डॉ. शंकर शरण : कुछ वर्ष पहले विश्व-प्रसिद्ध टाइम मैगजीन ने अमेरिकी पत्रकार डैनियल पर्ल के हत्यारे तथा 11 सितंबर की तबाही में संलग्न कुख्यात आतंकवादी मुहम्मद शेख पर पूरे एक पृष्ट का लेख छापा था। उस में शेख का चित्रण अनेक प्रशंसनीय विशेषणों के साथ किया गया था। कि वह भला, मददगार, मृदुभाषी आदि जैसा व्यक्तित्व था। इस का प्रमाण? आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इतने सुंदर गुणों से उस भयंकर आतंकवादी को विभूषित करने के लिए, जिसने पशु की तरह गला रेत कर पर्ल की हत्या की थी, टाइम ने शेख के अपने भाई के कथन को ही प्रमाण मान लिया ! कितना सरल विश्वास। संपादकों को यह भी ध्यान न रहा कि किसी भयंकर आतंकवादी, हत्यारे के व्यक्तिगत गुण, यदि हो भी, तो उस के बखान की कोई तुक नहीं। क्योंकि उस की पूरी कुख्याति जिस कारण बनी, वह बात कुछ और है। (क्या आपने कभी नाथूराम गोडसे के निजी गुणों और मनोहर चरित्र का बखान कहीं पढ़ा है?)
किंतु पश्चिमी मीडिया में इस्लामी आतंकवादियों के विवरणों में सदैव एक संजीदगी, लगभग आदरपूर्ण भाव प्रायः मिलता है। तब इसे कैसे समझें कि उसी मीडिया में गुजरात के मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी का उल्लेख करते हुए कभी संजीदगी तक नहीं पाई जाती! मोदी के प्रति सम्मान या किसी गुण का उल्लेख तो दूर की बात रही। यदि ओसामा बिन लादेन, जिस से पश्चिम दस वर्ष से अधिक समय से सब से आतंकित रहा, उस के बारे में भी पश्चिमी मीडिया के सभी विवरण कोई एकत्र करें तो कुल मिलाकर लादेन की एक सम्मानजनक, चाहे दबदबे वाली छवि उभरती है। इस की तुलना में नरेंद्र मोदी के बारे में पश्चिमी मीडिया में आए सभी विवरणों से निकलने वाली छवि घृणा और वितृष्णा की बनती है। इतने विचित्र असंतुलन को किस प्रकार समझा जाए?
पिछले दो दशकों में पूरे विश्व में आतंकवाद से सबसे अधिक पीड़ित देशों में भारत संभवतः सर्वोपरि है। किंतु यदि अमेरिकी, यूरोपीय मीडिया और अकादमिक जगत के विश्लेषणों की समीक्षा करें तो आश्चर्यजनक रूप से उन में भारत का उल्लेख लगभग नदारद रहता है। यहाँ तक कि वे पाकिस्तान को भी ‘आतंकवाद से पीड़ित’ देशों में गिनने लगे हैं – जहाँ सभी आतंकवादी संगठनों के मजबूत ठिकाने और सहयोगी जमे हुए हैं। पिछले दस-बारह वर्षों में विश्व में ऐसी एक भी आतंकवादी घटना नहीं ढूँढी जा सकती जिस के तार कहीं न कहीं पाकिस्तान से न जुड़े हुए हों! उस पाकिस्तान को तो पश्चिमी मीडिया में आतंकवाद से पीड़ित देश कह दिया जाता है। किंतु भारत में हुए अंतहीन आतंकी विध्वंस और देश के कोने-कोने – वंधामा, गोधरा, अक्षरधाम, नंदीमर्ग, मराड, मुंबई, जम्मू, दिल्ली, मऊ, वाराणसी, जयपुर, आदि – में केवल हिन्दुओं या मुख्यतः हिन्दुओं की सामूहिक हत्याओं के बारे में कहा जाता है कि यह सब ‘कथित रूप से’ आतंकवादी कारवाइयाँ थीं। यानी कुछ और थीं या हो सकती हैं!
भारत में होने वाली आतंकवादी घटनाओं का समाचार भी पश्चिमी मीडिया बिना संपादकीय मिलावट के कम ही देता है। छित्तीसिंहपुरा, गोधरा, आदि बड़े-बड़े आंतकवादी हमलों को संदिग्ध रूप में पेश किया गया था। जयपुर में हुए पिछले आतंकवादी हमले पर सी.एन.एन. के स्क्रॉल पर समाचार ऐसे था कि भारत इन विस्फोटों को ‘आतंकवादी’ हमला कह रहा है। इस प्रकार दुनिया भर को सी.एन.एन. ने यह संदेश दिया कि प्रथम, उसे यह मालूम नहीं है कि वे विस्फोट किस प्रकृति के हैं, तथा दूसरे, भारत का उसे आतंकवादी घटना कहना विश्वसनीय नहीं भी हो सकता है। बाद में भी सी.एन.एन. ने कभी नहीं बताया कि उस की अपनी सूचना के अनुसार वह क्या था?
