मनीषा सिंह बाईसा : आधुनिक परिभाषा में आणविक शास्त्रका विवेचन करते समय पाश्चात्य लोग मॉलिक्यूल (molecule) ,एटम (atom) और सब-पारटिकल्स (sub-particles)यह परिभाषा प्रयोग करते हैं । यह सारी प्राचीन वैदिक संस्कृति है । मॉलिक्यूल यही शब्द लें । वह ‘मूल कणानाम् कुलम्’ यानी ‘सूक्ष्म मूल जड़कणों का कुल’ ऐसा पूरा संस्कृत शब्द है । उसी मॉलिक्यूल (molecule) के एक मुख्य कण को एटम् (atom) कहते हैं । वह ‘आत्मा ‘ इस अर्थ का बिगाड़ा गया संस्कृत शब्द है । उसी में अन्तर्भूत जो और सूक्ष्म कण पाये जाते हैं उन्हें रेणु कहते हैं । ‘रेणुका’ वही शक्ति है जो ऐसे सूक्ष्म जड़कणों में गुप्त रूप से निवास करती है और जो ईश्वरीय आज्ञा से कड़ा प्रहार कर सकती है । जड़,अचल सृष्टिमें मिट्टी ,रेत आदि पदार्थों में जो कण होते हैं उनके अन्दर एक सूक्ष्म घन विद्युत्कण और ऋण विद्युत्कण ऐसी ईश्वरीय शक्ति की यन्त्रणा निवास करती है, (इसीलिए वेदों में उस शिवकी ईश्वरीय शक्तिको कण कण में वन्दना की गयी है –“नमः सिक्त्याय च प्रवाह्याय च नमः (वा०सं०१६/४३) । उस घन विद्युत्-कण को वैदिक प्रणाली में जड़ सृष्टि या जड़ पदार्थ की आत्मा कहा जाता है । उसी की विद्यमान पाश्चात्य परिभाषा में एटम् ऐसा थोडा विकृत उच्चारण होता है । इससे स्पष्ट हो जाना चाहिये कि आजकल जिसे atomic physics कहते हैं वह शास्त्र प्राचीन काल में भी हिन्दुओं को ज्ञात था ।
हम जिन्हें द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग कहकर पूजते हैं वे भी वैदिक प्रणाली के प्रसिद्ध ऊर्जा-केंद्र थे । इसी कारण अनादिकाल से वे श्रद्धा और भक्तिके केंद्र बने हुए हैं । वे ज्योतिर्लिङ्ग इस प्रकार हैं – (१) सोमनाथ ,(२) मल्लिकार्जुन, (३) महाकालेश्वर ,(४) ओंकारेश्वर , (५) वैद्यनाथ , (६) नागेश्वर ,(७) केदारनाथ ,(८) त्रयम्बकेश्वर , (९) रामेश्वर ,(१०) भीमाशङ्कर ,(११) विश्वनाथ और (१२) घृष्णेश्वर । प्रत्येक आस्तिक हिन्दू के मन में इन पीठों के प्रति गहरी श्रद्धा और भक्तिभाव होता है । इसीकारण जीवन में कम से कम एक बार उन सबके दर्शन करने को वह उत्सुक होता है । वर्तमान सार्वजनिक धारणा यह है कि उन स्थानों की बड़ी आध्यात्मिक पवित्रता है अन्य कई प्रमाणों से यह स्पष्ट होता है कि वह भयपूर्ण , गम्भीर श्रद्धाभाव इसीलिए है कि वे किसी प्राचीन युग के ऊर्जा केन्द्र रहे हैं । उन सारे स्थानों पर लम्बे गोलाकार शिवलिङ्ग प्रतिष्ठित हैं । उस आकार का विचार कीजिए । बम्बई उर्फ़ मुम्बई नगरके ट्राम्बे विभाग में जो अणुभट्टी है , उसका आकार पूर्णतया एक विशाल शिवलिङ्ग जैसा ही है ।
शिवलिंग जिस शिला पर खड़ा रखा जाता है उस शिला पर तरंग दर्शाये होते हैं । वैसे ही अणु-रेणु के भ्रमण मार्ग आधुनिक पदार्थ विज्ञान शास्त्र (physics)की पुस्तकोंमें भी दिग्दर्शित होते हैं । ‘शिव’ यानी पवित्र और ‘लिङ्ग’ यानी चिह्न । शिव यह शक्तिका पति कहलाता है । शिव बड़े शक्तिमान् होते है । शिव बड़े क्रोधी भी होते हैं । सारोंका कल्याण करा सकने वाली शिव की शक्ति होती है । अणु-शक्ति में कई प्रकार से जनकल्याण साधने की क्षमता होती है । किन्तु वही कल्याणकारी शक्ति कहीं से अनियंत्रित होकर बहने लगी तो वह सर्वनाश करती है, शिव जी का भी वैसा ही है । वे यदि क्रुद्ध हो गए तो उनके तृतीय नेत्र