नरेन्द्र सहगल : समस्त संसार में भारतवर्ष ही एकमात्र ऐसा सनातन राष्ट्र है जिसमें गुरु शिष्य की महान एवं अतुलनीय परम्परा को जन्म दिया है। शिक्षण संस्थाओं में छात्रों को पढ़ाने वाले अध्यापक, प्राध्यापक, शिक्षक, व्यापार जगत में ट्रेनिंग देने वाले उस्ताद, मास्टर और राजनीतिक क्षेत्र में अपना प्रभाव जमाने वाले तथाकथित महान नेता विश्व के प्रत्येक कोने में पाए जाते हैं परन्तु मनुष्य को सम्पूर्ण ज्ञान देकर उसे किसी विशेष ध्येय के लिए समर्पित हो जाने की प्रेरणा देने वाले श्रीगुरु केवल भारत की धरती पर ही अवतरित होते हैं। इन्हीं श्रीगुरुओं के तपोबल को शिरोधार्य करके हमारे देश के असंख्य, संतों, महात्माओं, योद्धाओं, स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत के भूगोल, संस्कृति, धर्म और राष्ट्र जीवन के मूल्यों की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व झोंक दिया। ऐसी मान्यता है कि इस गुरु परम्परा में आद्य श्रीगुरु महर्षि व्यास थे। इसीलिए भारत में व्यास पूजा के उत्सव का श्रीगणेश हुआ। इस दिन विशाल हिन्दू समाज (जैन, सिख, सनातनी, आर्यसमाजी,शैव, वैष्णव, लिंगायत, बौद्ध इत्यादि) के अधिकांश हिन्दू लोग गुरु-पूजन की परम्परा को अस्था और श्रद्धा के साथ निभाते हैं। श्रीगुरु एवं गुरुकुल भारतवर्ष के समग्र राष्ट्र जीवन के उद्गम स्थल और रक्षक रहे हैं। डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार द्वारा 1925 में नागपुर में स्थापित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी उपरोक्त श्रीगुरु परम्परा को आगे बढ़ाते हुए भारतवर्ष के राष्ट्रजीवन के प्रत्यक्षदर्शी, प्रतीक एवं पहचान परम पवित्र भगवा ध्वज को अपना श्रीगुरु स्वीकार किया है। यह भगवा ध्वज मामूली कपड़े का एक साधारण झंडा न होकर भारतवर्ष की सनातन राष्ट्रीय पहचान है। भारत के वैभव, पतन, संघर्ष और उत्थान का साक्षी है। इसीलिए कहा गया है कि -‘‘भगवा ध्वज निश्चिय ही भारतवर्ष के आदर्शों और आकांक्षाओं का, उसके इतिहास और परम्पराओं का, उसके वीरों और संतों के शौर्य और तप का सर्वाधिक वंदनीय और जगमगाता प्रतीक है’’। यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा होता है कि संघ ने किसी व्यक्ति विशेष अथवा किसी ग्रंथ को अपना श्रीगुरु स्वीकार क्यों नहीं किया? उत्तर बहुत सीधा और सरल है। संघ का उद्देश्य भारतवर्ष का सर्वांगीण विकास अथवा सर्वांग स्वतंत्रता है। कोई अकेला व्यक्ति या ग्रंथ कितना भी महान एवं विशाल क्यों न हो वह समस्त राष्ट्र जीवन एवं अतीत से आज तक के इतिहास का प्रतिबिंब, जानकार और प्रतीक नहीं हो सकता। कोई एक महापुरुष (व्यक्ति) अथवा महाग्रंथ (पुस्तक) भारत की अनेक जातियों,रीति-रिवाजों, भाषाओं और पूजा पद्धतियों का प्रतिनिधित्व भी नहीं कर सकता। समय की आवश्यकता अनुसार अपने भारतवर्ष में अनेक संप्रदायों,विचारधाराओं एवं मजहबी गुटों की स्थापना हुई। इन सबके अपने-अपने श्रीगुरु एवं ग्रंथ भी अस्तित्व में आए। भारत के धर्म और संस्कृति में इस तरह की स्वतंत्रता है। ये भिन्नता नहीं अपितु विविधता है। यही विविधता हमारे राष्ट्र