के के शर्मा, बीकानेर : भारतीय दलित व जनजातीय समाज में इन दिनों एक नया शब्द चल पड़ा है, – मूलनिवासी. इस मूलनिवासी शब्द के नाम पर एक प्राचीन षड्यंत्र को नए रूप, नए कलेवर और नए आवरण में बांधकर एक विद्रूप वातावरण उत्पन्न करनें का प्रयास किया जा रहा है. मुझे लगता है कि इस पूरे मामले की जड़ बाबा साहब अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन के समय दो धर्मों; इस्लाम एवं इसाईयत में उपजी निराशा में है. ईसाइयत व इस्लाम धर्म नहीं अपनानें को लेकर बाबा साहब के विचार सुस्पष्ट व सुउच्चारित रहें हैं, उन्होंने सस्वर इस बात को बार बार कहा था कि उनकें अनुयायी हर प्रकार से इस्लाम व ईसाइयत से दूर रहें. किंतु आज मूलनिवासी वाद के नाम पर भारत का दलित व जनजातीय समाज एक बड़े पश्चिमी षड्यंत्र का शिकार हो रहा है. एक बड़े और एकमुश्त धर्म परिवर्तन की आस में बैठे ईसाई धर्म प्रचारक तब बहुत ही निराश व हताश हो गए थे जब बाबासाहब अम्बेडकर ने किसी भारतीय भूमि पर जन्में व भारतीय दर्शन आधारित धर्म में जानें का निर्णय अपनें अनुयाइयों को दिया था. किन्तु पश्चिम में या ईसाईयों में उपजी तबकी यह निराशा बाद में भी प्रयासरत रही व अपने धन, संसाधनों, बुद्धि, कौशल के आधार पर सतत षड्यंत्रों को बुननें में लगी रही. पश्चिमी इसाई धर्म प्रचारकों के इसी षड्यंत्र का अगला क्रम है मूलनिवासी वाद का जन्म! भारतीय दलितों व आदिवासियों को पश्चिमी अवधारणा से जोड़नें व भारतीय समाज में विभाजन के नए केंद्रों की खोज इस मूलनिवासी वाद के नाम पर प्रारंभ कर दी गई है. इस पश्चिमी षड्यंत्र के कुप्रभाव में आकर कुछ दलित व जनजातीय नेताओं ने अपनें आन्दोलनों में यह कहना प्रारंभ कर दिया है कि भारत के मूल निवासियों (दलितों) पर बाहर से आकर आर्यों ने हमला किया और उन्हें अपना गुलाम बनाकर हिन्दू वर्ण व्यवस्था को लागू किया.
यह विडंबना है या कि भरतीय लोगों की मूर्खता कि आधिकारिक इतिहास की शुरुआत में ही यह बताया गया है कि भारत में रहने वाले लोग यहां के मूल निवासी नहीं है। संभवत: भारत दुनिया का ऐसा पहला देश होगा जहां के लोग खुद के ही भारतीय होने पर संदेह करते हैं। यह संदेह उनके दिमाग में एक या दो दिन में नहीं डाला गया। यह सैंकड़ों साल की गुलामी और मैकाले की शिक्षा का परिणाम है। मैकाले की अवैध संतानों ने हमें बताया कि हम आर्य हैं, हम बाहर से आए हैं। लेकिन कहां से आए हैं उसका कोई उन्होंने सटीक जवाब नहीं दिया। कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया। मतलब यह कि किसी के पास आर्यों का सुबूत नहीं है, फिर भी साइबेरिया से लेकर स्कैंडेनेविया तक, हर कोई अपने-अपने हिसाब से आर्यों का पता बता देता है। विश्वविद्यालयों में बैठे बड़े-बड़े इतिहासकारों (मूर्ख) को इन सवालों का जवाब देना है। सवाल पूछने वाले को पहले लताड़ना है, उसे बुद्धिहिन घोषित करना है और फिर इतिहास के मूल प्रश्नों पर पर्दा डाला देना है।