से झरने वाला तेज सारे विश्वको नष्ट कर सकता है । शिवजी जब ताण्डव नृत्य करते हैं तो पञ्चमहाभूतोंके मंथन से सृष्टि काँप उठती है । अणुशक्ति का ताण्डव उसी भयानक प्रकारका होता है । ज्योतिर्लिङ्ग शब्द से स्पष्ट है कि उन केन्द्रों से तेज या ऊर्जा की ज्योति निकलती थी म अमेरिका में भी Livermore नगर में जहाँ ‘लेझर’ (leser) नाम की बड़ी शक्तिमान् ज्योति प्रकट की जाती है उस यंत्रण्य को भी अमेरिका वालों ने ऐतिहासिक योगायोग से ‘शिव’ नाम ही दिया है । नासा में भी शिवकी नटराज (ताण्डव नृत्य करती) मूर्ति स्थापित की गयी है । शिवजी को त्रिअंबक (त्रयंबक) यानी तीन चक्षु वाला कहते हैं । शिवजज का तृतीय नेत्र यदि क्रोधसे खुल गया तो उससे निकलने वाले तेज के किरण सारी सृष्टि को पिघला सकते हैं या भग्न कर सकते हैं । मनुष्य ईश्वरका ध्यान भी उसी स्थान पर करता है , वहीं शिवका निवास है , वही से आत्मा सारी शारीरक क्रियाओं का सञ्चालन और नियन्त्रण करती है । ब्रह्मा-विष्णु-शिव त्रिमूर्ति में अंतिम विनाश का कार्य शिवजी के तृतीय नेत्र की ज्वाला से होता है । अणुशक्ति का सदुपयोग और दुरुपयोग भी जिस प्रकार हो सकता है वैसे ही शिवजी की कृपादृष्टि से कल्याण और वक्रदृष्टिसे विनाश होता है । शिवकी उस सर्वनाशी शक्तिके कारण उसे महाकाल भी कहते हैं । शिवजी को महाप्रलयंकारी भी कहा जाता है । आधुनिक वाक्-प्रचार में विद्युत् या अन्य किसी भी ऊर्जा को पॉवर (power) यानी ‘शक्ति’ या ऊर्जा कहते हैं । वह वैदिक परिभाषा का ही तो शब्द है । पार्वती , दुर्गा , भवानी , चण्डी को शक्ति कहते हैं । इसीलिए उनके भक्तों को शाक्त कहते हैं । भगवान् शिवका कोप होता है तो वे रुद्रावतार धारणकर तृतीय नेत्र से आग उगलते हैं । उसी को रौद्र यानी भयानक रूप कहते हैं । उस समय महाप्रलय होने की सम्भावना होती है । अतः शिव को महाप्रलयंकारी भी कहा गया है म उस समय अनेक प्रकार की भयानक ध्वनि होने लगती है अतः उस अवस्था का ‘भैरव’ या ‘भय-रव’ (भयानक रव अर्थात् ध्वनि करना ) भी नाम पड़ा है । शक्तिकी उपासना करने वाले मृत व्यक्तियों की हड्डी और मुण्डों की माला गले पहनते थे । भयानक शक्तिसाधना का वह बोधचिह्न था । उससे यह प्रतीत हुआ करता था कि अणुशक्ति नियंत्रण में नहीं रही या अनापशनाप बहने लगी तो उससे हाहाकार मचकर हजारों व्यक्ति मृत और घायल हो जाते हैं । वर्तमान समय में भी तो शक्ति के वही चिह्न लौकिक व्यवहार में प्रयोग होते हैं । जहाँ बिजली का प्रवाह तीव्र शक्तिमान होता है वहां आजकल भी खम्भों पर दो हड्डियाँ और एक मुण्ड अंकित किये जाते हैं ताकि लोग प्रखर विद्युत्प्रवाह से सावधानी वर्तें ।शाक्तों को शक्तिके भक्त इसीलिए कहा जाता है कि वे एकान्त में समाधिस्थ होकर अणुशक्ति संशोधन में मग्न रहते थे । आंग्ल शब्द technique (टेक्नीक) , technicians (टेक्नीशियन्स) और tantrums (टँन्ट्रम्स) सारे संस्कृत ‘तन्त्र’ ,’तान्त्रिक’ आदि शब्दोंके ही पाश्चात्य रूप हैं । सारे वैदिक वैज्ञानिकों को मन्त्र इस कारण मुखोद्गत कराये जाते थे कि वे ऊर्जा-उत्पादन या शस्त्रास्त्र बनाते समय काम आएं । प्राचीन वैदिक शिक्षा प्रणाली की यह एक विशिष्टता थी कि प्रत्येक व्यक्ति , चाहे वैज्ञानिक हो या मूर्तिकार या वैद्य , उसे अपने पाठ्यक्रम की सारी विद्या मुखोद्गत