जीवन का सशक्त आधार है। पवित्र भगवा ध्वज इसी विविधता को जोड़े रखने, संवर्धित करने और सुरक्षित रखने की क्षमता रखता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य और उद्देश्य व्यक्ति, परिवार, आश्रम और संस्था केन्द्रित न होकर समाज और राष्ट्र केन्द्रित है और वैसे भी व्यक्ति कभी भी पथभ्रष्ट, उद्देश्यभ्रमित और विकट परिस्थितियों में डांवाडोल हो सकता है। इसी तरह से कोई भी बड़े से बड़ा महाग्रंथ भी समय की आवश्यकता अनुसार अपने को ढाल लेने में असमर्थ होता है। ग्रंथ अपने सम्प्रदाय का संचालन और दिशा निर्देश करने में तो सक्षम हो सकता है परन्तु किसी विशाल राष्ट्र जीवन को अपने में नहीं समेट सकता। अतः भारतवर्ष में उत्पन्न हुए सभी महापुरुषों, संतों, योद्धाओं, ग्रंथों नेताओं की प्रेरणा और एकता का आधार सनातन काल से चला आ रहा भगवा ध्वज ही है। संघ का कार्य और उद्देश्य राष्ट्र केन्द्रित है। राष्ट्र एक सांस्कृतिक इकाई होती है। देश एक भौगोलिक इकाई का नाम होता है। राज्य एक राजनीतिक इकाई होती है और सरकार प्रशासन चलाने वाली एक एजेंसी कहलाती है। भगवा ध्वज भारत की राष्ट्रीय संस्कृति की पहचान है इसीलिए वह भारतवर्ष का सांस्कृतिक ध्वज है। इस ध्वज का सम्बन्ध जाति, मजहब और, क्षेत्र विशेष से कदाचित नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक जब अपने इस श्रीगुरु भगवा ध्वज की पूजा करते हैं तो उस पूजा का अर्थ भी जातिगत अथवा व्यक्तिगत नहीं होता। भगवा ध्वज की वंदना का अर्थ है भारत के सभी धर्मग्रंथों, महापुरुषों, अवतारों, धर्मरक्षकों, धर्मगुरुओं, देवी-देवताओं, महान योद्धाओं और चैतन्यमयी देवी भारतमाता की पूजा। आधुनिक भाषा के अनुसार 33 करोड़ देवी-देवताओं की पूजा। यहां यह भी ध्यान देना चाहिए कि भगवा रंग और भगवा ध्वज को किसी कालखंड में बांधा अथवा समेटा नहीं जा सकता। जब मानवता का विभाजन हिन्दू,मुस्लिम, ईसाई इत्यादि जातियों में नहीं हुआ था उससे भी लाखों करोड़ों वर्ष पूर्व भगवा रंग और भगवा ध्वज का अस्तित्व था। वेदों में इसी ध्वज को‘अरुण केतवाः’ सूर्य का रथ कहा गया है। अतः भारत में रहने वाली सभी जातियों मजहबों का आदि रंग एवं ध्वज यह भगवा ही है। इसी ध्वज की छत्रछाया में और प्रेरणा से भारतीयों ने निरंतर 1200 वर्षों तक विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध संघर्ष किया है। इसी तरह संघ के स्वंयसेवक इसी ध्वज को अपना श्रीगुरु मानकर इससे बलिदान, त्याग, तपस्या और सेवा की प्रेरणा लेते हैं। उपरोक्त संदर्भ में यह स्पष्टीकरण देना भी आवश्यक और महत्वपूर्ण है कि वर्तमान में तिरंगा हमारे देश का राष्ट्र ध्वज है। संघ इसे स्वीकार करता है। इसको सम्मान देता है। संघ के स्वयंसेवक जिन्होंने तिरंगे के सम्मान की रक्षा के लिए जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद, गोवा, नगर हवेली, हुगली इत्यादि स्थानों में सैकड़ों की संख्या में बलिदान दिए हैं, आगे भी इसके सम्मान के लिए अपनी जीवनाहुति देने से कभी पीछे नहीं हटेंगे। परन्तु इस सच्चाई को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि यदि तिरंगा देश का शरीर है तो भगवा राष्ट्र की आत्मा है। अतः भगवा भारत का सनातन काल से चला आ रहा सांस्कृतिक ध्वज है और तिरंगा वर्तमान भारत का राष्ट्र ध्वज है। राष्ट्र ध्वज तिरंगे के आगे समस्त भारतवासियों के साथ संघ के स्वयंसेवक सदैव नतमस्तक हैं। इसी तरह अपने भारतवर्ष के सांस्कृतिक ध्वज के आगे संघ के स्वयंसेवकों के साथ समस्त भारतवासियों को भी नतमस्तक होना चाहिए।