अर्थात, सी.एन.एन. नितांत भोला, अनजान बना रहा कि जयपुर में क्या हुआ था। वह कोई अपवाद प्रस्तुति नहीं थी। न ही केवल एक विशेष विदेशी समाचार चैनल की विशेषता। बी.बी.सी. लंदन में होने वाली आतंकी गतिविधियों के जिम्मेदार लोगों, संगठनों आदि के लिए ‘आतकंवादी’ संज्ञा, विशेषण का प्रओग करता है, किन्तु भारत में होने वाली बड़ी से बड़ी आतंकवादी कार्रवाइयों पर भी वह करने वालों को ‘मिलिटेंट्स’ कहने से आगे नहीं बढ़ता।
दरअसल, घटिया मनोरंजन कार्यक्रमों, मुंबइया सिनेमा तथा क्रिकेट – मात्र इन तीन में चाहे-अनचाहे आकंठ डूबे सामान्य भारतवासी विदेशी मीडिया की भारत संबंधी प्रस्तुति पर ध्यान नहीं देते। किंतु यदि नियमित ध्यान दें, और उस का फलितार्थ समझने का कष्ट करें तो अत्यंत चिंताजनक परिदृश्य बनता है।
पश्चिमी मीडिया में विश्वव्यापी आतंकवाद के विश्लेषणों में भी सक्रिय आतंकवादी संगठनों के क्रियाकलापों में भी प्रायः अल-कायदा, हमास, तालिबान, मुस्लिम ब्रद्ररहुड आदि की ही चिंता की जाती है। हरकत-उल-मुजाहिदीन, जैशे-मुहम्मद, लश्करे तोयबा, हूजी, सिमी, इंडियन मुजाहिदीन आदि संगठनों की चर्चा नगण्य रहती है। यह इस के बावजूद कि इन संगठनों की अंतर्राष्ट्रीय सक्रियता और आपसी संबंध बारं-बार प्रकट होते रहे हैं। अमेरिकी, यूरोपीय नेतागण भी विश्व-व्यापी आंतकवाद पर भाषणों में केवल अपने देशों और पश्चिम एसिया की चिंता करते हैं। भारत में हुई बड़ी से बडी आतंकवादी घटना उन के मस्तिष्क में या तो दर्ज भी नहीं होती, अथवा तुरत विस्मृत हो जाती है। यह मात्र आतंकवाद संबंधी विषयों में ही नहीं है।
सी.एन.एन. और बी.बी.सी समाचार चैनलों अथवा टाइम, न्यूजवीक जैसी विश्व-प्रसिद्ध समाचार-पत्रिकाओं को नियमित देखने वाले पाएंगे कि भारत संबंधित समाचारों, वक्तव्यों के चयन व प्रस्तुति में सदैव एक अमैत्रीपूर्ण, दया-प्रदर्शन या नकचढ़ा रुख रहता है। इन पत्रिकाओं में चीन, सऊदी अरब, पाकिस्तान, जैसे तानाशाही प्रणाली वाले देशों के बारे में भी नियमित लेख और टिप्पणियाँ मिलती हैं जो संवेदना, सहानुभूति, आदर या सदभाव से भरी होती हैं। पर वहीं भारत के बारे में ऐसा एक भी लेख, टिप्पणी, तस्वीर या कुछ भी खोजना बहुत कठिन है जो नितांत सकारात्मक कही जा सके। कभी-कभार भारत की आर्थिक, वैज्ञानिक उपलब्धियों की चर्चा में भी नकारात्मक छौंक इतनी तीखी होती है कि पढ़कर अंतिम निष्कर्ष भारत के प्रति बेचारगी या नाराजगी का ही रहता है।
यदि अमेरिकी पत्र-पत्रिकाओं के कथ्य पर नियमित दृष्टि रखें तो स्पष्ट दिखेगा कि उन के तथा अमेरिकी विदेश विभाग के दृष्टिकोण में जबर्दस्त ताल-मेल रहता है। जब पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ ने तख्ता पलट कर जबरन सत्ता हथियाई थी (1999) तो अमेरिकी साप्ताहिक न्यूजवीक ने तीखी आलोचना के साथ उस की पहली रिपोर्ट छापी। कि किस तरह पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही का दौर-दौरा रहा है, किस तरह बेचारी जनता तरह-तरह के जेनरलों के हाथ पिसती रही है, आदि। किंतु अगले ही अंक में ‘जेंटील जेनरल’ कहकर मुशरर्फ की और पाकिस्तान के भविष्य की इतनी गुलाबी तस्वीर खींची गई कि इस पूरी तरह बदले स्वर पर दंग रह जाना पड़ा! मजे की बात है कि दोनों ही रिपोर्ट-विश्लेषण एक ही वरिष्ट रिपोर्टर द्वारा लिखित थे। विदेशों में प्रसारित होने वाले अमेरिकी पत्र-पत्रिकाओं की यही सामान्य रीति-नीति है। कि वे अमेरिकी विदेश विभाग की तात्कालिक नीति के अनुरूप ही अपना वैदेशिक दृष्टिकोण रखते हैं।
