मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून। वेद ईश्वरीय ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में आदि चार ऋषियों को परमात्मा से प्राप्त हुआ था। वेदों का ज्ञान परमात्मा ने ऋषियों को उनकी आत्मा में प्रेरणा द्वारा स्थापित किया था। हम जब किसी के शब्दों का पूरा पूरा संग्रह करना होता है, उसे जानना व समझना होता है, तब हमारा प्रयास होता है कि हम उस मनुष्य के द्वारा उच्चारित उसके समस्त व अधिकांश भाग को श्रवण करके सुरक्षित कर लें। ऐसा करने के लिये हमें अपनी आंखे बन्द कर अपना पूरा ध्यान वाचक के शब्द व वाक्यों के श्रवण में लगाना होता है। इससे हम अधिक से अधिक वक्ता की बातों को जान पाते हैं। यदि हम आंखे खुली रखें और हमारा मन वक्ता व वहां उपस्थित श्रोताओं के दर्शन भी करता रहे तो हमारे मन के अनेक विषयों पर आकर्षित होने के कारण हम पूरा-पूरा ज्ञान श्रवण नहीं कर पाते। आदि ऋषियों ने भी परमात्मा से ज्ञान लेते हुए योगी व ऋषियों की भांति पूर्ण ध्यानपूर्वक समाधि की स्थिति में ईश्वरीय ज्ञान को प्राप्त किया था। समाधि की स्थिति में प्राप्त ज्ञान जाग्रत अवस्था की स्थिति में प्राप्त ज्ञान की तुलना में अधिक बोधजन्य व स्थाई होता है, ऐसा हम अनुभव करते हैं। वेद ज्ञान इस प्रकार से चार ऋषियों अग्नि, वायु आदित्य व अंगिरा को अन्तर्यामी परमात्मा की ऋषियों की आत्माओं में प्रेरणा के द्वारा प्राप्त हुआ। समाधि अवस्था में ही उन्हें ईश्वर से इस ज्ञान को ब्रह्मा जी को प्रदान करने की प्रेरणा भी हुई थी। इस कार्य के लिये परमात्मा ने ब्रह्मा जी को बनाया व तत्पर किया था। ब्रह्मा जी को ज्ञान दिये जाने के बाद उस ज्ञान को शेष मनुष्यों में प्रसारित करना था। इस कार्य को ब्रह्मा जी ने अकेले या पांचों ऋषियों ने मिलकर किया, ऐसा अनुमान होता है।
परमात्मा का ज्ञान आदि सृष्टि में दिया गया था। उस समय अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों को वेद से इतर किसी प्रकार का ज्ञान नहीं था। किसी भाषा का ज्ञान भी उन्हें नहीं था जिस कारण वह न तो सोच सकते थे और न ही बोल सकते थे। बोलने के लिये सोचना पड़ता है और सेचने के लिये भाषा की आवश्यकता होती है। ब्रह्मा जी व इतर चार ऋषियों ने मिलकर सभी लोगों को बैठा कर भाषा सहित वेदों का उनकी पात्रता के अनुसार जितना अधिक से अधिक सम्भव हो सका होगा, ज्ञान दिया था। ऐसा माना जाता है और यह सम्भव भी है कि सृष्टि के आरम्भ का मनुष्य शारीरिक व बौद्धिक क्षमताओं में आज के मनुष्य से कहीं अधिक सामर्थ्यवान् था। इस कारण उसने वेदों का ज्ञान अति शीघ्रता से प्राप्त कर लिया था। इस व्यवस्था के अस्तित्व में आने के बाद ब्रह्मा जी आदि ऋषियो ंने सभी मनुष्यों के लिये वेद सम्मत सामाजिक व्यवस्था का शुभारम्भ किया था। उसी सामाजिक व्यवस्था को इसके बाद भी हमारे ऋषि, मुनि व विद्वान चलाते रहे और आज भी वेद, वैदिक साहित्य तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से इस व्यवस्था को जाना जा सकता है। प्राचीन व आदि काल से ही वैदिक समाज व्यवस्था मनुष्यों के गुण, कर्म, स्वभाव व सामर्थ्य पर आधारित थी जिसका कारण वेदों में इसका विधान व प्रेरणा का होना है। वैदिक काल में किसी मनुष्य के साथ किसी प्रकार का पक्षपात, शोषण व अन्याय नहीं होता था। वैदिक राजा व न्याय व्यवस्था निरंकुश न होकर प्रजा का हित व उनकी रक्षा करने वाली थी। इसलिए प्रजा हित के लिए सभी उपाय व प्रबन्ध राजपुरुष किया करते थे। महाभारतकाल के बाद मध्यकाल व उत्तरोत्तर काल में अज्ञानी व वाममार्गीयों ने अपनी अज्ञानता व कुत्सित मान्यताओं के कारण अर्थ का अनर्थ किया जिससे समाज में विषमतायें उत्पन्न हुई।