भारतवर्ष के सम्पूर्ण राष्ट्रजीवन के प्रतीक, भगवान भास्कर के उदय की प्रथम रणभेरी, भारतीय संस्कृति की पूर्ण पहचान और भारत के वैभवकाल से लेकर आजतक के कृमिक इतिहास के प्रत्यक्षदर्शी परम पवित्र भगवा ध्वज को श्री गुरु मानकर राष्ट्र के पुर्नउत्थान में कार्यरत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक देश और विदेश में ‘भगवा जागरण’ के लिए कठिबद्ध है भारतवर्ष पुनः जगदगुरु के सिंहासन पर विराजमान हो इस हेतु कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ते जा रहे हम स्वयंसेवक किसी की सहायता, अनुदान, आर्थिक सहारे और प्रमाण पत्र पर आश्रित नहीं हैं। सम्भवतः संघ ही विश्व का एकमात्र ऐसा विशाल संगठन है जो विचारधारा (हिन्दुत्व), उद्देश्य (परम वैभव), कार्यपद्धिति (नियमित शाखा) और पवित्र साधनों (श्रीगुरु दक्षिणा) के साथ अपने स्वयं के मजबूत आधार पर खड़ा है।
वास्तव में संघ की वास्तविक पहचान है संघ का स्वयंसेवक और स्वयंसेवक की पहचान है त्याग, बलिदान, तप, सेवा और समर्पण। इन सभी गुणों को हम स्वयंसेवक भगवा ध्वज से प्राप्त करते हैं। श्रद्धाभाव से किया गया समर्पण गुरु दक्षिणा कहलाता है। इस समर्पण की कोई सीमा अथवा परिधि नहीं होती। तन-मन-धन के समर्पण के साथ आत्मसमर्पण के अंतिम पड़ाव तक पहुंचना यही श्रद्धाभाव है। यहीं से मोक्ष की यात्रा प्रारम्भ होती है। यह भी सत्य है कि मनुष्य के अंतिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ की यात्रा का कोई एक मार्ग भी नहीं हो सकता। संत महात्मा ज्ञान के मार्ग से इस यात्रा को प्रारम्भ करते हैं। अनेक महापुरुष भक्ति के माध्यम से इस यात्रा पर निकलते हैं। कई सज्जन पुरुष नर सेवा – नारायण सेवा के रास्ते पर चलकर मोक्ष की ओर बढ़ते हैं। वीर योद्धा रणभूमि में प्राणोत्सर्ग करके मोक्ष प्राप्त करते हैं। भामाशाह जैसे धनाढ्य अपना सब कुछ राणा प्रताप जैसे वीर पुरुष को समर्पित करके राष्ट्र सेवा का अनूठा आनन्द लेते हैं। उनके लिए यही मोक्ष का सर्वोत्तम मार्ग है। संघ के स्वयंसेवक समाजसेवा, धर्मरक्षा और राष्ट्र भक्ति के रास्ते पर चलते हुए मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं।
बगदादी जैसे दुर्दांत दहशतगर्द समझते हैं कि दुनियाभर से सज्जन लोगों को समाप्त करके जो बचेगा, वही उनके लिए खुदा की नियामत होगी। दहशतगर्दी के रास्ते से ‘निजाम-ए-मुस्तफा’ की हुकूमत की स्थापना करना। अर्थात खुदा के बंदों का साम्राज्य खड़ा करना, ये मार्ग भी अख्तयार किया जा रहा है। इसके खतरे से संसार कांप उठा है। विश्व में तलवार के जोर पर कत्लोगारत करके सज्जन लोगों को एक ही मार्ग पर चलने के लिए बाध्य करने का रास्ता है यह। जाहिर है इस