इस के उदाहरण अनगिनत हैं और रोज मिलते रहते हैं। कम्युनिस्ट चीन 1979 से पहले तक पश्चिमी विश्व के भयंकर शत्रु के रूप में चित्रित होता था। किंतु जब अमेरिका ने सोवियत रूस के विरुद्ध चीन को अपनी ओर खींचने की नीति अपनाई और चीन को सबसे चहेता देश (‘मोस्ट फेवर्ड नेशन’) का दर्जा दिया – तब से अमेरिकी मीडिया में भी चीन के प्रति एक स्थाई सदभावना पैदा हो गई। वही कम्युनिस्ट सत्ता जिस ने अपने करोड़ों लोगों को मूर्खतापूर्ण माओवादी प्रयोगों में होम कर दिया; जहाँ आज भी एक पार्टी की तानाशाही है; प्रेस पर प्रतिबंध है; तिब्बत में दमन जारी है; जिस ने अवैध रूप से परमाणु आयुधों के प्रसार का काम भी किया; जहाँ ईसाई मिशनरियों पर आज भी अंकुश है; जहाँ स्वयं पोप को भी पैर रखने तक की अनुमति आज तक नहीं दी गई है … ऐसे रिकॉर्ड और मानवाधिकार-विरोधी छवि के बावजूद चीन अमेरिकी मीडिया में सर्वाधिक आदर-मान पाने वाला देश है! उस देश के सत्ताधारियों की ‘चिंता’ को सहानुभूतिपूर्वक समझने, वहाँ विकास की चुनौतियों का आकलन करने, प्रगति का स्वरूप दिखाने आदि में अमेरिकी मीडिया गजब की संवेदना प्रदर्शित करता है। जबकि वही मीडिया भारत को सदैव किसी न किसी बात पर नीचा दिखाने, निंदित करने, उपदेश देने या खिल्ली उड़ाने के अतिरिक्त शायद ही कभी कुछ करता है।
जब देंग सियाओ पिंग पूर्णतः अशक्त हो चुके थे, तब भी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और संपूर्ण सत्ता उन के आदेश पर चलती थी (4 जून 1989 को ताइनानमेन स्क्वायर पर निह्त्थे छात्रों पर उन्हीं की सलाह से टैंक चलवाए गए थे)। लेकिन देंग के बारे में कभी कोई खिल्ली उड़ाता लेख टाइम मैगजीन ने नहीं छापा था। पर जब यहाँ अटल बिहारी वाजपेई प्रधान मंत्री थे तो उस ने ऐसा कुत्सापूर्ण लेख प्रकाशित किया कि यह रोगी, भोगी, अशक्त आदमी है जिस के पास न्यूक्लियर अस्त्रों के प्रयोग का अधिकार भी है। इस से भारत को और दुनिया को कितना खतरा है, आदि। जब इस की यहाँ आलोचना हुई तो स्वयं कुछ प्रमुख भारतीय बुद्धिजीवियों ने टाइम की ही उग्र पैरोकारी की। उन्होंने उस लेख की दुर्भावना और स्पष्ट भारत-विरोध का कोई नोटिस नहीं लिया।
और ठीक इसी बात में हमारी विडंबना का संकेत मिलता है।
आखिर, पश्चिमी मीडिया भारत के प्रति उपेक्षा या हिकारत किस बूते रखता है? उत्तर बड़ा दुखद है। जब दिल्ली स्थित विदेशी पत्रकारों से पूछा जाता है कि वे भारत के प्रति इतनी कुत्सित, नकारात्मक और एकांगी रुख क्यों रखते हैं तो वे धड़ल्ले से कहते हैं कि हम तो वही लिखते हैं जो आपके ही प्रमुख पत्रकार और बुद्धिजीवी बोलते हैं। यह बात काफी हद तक सच भी है। जहाँ पश्चिमी मीडिया अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अपने-अपने देशों के हित के प्रति सचेत रहता है, वहाँ हमारे बड़े पत्रकार वैदेशिक मामलों में भी अपनी