जसविंदर, चंडीगढ़ : ‘भूखे पेट से धर्म की चर्चा नहीं हो सकती।’ किसी भी रूप में धर्म को इस सब के लिए जवाबदार मानें बिना उनकी मान्यता थी कि समाज की यह दुरावस्था (गरीबी) धर्म के कारण नहीं हुई बल्कि इस कारण हुई कि समाज में धर्म को इस प्रकार आचरित नहीं किया गया जिस प्रकार किया जाना चाहिए था.’ विवेकानंद
समाज की मुलभुत इकाई आदमी है परन्तु क्या आज का मानव जिसका जन्म लाखों सालों की प्रकिर्या के बाद हुआ है वह एक आधुनिक युग में रह रहा है क्या उसको धर्म की आवश्यकता है ?
अगर आवश्यकता है भी क्या वह धर्म को जानता है ।आज इस युग में हर व्यक्ति का अपना धर्म है ।
वह न तो पुरानी दकियानूसी बातो में विस्वास रखता है ।कुछ लोगो का विस्वास है की मन्दिर
मस्जिद में घंटा बजाना या चादर चढाना ही धर्म है।परन्तु आज का युवक इन बातों को धर्म नही मानता चादर को किसी गरीब का तन ढकने
में और किसी को मन्दिर में दूध चढ़ाने की बजाय वह किसी घरीब को पिलाने में ज्यादा विस्वास रखता है। विवेकानंद जी कहते थे;जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो। उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो।’ जो बातों का बादशाह नही, बल्कि उसे करके दिखाता है। वही प्रेरक इतिहास रचता है।“ उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्यस-मनुष्यष में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। समता के सिद्धान्त का जो आधार विवेकानन्द ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके। विवेकानन्द पुरोहितवाद, धार्मिक आडम्बरों, कठमुल्लापन और रूढ़ियों के सख्त खिलाफ थे।
उन्होंने धर्म को मनुष्य की सेवा के केन्द्र में रखकर ही आध्यात्मिक चिंतन किया था। उन्होंने यह विद्रोही बयान दिया था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मन्दिरों में स्थापित कर दिया जाये और मन्दिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाये।
उनका कहना था कि दुनिया के सभी धर्म एक ही ध्येय की तरफ जाने के अलग अलग रास्ते हैं। इन्सान की सेवा ही सच्चा धर्म है। ऐसी शिक्षा उन्होंने भारतीयों को दी। उन्होंने जाति व्यवस्था पर प्रहार किया एवं मानवतावाद और विश्वबंधुत्व का प्रसार किया। एक प्रार्थना सभा में विवेकानंद ने कहा था- भाइयों! कहो कि नंगा भारतीय, अशिक्षित भारतीय, हरिजन भारतीय मेरा भाई है। बहनों! अपनी आवाज और ऊंची उठाकर कहो कि भारत में सिर्फ मानव ही आराध्य है। भारत के लिए मानव संस्कृति का विकास बहुत जरुरी है। आज वर्तमान समय में विवेकानंद के विचारों पर ध्यान देना अधिक प्रासंगिक है, उनका कहना था कि `नया भारत किसानों के हल, मजदूरों की भट्टी, झोपड़ियों, जंगलों, किसानों और मजदूरी से जन्म लेगा ।’परन्तु अगर आज का युवा इन बातों पर चले तो उन्हें संस्कृति विरोधी क्यों करार दिया जाता है ।आज भारतीय नारी हर जगह आदमियों को टक्कर दे रही है क्या उस संस्कृति के बोझ तले दबे उस आर्यवर्त के उस महान खून से ये बात सहन हो रही है जो उस आदमी ने खून में संस्कृति का बोझ ढोया है जैसा की विवेकानंद जी कहते थे अभी तक लाश ले के घूम रहे है उस संस्कृति की, शब्द तो वह नही हैजो उन्होंने बोले थे पर भाव मेरे वही है मैंने अपनी जाती या धर्म की लड़के या लडकी से शादी करनी है क्योकि हमने उस संस्कृति जो हमारे खून में है उसको बचा कर रखना है किसको बचा कर रखना है। संस्कृति या अपनी अहंकार को , विवेकानंद एक सभ्य समाज का निर्माण करना चाहते थे। जिसमे सभी समान भाव से रहे पर आज तो विवेकानंद के नाम पर भी राजनीती होती है ।उनके पोस्टर दिखा कर राजनितिक दल वोट मांगते है विवेकानंद को सिर्फ पोस्टर पर लगाना उनका अपमान है उनके विचारों का अनुसरण करना जरूरी है।युवा को शक्ति कहने स्वामी विवेकानंद , युवा की शक्ति भी किसी अच्छे कार्य की बजाय हिन्दू मुस्लिम करने वाले नेता सही इस्तेमाल कर रहे है हिंदूवादी नेता जिनको हिन्दू शब्द की परिभाषा भी नही पता वह उस युवा शक्ति को बता रहें है हिन्दू खतरे में है मुस्लिमों को लगता है मुस्लिम खतरे में है पर असल में तो युवा शक्ति का भविष्य खतरे में है न उनके पास रोजगार है न रोटी फिर तुम भूखे लोगो को धर्म सिखाने चले हो!विवेकानंद मानवता वादी धर्म के पक्ष में थे पर यह मानवता तो दूर की बात है भाई को भाई काटने में लगा है। किसी को पशु से प्यार है तो किसी को मूर्तियों से पर इस धरा पर मानव ही प्यार की भाषा भूल गया है क्योकि उन्होंने विवेकानंद को किताबो में ढूंढने की कोशिस की पर वह तो हर गरीब और लांछित, कुन्छित दलित , मजदूर के अंदर है। सारी शक्ति तुम्हारे अंदर है बहार तो कुछ भी नही है अब समय आ गया है विवेकानंद को अपने अंदर से बाहर और समाज में उनके आदर्शो को पुनः स्थापित करने का