रास्ते में विवेक नाम की कोई चीज नहीं है, मानवता भी कहीं नजर नहीं आती। इसी तरह एक और मानव समुदाय ने भी सेवा की आढ़ में दुनियाभर में जिस साम्राज्य की स्थापना की थी उसने कई मानवीय सभ्यताओं को समाप्त कर दिया। गरीबी और गुरबत के मारे लोगों को सेवा के झांसे में फंसाकर अपने मजहब से शिकंजे में लेकर उनके मूल धर्म, समाज और राष्ट्र का दुशमन बना देना इनके मोक्ष का मार्ग बन गया। हमारे देश भारत के लोगों (हिन्दुओं) के गौरवशाली इतिहास को बिगाड़ने में कुछ हद तक सफल रहे इन लोगों ने हमारे राष्ट्रीय/धार्मिक अस्तित्व को समाप्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परिणामस्वरूप आज हमारे देश में काले अंग्रेजों का बोलबाला है। एक तीसरे वर्ग ने भी मजदूरों और किसानों के नाम पर पूरे विश्व पर अपना परचम लहराने की कोशिश की थी। लाल सलाम की भावुकता के साथ दुनिया के मजदूरों को एक हो जाने का आवाहन किया था। ‘पूंजीवाद का सर्वनाश और ‘मेहनतकशों का राज इन दो ध्येयवाक्यों के साथ ये लोग प्रारम्भ में तो बहुत शीघ्र ही सफलता की सीढ़ियां चढ़ गए। 70 से भी ज्यादा देशों में छा जाने में कामयाब हो गए। परन्तु जिस गति के साथ ये लोग आगे बढ़े थे उससे कहीं ज्यादा गति के साथ इनके ताश के सभी महल गिर गए। कारण स्पष्ट है यहां भी विवेक और मानवता नहीं थे। ये लोग तो धर्म, संस्कृति और राष्ट्रवाद के ही शत्रु साबित हुए। इनके लिए आत्मा परमात्मा की अवधारणा अफीम जैसे थी और है। इन्होंने भी मानवता का खून बहाने में कोई परहेज नहीं किया।
चौथी श्रेणी है भगवा रंग वालों की। ब्रह्माण्ड की उत्पति के साथ ही यह रंग अस्तित्व में आ गया था। सूर्य की पहली किरण ने इसी रंग का आवरण ओढ़ा था। तब से लेकर आज तक इस भगवा रंग के धवजवाहकों ने विवेक, मानवता, सेवा, समपर्ण का मार्ग नहीं छोड़ा। वैराग्य और बलिदान के करोड़ों उदाहरणों को अपने में समेटे हुए इस रंग के अनुयायियों ने कभी भी किसी पराए देश पर आक्रमण नहीं किया। कभी भी किसी की भौगोलिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक स्वतंत्रता नहीं छीनी। किसी का बलात धर्मान्तरण भी नहीं किया। अलबत्ता अन्य देशों के सताए, भगाए और प्रताड़ित लोगों को अपने घर में शरण दी। यह अलग बात है कि इनमें से कुछ जातियां आक्रांता के रूप में आईं थीं और हमारे ही धर्म-संस्कृति को जड़मूल से समाप्त करने के काम में जुटी रहीं। इतिहास साक्षी है कि जब तक हमारे देश में भगवा लौ प्रज्वलित रही, समाज संगठित और शक्तिशाली रहा। हमने अनेक आक्रांताओ को आत्मसात कर लिया। परन्तु जब भगवा लौ क्षीण हुई, हम परास्त हो गए। इतना ही नहीं हम सदियों पर्यन्त परतंत्र भी रहे। विदेशी और विधर्मी शक्तियों ने हमारे भूगोल, धर्म-संस्कृति और समाज पर कब्जा कर लिया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने गहरे अध्ययन, विस्तृत अनुभव और प्रत्यक्ष व्यवहार के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला कि जब तक भारत में प्रचंड गति के साथ भगवा जागरण (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) नहीं किया जाएगा तब तक हमारी स्वतंत्रता, संस्कृति