भारत की सरकारी किताबों में आर्यों के आगमन को आर्यन इन्वेजन थ्योरी कहा जाता है। इन किताबों में आर्यों को घुमंतू या कबीलाई बताया जाता है। यह ऐसे खानाबदोश लोग थे जिनके पास वेद थे, रथ थे, खुद की भाषा थी और उस भाषा की लिपि भी थी। मतलब यह कि वे पढ़े-लिखे, सभ्य और सुसंस्कृत खानाबदोश लोग थे। यह दुनिया का सबसे अनोखा उदाहरण है। यह थ्योरी मैक्स मूलर ने जानबूझकर गढ़ी थी।मैक्स मूलर ने ही भारत में आर्यन इन्वेजन थ्योरी को लागू करने का काम किया था, लेकिन इस थ्योरी को सबसे बड़ी चुनौती 1921 में मिली। अचानक से सिंधु नदी के किनारे एक सभ्यता के निशान मिल गए। कोई एक जगह होती, तो और बात थी। यहां कई सारी जगहों पर सभ्यता के निशान मिलने लगे। इसे सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाने लगा। अब सवाल यह पैदा हो गया कि यदि इस सभ्यता को हिन्दू या आर्य सभ्यता मान लिया गया तो फिर आर्यन इन्वेजन थ्योरी का क्या होगा। ऐसे में फिर धीरे धीरे यह प्रचारित किया जाने लगा कि सिंधु लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य।जब अंग्रेजों और उनके अनुसरणकर्ताओं ने यह देखा कि सिंधु घाटी की सभ्यता तो विश्वस्तरीय शहरी सभ्यता थी। इस सभ्यता के पास टाउन-प्लानिंग का ज्ञान कहां से आया और उन्होंने स्वीमिंग पूल बनाने की तकनीक कैसे सीखी? वह भी ऐसे समय जबकि ग्रीस, रोम और एथेंस का नामोनिशान भी नहीं था।..तो उन्होंने एक नया झूठ प्रचारित किया। वह यह कि सिंधु सभ्यता और वैदिक सभ्यता दोनों अलग अलग सभ्यता है। सिंधु लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य। आर्य तो बाहर से ही आए थे और उनके काल सिंधु सभ्यता के बाद का काल है। इस थ्योरी को हमारे यहां के वामी इतिहासकारों ने जमकर प्रचारित किया।यह बहुत बहुत प्रचारित किया जाता है कि आर्य बाहरी और आक्रमणकारी थे। उन्होंने भारत पर आक्रमण करके यहां के द्रविड़ लोगों को दास बनाया। पहले अंग्रेजों ने भी फिर हमारे ही इतिहाकारों ने इस झूठ का प्रचारित और प्रसारित किया। आर्य को उन्होंने एक जाति माना और द्रविड़ को दूसरी। इस तरह विभाजन करके उन्होंने भारत का इतिहास लिखा। दरअसल, विदेशी विभाजन में ही विश्वास रखते थे। उन्हीं का अनुसारण करने वाले हमारे देश में आज लाखों लोग हैं।
स्वामी विवेकानंद जैसे प्रभावशाली व्यक्ति जिन्हें खुद भारत माता के साक्षात् दर्शन प्राप्त हुए है, उन्होंने भारतवासियों को बताया कि “आर्य विदेशी नहीं बल्कि पूर्णरूप से भारतीय थे, आर्य भारतीय थे”.स्वामी जी भारत के इतिहास की संक्षिप्त व्याख्या देते हुए कहते हैं कि “भारत के किसी भी ग्रन्थ में आर्यों के विदेशी होने का प्रमाण नहीं है बल्कि आर्य भारतीय थे इसके प्रमाण जरूर मिलता है। आर्यों के विदेशी होने के जितने भी प्रमाण मिलते है, उनमेअधिकतर यूरोप के लोगों की भागीदारी है। यूरोप ने अपनी इच्छा अनुसार हम भारतियों के बीच हमारे विदेशी होने की बात फैला दी, ताकि हम अपने देश को अपना देश ना समझ केवल उसे एक आश्रय स्थल समझे.स्वामी जी कहते है.”