श्री मोहन भागवत जी का उत्तर
अब ये जो अंग्रेजी के प्रभुत्व की बात है वो नीति में यानी संस्था में कहा वो तो हमारे मन में है। आज ये सामान्य अनुभव है कि भारत का उच्चभ्रू वर्ग भारतीय भाषाओं में जो बोल सकता है, हिन्दी भी जानते हैं दोनों, लेकिन मिलते हैं तो अंग्रेजी में बात करते हैं। तो हम अपनी मातृभाषाओं को सम्मान देना शुरू करें। भाषा भाव की वाहक होती है, संस्कृति की वाहक होती है। और इसलिए भाषाओं का रहना ये अनिवार्य बात है मनुष्य जाति के विकास के लिए। अपनी भाषा का पूरा ज्ञान हो, किसी भाषा से शत्रुता करने की जरूरत नहीं। अंग्रेजी हटाओ नहीं, अंग्रेजी रखों, यथास्थान रखो। अंग्रेजी का एक हौआ जो हमारे मन पर है उसको निकालना चाहिए। इंटरनेशनल लैंग्वेज हमेंशा कहते हैं लेकिन वास्तव में ऐसा है कि लोगों में अगर हम बात करते हैं तो यूरोप के देशों में दो भारतीय मिलने के बाद अंग्रेजी में बात करेंगे तो सबको समझ में नहीं आएगी, उनको भारतीय भाषाओं का प्रयोग करना पड़ता है क्योंकि जहां-जहां अंग्रेजों का प्रभुत्व रहा ऐसे देशों में अंग्रेजी का एक स्थान है। अमेरिका भी अंग्रेजी बोलती है लेकिन वो कहती है ब्रिटिश अंग्रेजी से हमारी अंग्रेजी अलग है। स्पैलिंग तक सब अलग-अलग हैं। फ्रांस में जाएंगे फ्रेंच चलेगी। इसराइल में आपको पढ़ने जाना है तो हिब्रू पढ़कर जाना पड़ेगा। राशिया में जाना है तो रशियन सीख कर जाना पड़ेगा। चीन, जापान सब अपनी-अपनी भाषा का प्रयोग सब अपनी-अपनी बातों में करते हैं। उन्होंने प्रयासपूर्वक इसको किया है। हमको ये प्रयास करने पड़ेंगे। जितना हम स्वभाषा में काम चलाएंगे और सबसे समृद्ध भाषाएं हमारे पास हैं। हम ये कर सकते हैं, हम करने को हो जाएं तो ये हो जाएगा। अंग्रेजी से हमारी कोई शत्रुता नहीं है। उत्तम अंग्रेजी बोलने वाले चाहिए। और दुनियां में भी अपने अंग्रेजी व्यक्तित्व की छाप बना सकते हैं ऐसे अंग्रेजी बोलने वाले लोग हमारे देश के भी होने चाहिए। भाषा के नाते किसी भाषा से शत्रुता हम नहीं करते, लेकिन देश की उन्नति के नाते हमारी मातृभाषा में शिक्षा हो इसकी आवश्यकता है। फिर आता है कि हमारी तो अनेक भाषाएं है। एक भाषा हमारी क्यों नहीं है? तो किसी एक भारतीय भाषा को हम सीखे। इसका मानस हमको बनाना पड़ेगा। हिन्दी की बात स्वाभाविक रूप से चली है, पुराने समय से चली है। अधिक लोग हिन्दी बोलते हैं इसलिए चली है। लेकिन ये मन बनाना पड़ेगा। कानून बनाने से नहीं होगा, थोपने से नहीं होगा। आखिर एक भाषा की बात हम क्यों कर रहे हैं इसलिए हमको देश को जोड़ना है। एक भाषा बनाने से अगर देश में यूरोप खड़ा होता है आपस में कटुता बढ़ती है तो हमको तो यह सोचना चाहिए कि मन हम कैसा बनाएं। मेरा अनुभव ऐसा कहता है, हिन्दी ठीक है कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन हिन्दी में काम करना पड़ता देश में अधिकांश भाग में इसलिए अन्य प्रांतों के लिए बहुत से लोग हिन्दी सीख रहे हैं, हिन्दी सीखते हैं। हिन्दी प्रांतों के लोगों का हिन्दी में चल जाता है, इसलिए दूसरी भाषा नहीं सीखते। क्यों न हिन्दी बोलने वाले लोगों ने भी दूसरे किसी प्रांत की एक भाषा को सीखना चाहिए। तो ये मन मिलाप जल्दी होगा, हमारी एक राष्ट्र भाषा और उसमें सारा कारोबार, ये काम जल्द ही हो जायेगी। ये करने की आवश्यकता है।
संस्कृत के विद्यालय घट रहे हैं और महत्व नहीं दिया जा रहा है, कौन नहीं देता? हम महत्व नहीं देते इसलिए सरकार भी नहीं देती। अगर हमारा आग्रह रहे कि अपनी परम्परा का सारा साहित्य लगभग संस्कृत में है। तो हम संस्कृत सीखें, हमारे बच्चे सीखें। कम से कम बोलचाल कर सकें इतना सीखें। इस दिशा में लगे हैं संघ के स्वयंसेवक। संस्कृत के प्रचार-प्रसार के दो-तीन काम चलते हैं। अच्छे पले-बढ़ रहे हैं। लेकिन ये अगर हमारा मानस बने तो अपनी विरासत का अध्ययन भी ठीक से हो सकेगा और अपनी भी कोई भाषा है और वो इतनी श्रेष्ठ भाषा है कि संगणक के सर्वाधिक उपयोग वही भाषा, ये सारी बातें पता चलेंगी। ये गौरव बनता है, तो समाज में उसका चलन बढ़ता है। चलन बढ़ता है तो विद्यालय भी फिर से खुल जाते हैं। पढ़ाने वाले भी मिल जाते हैं नीतियों को भी समाज का मानस प्रभावित करता है। ये काम करने की बहुत जरूरत है तो हम करते नहीं हैं और कोई करे ऐसा टिकाने का विचार करते हैं, फिर कभी होने वाला नहीं है। तो और फिर वरीयता का प्रश्न है, ये वरीयता प्रश्न गलत है। भारत की सारी भाषाएं मेरी भाषा है। और जहां मैं रहता हूं वहां की भाषा बोलता हूं। ये होना चाहिए। अपनी मातृभाषा पूरी आनी चाहिए। जहां में रहता हूं वहां की भाषा आत्मसात करनी चाहिए और पूरे भारत की एक भाषा तो हम बनाएंगे। वो श्रेष्ठ है इसलिए नहीं, वो सर्वाधिक उपयुक्त है आज के समय में इसलिए बनाएंगे। उसको भी सीखना चाहिए और फिर आपकी रुचि है। आवश्यकता है। तो कोई भी विदेश की भाषा सीखिए उसमें विदेशी लोगों से ज्यादा प्रवीण बनिये। उसमें भारत का गौरव है।