राजनीतिक झक चलाते हैं। जब केंद्र में भाजपा-नीत सरकार थी, तब हमारे दो बड़े अंग्रेजी अखबारों इंडियन एक्सप्रेस और द हिंदू के संपादक (क्रमशः शेखर गुप्ता और एन. राम) तथा अरुंधती राय एक पाकिस्तानी अखबार के निमंत्रण पर पाकिस्तान गए। वहाँ इन्होंने लाहौर, कराची और इस्लामाबाद में अपने भाषणों, सेमिनारों और इंटरव्यू में जो बातें कहीं वह ध्यान देने और स्मरण रखने लायक हैं। उदाहरण के लिए, उन्होंने यह सब कहाः “भारत की सरकार अंधराष्ट्रवादी है जिस से भारत और पड़ोसी देशों को खतरा है”; “हमारा रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस संदेहास्पद चरित्र का, अवसरवादी, अंधराष्ट्रवादी नजरिए का आदमी है”; “भारत में भाजपा सरकार ने परमाणु नीति का अपहरण कर लिया और पाकिस्तान को भी विवश होकर उसी नीति पर चलना पड़ा”; “भारत का एक-एक मुसलमान देशभक्त है और इसीलिए गुजरात में जो हुआ उस पर हमें बहुत तीखा एतराज है”; “बंबई के (1993 में) बम-विस्फोटों के लिए आई.एस.आई. पर आरोप लगाया गया, जबकि यह (हालात?) हिंदू दक्षिणपंथियों का बनाया हुआ था”, आदि।
हमारे दो सबसे बड़े पत्रकारों और एक राजनीतिक लेखिका ने यह बातें अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में कही। वैसा ही कहने, लिखने वाले हमारे देश में अनेकानेक बड़े संपादक, प्रोफेसर और स्तंभकार हैं। इसलिए यह बात तो सच है कि भारत के बारे में हमारे सेक्यूलर-वामपंथी पत्रकार, बुद्धिजीवी जो कुत्सा फैलाते हैं उसी का उपयोग कर विदेशी हमारे मुँह पर कालिख पोतते हैं। वे जान-बूझ कर ऐसे ही स्वरों का चुनाव करते हैं, और इसीलिए अन्य स्वरों की अनदेखी करते हैं। किंतु इस से यह बात और दुःखद हो जाती है कि हमारे प्रमुख पत्रकार, बुद्धिजीवी अपनी राजनीतिक झक में देशहित की कोई परवाह नहीं करते। न ही विदेशियों द्वारा भारत की पक्षपाती, अनुचित अवमानना से कोई दुःख महसूस करते हैं। उलटे वे पश्चिमी संस्थाओं, सरकारों और एजेंसियों को भारत-विरोधी मुहिम में तरह-तरह से सहयोग देते हैं।
उन्हीं की आड़ में अमेरिकी विदेश विभाग, अंतर्राष्ट्रीय ईसाई मिशनरी संगठन और विदेशी मीडिया इसीलिए इतनी ठसक से हमारे विरुद्ध विष-वमन और दबाव डालने की कार्रवाई करते रहते हैं। विनायक सेन प्रसंग इस का ताजातरीन उदाहरण है। हमारे मीडिया ने हमारी न्यायिक व्यवस्था में विदेशी एजेंसियों, विदेशी सरकारों के निराधार हस्तक्षेप की कोई आलोचना नहीं की। न ही उन के एजेंडे पर उँगली उठाई। क्योंकि मीडिया के एक प्रभावशाली हिस्से के लिए भाजपा विरोध के लिए हर चीज जायज हो जाती है। वे यह भी देखने से अंधे हो जाते हैं, कि अंध भाजपा-विरोध और हिन्दू-विरोध बड़ी सरलता से भारत-विरोध में परिणत हो जाता है। हमारे जो रेडिकल, वामपंथी और सेक्यूलरवादी बुद्धिजीवी कश्मीर में ‘इंडियन आर्मी’ की भर्त्सना ‘हिन्दू मिलिटरी बूट’ कहकर इस्लामपरस्ती दिखाते हैं, वे उस क्षण देख नहीं पाते कि वे भारत और हिन्दू को समानार्थी मानकर भारत-विरोध में लग जाते हैं। विदेशी तो केवल उन के सहारे अपना अहंकार और हित तुष्ट करते हैं। क्या हम इस चिंता-जनक परिदृश्य को समझने से भी इंकार करते रहेंगे?
( ये लेखक के अपने विचार हैं।)