपराधी हो चुकी है. लोकतंत्र की हिफाजत और नागरिकों की सुरक्षा के लिये अब ये जरुरी है कि स्लीपर सेल बनी इस भीड़ को सियासी चश्मे से ना देख कानून की नजर से देखा जाए.
लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ भीड़तंत्र का उभार इंसानियत का गला रेतने का काम कर रहा है. हिंसा किसी भी रूप में नहीं रुकी तो समाज के जंगल राज में प्रवेश करने से कोई रोक नहीं सकता. अगर भीड़ ही सही और गलत का फैसला करने लगे तो फिर निरंकुश होती भीड़ समाजिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बन जाएगी.
कल तक हम अपने जिस लोकतंत्र पर गर्व करते थे आज वह भीड़तंत्र में बदलता जा रहाहै। ‘लोकतंत्र खत्म होने से पहले भीड़तंत्र बनता है, फिर भेड़तंत्र और आखिर में भेड़ियातंत्र!’
‘मुझे दु:ख है–
कि चारादीवारियों के अन्धखोह में
घुटती-घुलती भीड़ की गुमासुमाहट
क़त्ल कर देगी
के के शर्म