श्वेता चक्रवर्ती : कोई भी कर्म का फ़ल तब ही हमें मिलता है जब उस कर्म के पीछे हमारे विचार, भावनायें, मान्यताएं व धारणाएं जुड़ी हो।
आसक्ति, अहंकार, लोभ और भय इत्यादि विचार एवं भावनाएं सामान्य जीवन मे कर्म की प्रेरणा देते हैं, या परिस्थितियाँ हमें कर्म करने के लिए प्रेरित करते है। दोनों ही केस में मनुष्यकर्म बन्धन में बंधता है। कभी पाप तो कभी पुण्य का अनवरत कर्मफ़ल जन्मजन्मांतर से मिलता रहता है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इससे बचने का एक उपाय है कि कर्म में योग डाल दो। प्रत्येक कर्म को ईश्वरीय निमित्त बनकर उन्हें समर्पित करते हुए करो, प्रत्येक कर्म में ध्यान व भक्ति जोड़ दो।
उदाहरण – मेरे चरण जब भी चलते हैं वो कण कण में व्याप्त परमात्मा की परिक्रमा कर रहे होते हैं। मेरे हाथ विभिन्न कार्य द्वारा परमात्म चेतना की सेवा कर रहे होते हैं। मेरे आंख कान नाक मुँह इत्यादि समस्त पंच कर्मेन्द्रिय, पंच ज्ञानेंद्रिय और एक मन भगवान की सेवा व गुरुसेवा में ही लगा हुआ है। जीव, वनस्पति, मानव मात्र सबमें परमात्मा है, उनके लिए किया कोई भी कर्म ईश्वरीय सेवा हेतु है। हे ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो। इस विचार एवं भाव से किया कर्म बन्धन मुक्त होता है।
कर्मयोग न कर्म बदलता है और न ही परिस्थितियों को नहीं बदलता है, कर्म योग केवल मनःस्थिति बदलता है और कर्म करने के पीछे के भाव को ईश्वरीय भक्ति से जोड़ता है। निमित्त बनकर इंसान कर्म करता है और वह बंधनमुक्त रहता है।