होती थी । प्राचीन अग्निहोत्री वही वैज्ञानिक हो सकते हैं जो सर्वदा निजी निवासों में संशोधन के लिये अग्नि प्रज्वलित रखकर उस पर पदार्थों को तपाकर , भूनकर , जलाकर आदि विविध शोध प्रयोग किया करते थे । शिवलिङ्ग भूगर्भमें , पानी में रखा जाता है और ऊँपर टँगे घट से शिवलिङ्ग के ऊँपर बून्द-बून्द पानी टपकता रहता है । आधुनिक विज्ञान में इसे कन्डेन्शेशन (condensation) (यानी ठंडा करना ) कहते हैं । जहाँ भी शक्ति या ऊर्जा-उत्पादन , घर्षण आदि से तापमान बेशुमार बढ़ता रहता है वहाँ सतत उसे ठण्डा रखने की प्रक्रिया चालू रखनी पड़ती है । शिवजी के ललाट पर शीतल चन्द्रमा अंकित रहता है । सिर पर गङ्गा बहती रहती है । यह सारे चिह्न इसी के द्योतक हैं कि शिवलिङ्ग प्राचीन atomic reactors यानी अणुशक्ति उत्पादन केन्द्र थे । वर्तमान अणुकेन्द्रोंसे किरणोंत्सर्गी पदार्थ बड़े हानिकारक होते हैं । आधुनिक अणुऊर्जा उत्पादन केंद्रों में ऐसा बचाखुचा किरणोत्सर्गी कचरा सीमेंट के पुटों में बन्द करके गहरे सागरमें फैंका जाता है । ठेठ वही बात महाभारत के समय भी होती थी म उदाहरण — यादवों को जो एक किरणोत्सर्गी मूसल मिला था वह उन्होंने खण्डित करके या चूर्ण बनाकर सागर में बिखेर दिया । परिणाम स्वरूप उससे जो रीड निर्माण हुआ वह भी किरणोत्सर्गी था । उसे उखाड़-उखाड़कर यादव जब आपस में लड़ने-झगड़ने लगे तो वे अणुशक्ति से दूषित होकर सारे नष्ट हो गए । शिवपूजा की एक और विशेषता भी आणविक शक्ति केन्द्रों की द्योतक है । शिवपूजा का पानी जिस नाली से गर्भगृह के बाहर बहता रहता है उसे लाँघकर भक्त लोग आगे नहीं जाते हैं । शिवमन्दिरों में भक्तगण उस नाली तक ही परिक्रमा करते हैं और फिर उसी मार्ग से वापस घूम जाते हैं । यानी , एक प्रकार से शिवमन्दिरों में प्रत्येक परिक्रमा तीन-चौथाई आगे और तीन-चौथाई वापसी ऐसी डेढ़ गुना होती है किन्तु एक पूरी परिक्रमा नहीं होती । पूजा जल की नाली लाँघकर न जाने की प्रथा इसीलिए पड़ी कि वे आणविक शक्तिकेन्द्र होने के कारण अंदर से बाहर वाला पानी किरणोत्सर्गी हुआ करता था । उसे लाँघने वाले को धोखा हुआ करता था । किन्तु एक और विशेषता भी बड़ी ध्यानयोग्य है । यदि उस मोरी के पास ‘धरुण्ड’ नामकी एक राक्षसी मूर्ति बनाकर उसके मुँह से वह पानी निकलकर नाली में बहे तो भक्तगण उसे अन्य मन्दिरों जैसे मजे में बिना किसी रोक टोक से पार कर पूरी परिक्रमा कर लेते हैं । यानी नाली से वापसी की उल्टी प्रदक्षिणा नहीं करनी पड़ती । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ‘धुरुण्ड’ यह एक ऐसी यन्त्रणा थी कि जिससे निकलते हुए इस किरणोत्सर्गी पानी का दंश दोष समाप्त कर दिया जाता था । क्या शिवजी का त्रिशूल भी आणविक शक्तिकी तीन प्रकार की दाहक शक्तिका द्योतक है , इसका शास्त्रज्ञ विचार करें ।
वेदों में परमात्मा शिवको इसीलिए आणविक शक्ति में अग्नि स्वरूप कहा है —
‘अग्निर्वै रुद्रः'(शतपथ०५/३/१/१०), ‘अत्रैष सर्वोऽग्नि: संस्कृत: स एषोऽत्ररुद्रो देवता ‘(शतपथ ०९/१/१/१)
वेदों में अग्नि स्वरूप (आणविक शक्ति) परमात्मा शिवको कल्याणकारी और विनाशकारी दोनों ही रूप कहे हैं , जिनमें अघोर रूद्र विनाशक हैं और शिवस्वरूप हैं ।
‘अग्निर्वा रुद्रः , तस्यैते द्वे तन्वौ , घोरान्या च शिवान्या च । ‘ (ऐतरेय ब्राह्मण ,ऋग्वेद)