और भूगोल पर खतरे मंडराते रहेंगे। इसी मंथन में से संघ का जन्म हुआ। एक शक्तिशाली हिन्दू संगठन का कार्य प्रारम्भ हुआ और देखते ही देखते यह संगठन विश्व का सबसे बड़ा शक्तिशाली और अनुशासित संगठन बन गया। संघ के स्वयंसेवक आज राष्ट्र जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सक्रिय हैं। सर्वविदित है कि भगवा ध्वज की छत्रछाया में इन स्वयंसेवकों ने राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में हिन्दुत्व अर्थात भारतीयता की अलख जगाई है। देश और विदेश में प्रगति की मंजिलें पार कर रहे संघ पर भले ही कितने आरोप लगे हों परन्तु संघ के स्वयंसेवक राष्ट्र के प्रति समर्पण और सेवा भाव के साथ अपना तन-मन-धन भगवा जागरण के लिए समर्पित कर रहे हैं। संघ पर अब यह भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि संघ के सभी संगठनों को धन कहां से मिलता है। यह प्रश्न वही लोग उठाते हैं जो स्वयं सरकारी सहायता पर निर्भर हैं। जिन्होंने भ्रष्टाचार के माध्यम से धन के अंबार लगाए हैं। जिनके अस्तित्व का आधार ही धन है। इन्हें शायद यही समझ में नहीं आता कि संघ के अस्तित्व का आधार धन नहीं, स्वयंसेवक/कार्यकर्ता हैं।
संभवतः संघ विश्व का एकमात्र ऐसा संगठन है जिसकी समस्त गतिविधियों का संचालन स्वयंसेवक अपने धन से करते हैं। कार्यालयों, अधिकारियों के प्रवास, कार्यक्रमों के आयोजनों और नित्य प्रति की शाखा गतिविधियों पर व्यय होने वाले समस्त धन की व्यवस्था, स्वयंसेवक स्वयं स्फूर्ति से करते हैं। उल्लेखनीय है कि स्वयंसेवकों द्वारा श्रीगुरु दक्षिणा के रूप में अर्पित किया गया धन संघ की ही गतिविधियों पर व्यय होता है। इस धन में से एक रुपया भी कहीं और नहीं जाता। संघ में सदस्यता शुल्क, चंदा, उपहार, नोटों के हार जैसा कोई प्रचलन नहीं है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने एक अदभुत पद्धति का आविष्कार किया है, अपने श्रीगुरु परम पवित्र भगवा ध्वज के पूजन के रूप में वर्ष में एक बार श्री कार्यक्रम में स्वयंसेवक श्रद्धापूर्वक अपनी भेंट चढ़ाते हैं और आगामी वर्ष के लिए आर्शीवाद लेते हैं।
पूजा का अर्थ है समर्पण की भावना को प्रकट करना। अभावों में भी श्रद्धाभाव के साथ, कष्ट उठाते हुए भी, निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर जो भी दिया जाता है, वही सच्चा समर्पण है। इसी को श्रीगुरु दक्षिणा कहते हैं। संघ की मान्यता है कि आत्मत्याग, आत्मयज्ञ और आत्मबलिदान के द्वारा ही भगवा जागरण (सांस्कृतिक राष्ट्रवाद) की लौ प्रज्वलित होगी। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, योगेश्वर श्रीकृष्ण, जगदगुरु शंकराचार्य, समर्थ गुरु रामदास, श्री गुरु नानकदेव, तुलसीदास, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, स्वामी रामतीर्थ और महर्षि अरविंद जैसे हजारों संत महात्माओं ने भगवा ध्वज की लौ को प्रज्जवलित रखने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया था। हम स्वयंसेवक भी भगवा ध्वज के सामने अपना अधिक से अधिक समय और धन देने की प्रतिज्ञा के साथ श्रीगुरु दक्षिणा करते हैं।