वेद का मुख्य प्रयोजन एवं सन्देश सभी मनुष्यों को सन्मार्ग बताने के लिये उन्हें ईश्वर, जीव, प्रकृति सहित उनके सभी कर्तव्यों एवं विद्याओं का बीज रूप में ज्ञान देना रहा है। परमात्मा ने ऋषियों को वेदों का ज्ञान देने के साथ आदि ऋषियों व इतर मनुष्यों में वेद ज्ञान से अपनी सभी समस्याओं का निवारण कर जीवन उन्नति करने की सभी प्रकार की शारीरिक, आत्मिक व बौद्धिक क्षमतायें प्रदान की थीं। आज भी मनुष्य का निर्माण माता के गर्भ में व उसके बाद परमात्मा के बनाये सृष्टि नियमों द्वारा ही होता है। इसमें मनुष्य के भोजन व संस्कारों का भी विशेष महत्व होता है। वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने के बाद यह तथ्य सामने आता है कि मनुष्य का मुख्य उद्देश्य ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति को जानकर मनुष्य जीवन की उन्नति करना है। इसके लिये पंच महायज्ञों का वैदिक विधान जो ऋषि दयानन्द जी ने हमारी आवश्यकताओं के अनुरुप किया है हमें उपलब्ध है। ऐसा ही व इससे मिलता जुलता किंचित न्यूनाधिक सन्ध्या व यज्ञादि का विधान महाभारत काल व उससे पूर्व के समय में भी रहा होगा। वेद और वैदिक साहित्य साधारण मनुष्य को ज्ञान प्रदान कर उसे देव व ऋषि कोटि का विद्वान मनीषी बनाने का मुख्य साधन है। यदि वेद न होता तो मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा के स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव, ईश्वर की उपासना की यथार्थ विधि, पंचमहायज्ञों, संस्कारों, मनुष्य जीवन के उद्देश्य व उसकी प्राप्ति के साधन, भक्ष्याभक्ष्य, गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार युवावस्था में विवाह, चार आश्रमों तथा ब्रह्मचर्य आदि के महत्व को न जान पाता। हमारा सौभाग्य है कि हम ऋषि दयानन्द जी की कृपा व उनके साहित्य से वेदों के सत्यस्वरूप तथा वेदमन्त्रों के सत्य अर्थों को जानने सहित समग्र वैदिक विचारधारा व सिद्धान्तों को समझने में समर्थ हो सके। आज हम गाय का जो महत्व जानते हैं वह वेद ज्ञान से रहित मनुष्य नहीं जानते। वेद ज्ञान से अनभिज्ञ शिक्षित लोगों को सच्चा विद्वान व ज्ञानी भी नहीं कहा जा सकता। पुनर्जन्म का सिद्धान्त वेदों पर ही आधारित है। इसका ज्ञान वेदानुयीयियों को ही अधिक होता है। हमारे पास पुनर्जन्म के समर्थन में तर्क व युक्तियां हैं और पुराने ग्रन्थकारों व वेदों के प्रमाण भी हैं। वेदों में नारी का जो उज्जवल स्वरूप, उसके कर्तव्य व अधिकार आदि का उल्लेख मिलता है वैसा संसार के किसी धार्मिक व सामाजिक साहित्य में नहीं मिलता। वेदों के प्रवर विद्वान आचार्य डॉ. रामनाथ वेदालंकार जी ने ‘‘वैदिक नारी’ नाम से एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में उन्होंने वैदिक नारी के जीवन के विभिन्न पक्षों पर वेद के प्रमाणों से प्रकाश डाला है। यह पुस्तक सभी नारी व पुरुषों को पढ़नी चाहिये। इससे नारी को अपने जीवन को ऊंचा उठाने में मार्गदर्शन प्राप्त होगा। वेदों को हमें इस लिये भी पढ़ना चाहिये कि वेदों में सभी विद्याओं का आदि मूल है। आज भी वेदों का अध्ययन करके अनेक विषयों से सम्बन्धित कई रहस्यों को जाना जा सकता है।