यूरोप ने हमेशा ही एक दुसरे को लड़ा कर अपनी रोटियाँ सेंकनी चाही है, प्राचीन समय से ही उसकी नीतियां बहुत बर्बर रही है, अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए मानवता को जहाँ तक नुकसान पहुँचाया जाए उसके लिए कम था। जबकि आर्य इसके विपरीत थे, दूसरों का भला, सांसारिक समृद्धि और मानवता के उत्थान के लिए अच्छे कार्य यही सब उनका लक्ष्य था। इसके फलस्वरूप तभी प्राचीनभारत सम्रद्ध और सोने की चिड़िया था। आर्य शब्द का तो अर्थ ही ‘प्रगतिशील’ होता है।स्वामी जी के अनुसार प्रमाण के रूप में बात की जाए तो “भारत का एक नाम आर्यावर्त भी है, और इस के अलावा रामायण जैसे ग्रन्थ में कई बार आर्य शब्द का उपयोग हुआ है। आर्य शब्द का वर्णन वेदों में भी मिलता है, अगर आर्य भारतीय ना होते तो इस बात का वर्णन किसी ना किसी भारतीय ग्रन्थ में जरूर मिलता।
पहले इस मान्यता द्वारा द्रविड़ (दक्षिण भारतीय ) और उत्तर भारतीयों में फुट डलवाई गयी जबकि जिसके अनुसार उत्तर भारतीयों को आर्य बताया और उन्हें विदेशी कह कर मूलनिवासी दक्षिण भारतीयों का शत्रु बताया और हडप्पा और मोहनजोदड़ो को द्रविड सभ्यता बताया लेकिन फिर बाद में इन्होने द्रविड़ो को भी विदेशी बताया और भारत में मूलनिवासी दलित और आदिवासियों को बताया .. जबकि न तो उन्होंने आर्यों को समझा और न ही दस्युओ को ,वास्तव में आर्य नाम की कोई नस्ल या जाति कभी थी ही नही आर्य शब्द एक विशेषण है जिसका अर्थ श्रेष्ट है | और कई लोगो ,महापुरुषों और भाषाओ में आर्य शब्द का प्रयोग किया गया है | इस षड्यंत्र के तहत इन्होने आर्य को इरान का निवाशी बताया है और आज भी सीबीएसई आदि पुस्तको में यही पढ़ाया जाता है कि आर्य इरान से भारत आये जबकि ईरानियो के साहित्य में इसका विपरीत बात लिखी है वहा आर्यों को भारत का बताया है और आर्य भारत से ईरान आये ऐसा लिखा है जिसे हम सप्रमाण उद्द्रत करते है – “चंद हजार साल पेश अज जमाना माजीरा बुजुर्गी अज निजाद आर्यों अज कोह हाय कस्मने मास्त कदम निहादन्द | ब चू आवो माफ्त न्द दरी जा मसकने गुजीदन्द द आरा बनाम खेश ईरान खिया द न्द |”( जुगराफिया पंज किताऊ बनाम तदरीस दरसाल पंजुम इब्त दाई सफा ७५ ,कालम १ सीन अव्वल व चहारम अज तर्क विजारत मुआरिफ व शुरशुद अर्थ – अर्थात कुछ हजार साल पहले आर्य लोग हिमालय पर्वत से उतर कर यहा आये और यहा का जलवायु अनुकूल पाकर ईरान में बस गये | इस प्रमाण से आर्यों के ईरान से आने की कपोल कल्पना का पता चलता है और उसका खंडन भी हो जाता है |फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया में भारतीयों के डीनएनए गुणसूत्र पर आधारित एक अनुसंधान हुआ। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉं. कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसेंटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोधछात्र ज्ञानेश्वर चौबे ने अपने अनुसंधान में यह सिद्ध किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संतानें हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो और जो अनुवांशिक गुणसूत्र भारतवासियों में पाए जाते हैं वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए।शोधकार्य में वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान लगभग सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग 13000 नमूनों के परीक्षण-परिणामों का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनों के परीक्षण से प्राप्त परिणामों की तुलना मध्य एशिया, यूरोप और चीन-जापान आदि देशों में रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्रों से की गई। इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाले हैं, 99 प्रतिशत समान पूर्वजों की संतानें हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि भारत में आर्य और द्रविड़ विवाद व्यर्थ है। उत्तर और दक्षिण भारतीय एक ही पूर्वजों की संतानें हैं।शोध में पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व में कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीनएन गुणसूत्र तथा उत्तर भारतीय जातियों-जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति-आधार गुणसूत्र एकसमान है। उत्तर भारत में पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, दलित, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत में पाई जाने वाली जातियों के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं हैं।इसी तरह का एक अनुसंधान भारत और अमेरिका के वैज्ञानिकों ने भी किया था। उनके इस साझे आनुवांशिक अध्ययन अनुसार उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच बताई जाने वाली आर्य-अनार्य असमानता अब नए शोध के अनुसार कोई सच्ची आनुवांशिक असमानता नहीं है। अमेरिका में हार्वर्ड के विशेषज्ञों और भारत के विश्लेषकों ने भारत की प्राचीन जनसंख्या के जीनों के अध्ययन के बाद पाया कि सभी भारतीयों के बीच एक अनुवांशिक संबंध है। इस शोध से जुड़े सीसीएमबी अर्थात सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी (कोशिका और आणविक जीवविज्ञान केंद्र) के पूर्व निदेशक और इस अध्ययन के सह-लेखक लालजी सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि शोध के नतीजे के बाद इतिहास को दोबारा लिखने की जरूरत पड़ सकती है। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच कोई अंतर नहीं रहा है।
महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधव:। -अमरकोष 7।3
अर्थात : आर्य शब्द का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है।
आर्य शब्द का प्रयोग अनेक अर्थो में वेदों और वैदिक ग्रंथो में किया गया है , जिसे मुख्यत विशेषण ,विशेष्य के लिए प्रयोग किया गया है | निरुक्त ६/२६ में यास्क ” आर्य: ईश्वरपुत्र:” लिख कर आर्य का अर्थ ईश्वर पुत्र किया है | ऋग्वेद ६/२२/१० में आर्य का प्रयोग बलवान के अर्थ में हुआ है | ऋग्वेद ६/६०/६ में वृत्र को आर्य कहा है अम्बेद्कर्वदियो का मत है कि वृत्र अनार्य था जबकि ऋग्वेद में ” हतो वृत्राण्यार्य ” कहा है यहाँ आर्य शब्द बलवान के रूप में प्रयुक्त हुआ है जिसका अर्थ है बलवान वृत्र और वृत्र का अर्थ निघंटु में मेघ है अर्थात बलवान मेघ | इसी तरह वेदों के एक मन्त्र में उपदेश करते हुए कहा है ” कृण्वन्तो विश्वार्यम ” अर्थात सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ यहाँ आर्य शब्द श्रेष्ट के अर्थ में लिया गया है यदि आर्य कोई जाति या नस्ल विशेष होती तो सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ ये उपदेश नही होता | आर्य शब्द का विविध प्रयोग – ऋग्वेद १/१०३/३ ऋग. १/१३०/८ और १०/४९/३ में आर्य का प्रयोग श्रेष्ठ के अर्थ में हुआ है | ऋग्वेद ५/३४/६ ,१०/१३८/३ में ऐश्वर्यवान (इंद्र ) के रूप में प्रयुक्त हुआ है | ऋग्वेद ८/६३/५ में सोम के विशेषण में हुआ है | ऋग्वेद १०/४३/४ में ज्योति के विशेषण में हुआ है | ऋग्वेद १०/६५/११ में व्रत के विशेषण में हुआ है | ऋग्वेद ७/३३/७ में प्रजा के विशेषण में हुआ है | ऋग्वेद ३/३४/९ में वर्ण के विशेषण में हुआ है | ऋग्वेद १०/३८/३ में ” दासा आर्यों ” शब्द आया है यहाँ दास का अर्थ शत्रु ,सेवक ,भक्त आदि ले और आर्य का महान ,श्रेष्ट और बलवान तो दासा आर्य इस पद का अर्थ होगा बलवान शत्रु ,महान भक्त .श्रेष्ठ सेवक आदि | यहाँ दास को आर्य कहा है | अत: स्पष्ट है कि आर्य शब्द नस्ल या जातिवादी नही है बल्कि इसका अर्थ होता है महान ,श्रेष्ठ ,बलवान .ऐश्वर्यवान ,ईश्वरपुत्र , आदि जो की विश्व के किसी भी व्यक्ति ,जाति ,वंश के लिए प्रयुक्त हो सकता है|
” महाभारत में अनेक स्थलों के साथ साथ उद्योग पर्व में आर्य शब्द का उलेख है “ ” रामायण बालकाण्ड में आर्य शब्द आया है – • श्री राम के उत्तम गुणों का वर्णन करते हुए वाल्मीकि रामायण में नारद मुनि ने कहा है – आर्य: सर्वसमश्चायमं, सोमवत् प्रियदर्शन: | (रामायण बालकाण्ड १/१६) अर्थात् श्री राम आर्य – धर्मात्मा, सदाचारी, सबको समान दृष्टि से देखने वाले और चंद्र की तरह प्रिय दर्शन वाले थे “ ” किष्किन्धा काण्ड १९/२७ में बालि की स्त्री पति के वध हो जाने पर उसे आर्य पुत्र कह कर रुधन करती है |”
• श्री दुर्गा सप्तशती में श्री दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् के अंतर्गत देवी के १०८ नामों में से एक नाम आर्या आता है | (गीता प्रेस गोरखपुर पृष्ठ ९ • छन्द शास्त्र में एक छन्द का नाम आर्या भी प्रसिद्ध है | भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने जब देखा कि वीर अर्जुन अपने क्षात्र धर्म के आदर्श से च्युत होकर मोह में फँस रहा है तो उसे सम्बोधन करते हुए उन्होंने कहा – कुतस्त्वा कश्मलमिदं, विषमे समुपस्थितम् | अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यम्, अकीर्ति करमर्जुन | (गीता २/३) अर्थात् हे अर्जुन, यह अनार्यो व दुर्जनों द्वारा सेवित, नरक में ले-जानेवाला, अपयश करने वाला पाप इस कठिन समय में तुझे कैसे प्राप्त हो गया ? यहा श्री कृष्ण ने अर्जुन को आर्य बनाने के लिए अनार्यत्व के त्याग को कहा है | सिखों के गुरुविलास में आर्य शब्द का उलेख – ” जो तुम सुख हमारे आर्य | दियो सीस धर्म के कार्य | ”
बौद्धों के विवेक विलास में आर्य शब्द -” बौधानाम सुगतो देवो विश्वम च क्षणभंगुरमार्य सत्वाख्या यावरुव चतुष्यमिद क्रमात |” ” बुद्ध वग्ग में अपने उपदेशो को बुद्ध ने चार आर्य सत्य नाम से प्रकाशित किया है -चत्वारि आरिय सच्चानि (अ.१४ ) “ धम्मपद अध्याय ६ वाक्य ७९/६/४ में आया है जो आर्यों के कहे मार्ग पर चलता है वो पंडित है | जैन ग्रन्थ रत्नसार भाग १ पृष्ठ १ में जैनों के गुरुमंत्र में आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है – णमो अरिहन्ताण णमो सिद्धाण णमो आयरियाण णमो उवज्झाणाम णमो लोए सब्ब साहूणम “यहा आर्यों को नमस्कार किया है अर्थात सभी श्रेष्ट को नमस्कार • जैन धर्म को आर्य धर्म भी कहा जाता है | [पृष्ठ xvi, पुस्तक : समणसुत्तं (जैनधर्मसार)] जैनों में साध्वियां अभी तक आर्या वा आरजा कहलाती हैं काशी विश्वनाथ मंदिर पर आर्य शब्द लिखा हुआ है |
