चंडीगढ़, 23 जनवरी संस्कृति और मूल्य बदल रहे हैं, किन्तु दोष उनका नहीं। जीवात्मा तो वही है, जो सृष्टि के आरंभ से ही विभिन्न रूपों में जन्म लेकर संसार में आ-जा रही है। उसके मूल गुण नहीं बदल सकते। संकट उन गुणों को भुला दिए जाने का है। मनुष्य ने अन्य के साथ मनुष्य के नाते व्यवहार करना छोड़ दिया है। व्यवहार के कई स्तर बना लिए। आज व्यक्ति अपनी पत्नी व संतान के लिए कर सकता है वैसा परिजनों और संबंधियों के लिए भी नहीं करता। इसके बाद जो स्थान बचता है, वह मित्रों, परिचितों के लिए होता है। उसका धीरे-धीरे अन्य के प्रति अनुदार और उदासीन होते जाना मानव सभ्यता के लिए बड़ी चेतावनी है। कभी गांव और नगर के साथ स्वयं को जोड़ा जाता था। देश और समाज के प्रति प्रेम व चिंता होती थी। अब वह अनुभूतियां लुप्त हो गई हैं। ये शब्द मनीषीसंतमुनिश्रीविनयकुमारजीआलोक ने सैक्टर 24सी अणुव्रत भवन में सभा को संबोधित करते हुए कहे।
मनीषीसंत ने आगे कहा सामाजिक सरोकार अब मंचों की शोभा और शब्दों का सौंदर्य बनकर रह गये हैं। यह मानने वाले कितने हैं कि पड़ोस में जो हुआ है, वह हमारे साथ भी हो सकता है। संसार और देश की तो जाने दें, अपने नगर और गांव की सुधि लेने का समय नहीं है। अपने- अपने दायरों में सिमटे हुए लोग खुशियों को तरसते हैं। जीवन का सच्चा आनन्द अपनी बनाई परिभाषाएं तोड़ कर ही मिलेगा। ईश्वर ने संसार में खुश और संतुष्ट रहने के अनंत कारण उत्पन्न किये हैं। प्रति क्षण संसार में कुछ न कुछ सुंदर घटित हो रहा है। सवाल स्वयं को उससे जोडऩे का है। इसके लिए परमात्मा का अंश होने की संवेदनशीलता होनी चाहिए। सारे जीव परमात्मा का ही अंश है, इसलिए यह अनुभूति उसे एक व्यापक परिवार का अंग बनाती है। आज जिन महापुरुषों का नाम आदर से लिया जाता है, वे सारे संसार को अपना परिवार समझ कर आगे आए थे।
मनीषीसंत ने कहा सद्गुण एक ऐसी पूंजी है, जिसका कभी क्षय नहीं होता। याद रखें, विपत्ति में सद्गुण ही काम आते हैं। एक संवेदनशील मनुष्य हमेशा अच्छा और सकारात्मक ही सोचता है। प्राय: जन्मजात रूप में सभी इंसान अनेक सद्गुणों से युक्त होते हैं। अलग-अलग आयु में मनुष्यों के सम्मुख उभरने वाली जीवन की असहज, कठिन और असाध्य परिस्थितियां उन्हें उनकी मूल चेतना व स्वभाव से विमुख कर देती हैं। इन परिस्थितियों में यदि कोई इंसान अपने मूल स्वभाव और मानवीय सद्गुणों के साथ डटा रहता है तो उसका जीवन न केवल उसके लिए, बल्कि जीवन के सहज मार्ग से भटके हुए दूसरे लोगों के लिए भी विशाल प्रेरणास्रोत बनता है। यदि मनुष्य हारी-बीमारी में भी अपने विनयी, सदाचारी, दयालु, प्रेमी, करुणामयी, परोपकारी, संयमित और मानवीय भावों से पूर्ण व्यवहार को नहीं छोड़ता तो फिर दुनिया में कोई भी कष्ट उसे कष्ट प्रतीत नहीं होता। इस विशिष्ट गुण को धारण करनेवाले इंसानों के जीवन में मुश्किलें आती भी हैं, पर उन्हें विचलित किए बिना खत्म भी हो जाती हैं।
मनीषीश्रीसंत ने अंत मे फरमाया इस तरह व्यक्तित्व में समाहित प्राकृतिक सद्गुणों के साथ अपनी आत्मचेतना को संजीवित रख हम किसी भी तरह की जीवन परिस्थिति में हंसते-खेलते समायोजित हो जाते हैं। मनुष्य जिन्हें अपना मानता है, उनके साथ अपनी सारी भावनाएं जोड़ देता है। जीवन भर वह इस दायरे में रहकर सुख या दुख का अनुभव करता रहता है।
मनुष्य जिन्हें अपना मानता है, उनके साथ अपनी सारी भावनाएं जोड़ देता है। वह अपने लिए एक सुविधाजनक दायरा बना लेता है। जीवन भर वह इस दायरे में रहकर सुख या दुख का अनुभव करता रहता है। इससे उसके सुख और दुख के अवसर संकुचित हो जाते हैं। उसने अपने जीवन के मानदंड भी संकुचित कर लिए हैं। संतान, धन, पद, संपत्ति और शक्ति के अर्जन को वह ख़ुशी के कारण मानता है। इनके चले जाने से वह दुखी होता है। उसके पास सब कुछ होता है, फिर भी वह असंतुष्ट और खिन्न रहता है। ऐसा संसार में अधिकांश लोगों के साथ हो रहा है।