वेदों का अध्ययन मनुष्य का जीवन व चरित्र दोनों को ऊंचा उठाता है। वेदों का अध्येता मनुष्य दुर्गुणों, दुर्व्यसनों तथा दुःखों से दूर रहता है। अनेक दुःख हमारे अज्ञान, दुर्गुणों व दुर्व्यसनों का ही परिणाम होते हैं। वेदों का अध्ययन कर व उसके अनुसार आचरण कर मनुष्य उन दुर्गुणों आदि से बच जाता है। हमें वेदान्मुख होना है न कि वेदविमुख। वेदोन्मुख होकर ही हम आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति कर सकते हैं। वेदों के महत्व के विषय में बहुत कुछ कहा जा सकता है। वेदों का महत्व जानने के लिये हमें ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि आदि सभी ग्रन्थों सहित उनके वेदभाष्य का अध्ययन व मनन करना चाहिये। उच्च कोटि के वैदिक आर्य विद्वानों का साहित्य भी पढ़ना चाहिये। इनमें हम स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी वेदानन्द तीर्थ, पं. बुद्धदेव मीरपुरी, पं. शिवशंकर शर्मा, पं. विश्वनाथ विद्यालंकार, आचार्य डॉ. रामनाथ वेदालंकार, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, स्वामी धर्मानन्द सरस्वती, पं. शिवकुमार शास्त्री आदि का साहित्य पढ़कर लाभ उठा सकते हैं। वेदों का अध्ययन करते हुए हम अपने व्यवसाय से सम्बन्धित साहित्य का भी अध्ययन कर सकते हैं। मनुष्य का कर्तव्य सत्य को ग्रहण तथा असत्य का त्याग करना है। वेदों के मार्ग पर चलना व दूसरों को वेद के मार्ग पर चलने की प्रेरणा करना भी सब मनुष्यों का कर्तव्य है।
वेदों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का जैसा यथार्थ चित्रण उपलब्ध होता है वैसा ही इन सत्ताओं का स्वरूप हमें जगत में देखने को मिलता है। युक्ति व तर्क से भी वेद वर्णित स्वरूप सत्य सिद्ध होता है जबकि पौराणिक व अन्य सभी मतों में ईश्वर व जीव आदि से सबंधित वेद विरुद्ध मिथ्या बातों की अधिक भरमार है। इससे वह सभी मत सत्यासत्य मिश्रित विष संयुक्त अन्न के समान त्याज्य है। वेदों में किसी प्रकार की कोई ऐतिहासिक व काल्पनिक कथा का वर्णन नहीं है। अन्य सभी मत व पंथ के ग्रन्थों में किस्से, कहानियां व कथायें उपलब्ध होती हैं। इससे वेद ग्रन्थ विद्या के ग्रन्थ सिद्ध नहीं होते। वेदों की सभी मान्यतायें ज्ञान व विज्ञान के सिद्धान्तों के अनुकूल हैं जबकि यह कसौटी मत-पन्थ के ग्रन्थों पर लागू नहीं होती। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वेद ही सर्वमान्य एवं आदर्श धर्म ग्रन्थ हैं। वेद के अनुरूप व समान संसार में कोई ग्रन्थ नहीं है। जो व्यक्ति आर्यसमाज के अनुयायी हैं वह संसार में सबसे अधिक भाग्यशाली हैं कि उन्हें ईश्वर ज्ञान वेद सुलभ हैं और वह उसका स्तुति, प्रार्थना, उपासना, यज्ञ, संस्कार आदि में उपयोग करते हैं। वेद विश्व की सर्वोत्कृष्ट भाषा वैदिक आर्ष संस्कृत में हमें ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि के स्वरूप सहित सृष्टि के सभी रहस्यों का परिचय देते हैं और हमारे कर्तव्यों का बोध भी प्रदान करते हैं। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।