भारत के दलितों व जनजातीय समाज को द्रविड़ कहकर मूलनिवासी बताना व उनपर आर्यों के आक्रमण की षड्यंत्रकारी अवधारणा को स्वयं बाबा साहब अम्बेडकर सिरे से खारिज करते थे. बाबा साहब ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है – “आर्य आक्रमण की अवधारणा पश्चिमी लेखकों द्वारा बनाई गई है जो बिना किसी प्रमाण के सीधे जमीन पर गिरती है. आर्य जातिवाद की अवधारणा केवल कल्पना है और कुछ भी नहीं. अम्बेडकर जी आगे लिखते हैं – इस पश्चिमी सिद्धांत का विश्लेषण करनें से मैं जिस निर्णय पर पहुंचा हूँ व निम्नानुसार है –
वेदों में आर्य जातिवाद का उल्लेख नहीं है.
वेदों में आर्यों द्वारा आक्रमण व उनके द्वारा उन दास व दस्युओं (दलित व जनजातीय) पर विजय प्राप्त करनें का कोई प्रमाण नहीं है, जिन्हें भारत का मूल निवासी माना जाता है.
ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो आर्यों, दासों व दस्युओं में नस्लीय भेद को प्रदर्शित करता हो.
वेद इस बात का भी समर्थन नहीं करते कि आर्यों का रंग दासों या दस्युओं से अलग था.
स्पष्ट है कि आज बाबा साहब के नाम पर जो मूलनिवासी वाद का नया वितंडा खड़ा किया जा रहा है वह मूलतः दलितों व आदिवासियों में उपज व रच बस गए पश्चिमी व ईसाई धर्म प्रचारकों के दिमाग का षड्यंत्र भर है. दलित व जनजातीय समाज में एक नया संगठन बना है, जो मूलनिवासी की अवधारणा को लेकर चल रहा है. इस संगठन के लोग अभिवादन में भी ‘जय भीम’ की जगह ‘जय मूलनिवासी’ बोलने लगे हैं. ये लोग कहते हैं कि वे मूलनिवासी हैं और बाकी सारे लोग विदेशी हैं. वस्तुतः सच्चाई यह है कि भारत में रह रहे सभी मूल भारतीय यहां के मूलनिवासी हैं,
अगर अम्बेडकरवादी सच्चे अम्बेडकर को मानने वाले है तो अम्बेडकर जी की बातो को माने।वैसे अगर वो बुद्ध को ही मानते है तो महात्मा बुद्ध की भी बात को माने। महात्मा बुद्ध भी आर्य शब्द को गुणवाचक मानते थे। वो धम्मपद 270 में कहते है प्राणियो की हिंसा करने से कोई आर्य नही कहलाता। सर्वप्राणियो की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य अर्थात श्रेष्ठ व् धर्मात्मा कहलाता है। यह सिद्ध तथ्य है कि भारत में जो भी जातिगत विद्वेष व भेदभाव चला वह जाति व जन्म आधारित है क्षेत्र आधारित नहीं. वस्तुतः इस मूलनिवासी फंडे पर आधारित यह नई विभाजनकारी रेखा एक नए षड्यंत्र के तहत भारत में लाई जा रही है जिससे भारत को सावधान रहनें की आवश्यकता है. यह भी ध्यान देना चाहिए कि भारत में सामाजिक न्याय का व सामाजिक समरसता का जो नया सद्भावी वातावरण अपनी शिशु अवस्था से होकर युवावस्था की ओर बढ़ रहा है; कहीं उसे समाप्त करनें का यह नया पश्चिमी षड्यंत्र तो नहीं है ?!