पिछले कई वर्षों से है हम अक्सर इस बात पर चर्चा और वाद विवाद किया करते थे कि अगर भारत में गरीबी और आर्थिक असमानता की समस्या का कोई हल है तो वह है स्वदेशी अर्थात विदेशी कंपनियों और बड़े-बड़े उद्योगों में बल्क में तैयार होने वाले सामान की जगह भारत के गांवों के मजदूरों, कारीगरों और गरीबों के हाथ और लघु उद्योगों में बना हुआ सामान प्रयोग में लाना, सदैव यह बातें, चर्चा और प्रण सेमिनार और डिबेट के दौरान बड़े-बड़े तथ्य और तर्क देते और सुनते समय खून में ऐसा उबाल भर देते थे कि मानो आज के बाद हमारे द्वारा केवल स्वदेशी ही प्रयोग में लाई जाएगी,
परंतु कार्यक्रम के समापन पर वितरित की जाने वाली विदेशी फैक्ट्री की चाय अक्सर उस उबाल को ऐसा ठंडा कर देती थी की फिर से हम सब कुछ भूल कर विदेशी कंपनी और फैक्ट्री में तैयार होने वाले सस्ते समान को खरीद कर अपनी उपभोक्तावादी और वस्तु वाद से ग्रस्त मानसिकता का अनुसरण किया करते थे, इसका एक कारण यह भी रहता था कि हमें लगता था कि हमारे अकेले के प्रयास से कुछ परिवर्तित होने वाला नहीं है, कुछ ऐसी ही चर्चा हम कुछ दिन पहले हमारे एक मित्र के घर पर पंजाब विश्वविद्यालय के सह सचिव के साथ कर रहे थे वहां चर्चा चल रही थी की दीपावली जो कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक बहुत महत्वपूर्ण पर्व है और इनकी सदियों से यह खूबसूरती रही है कि इन पर्वों के दौरान प्रयोग किया जाने वाला स्वदेशी दीपक और मूर्तियां आदि हमारे समाज के मजदूर कारीगर और गरीब वर्ग को साल भर की आजीविका कमाने में मदद करते रहे है,
परंतु पिछले कुछ वर्षों से वैश्विक मंडी करण और उपभोक्तावाद में आई तेजी ने इन त्योहारों को भी विदेशी और भारतीय बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिए एक मंडी के रूप में कमर्शियल माल बेचने का मंच बना दिया है और हम चर्चा कर रहे थे कि हमें दीपावली के दिन स्वदेशी दिए आदि प्रज्वलित कर विश्वविद्यालयों के विद्यार्थियों को जागृत कर पूरे समाज का स्वदेशी प्रयोग करने के लिए आवाहन किया जाना चाहिए हमारी यह बात हमेशा की तरह चाय पीकर ठंडी होने वाली ही थी कि तभी हमारे मित्र के 8 साल के बेटे ने हमसे कहा की क्यों ना कल ही विश्वविद्यालय में इसकी शुरुआत की जाए और तभी हमारे विश्वविद्यालय के सह सचिव ने कहा कि कल मैं इसका प्रयास करता हूं और अगले दिन उसने सुबह ही अपने साथियों और अध्यापकों से इसके बारे में चर्चा की और 4 नवंबर की संध्या तकरीबन 6 बजे उसने विश्वविद्यालय के उप कुलपति, कई प्रोफेसर और सैकड़ों विद्यार्थियों के साथ स्वदेशी के संत कहे जाने वाले महात्मा गांधी जी, जिन्होंने अपने आर्थिक मॉडल में सदैव ग्रामीणों व लघु उद्योगों को ही भारत की समृद्धि का मार्ग बताया था, के डिपार्टमेंट के बाहर स्वदेशी दिए प्रज्वलित कर सभी को स्वदेशी वस्तुएं प्रयोग करने का आवाहन करा,
इस दौरान वह कुम्हार जिससे वह दिए बनाए थे को विश्वविद्यालय के उप कुलपति ने विशेष रूप से सम्मानित भी किया और आगे से यह विश्वास भी दिलाया की यूनिवर्सिटी में स्वदेशी सामान के प्रयोग को प्राथमिकता दी जाएगी और अगले दिन 5 नवंबर को यूनिवर्सिटी के कई विभागों जैसे की विधि विभाग आदि में भी में इसी प्रकार की स्वदेशी और पर्यावरण फ्रेंडली दिवाली का आयोजन किया गया और ऐसा भी सुनने में आ रहा है कि बहुत सारे विद्यार्थियों ने घर जाकर भी अपने घर वालों को यह शिक्षा देने का प्रण किया कि वह इस दिवाली पटाखे, विदेशी सामान आदि खरीदने की जगह स्वदेशी दिए वाली ग्रीन दीपावली ही बनाएंगे दोस्तों एक बात समझ में आई कि बड़ी-बड़ी बातों की जगह छोटा सा प्रयास ज्यादा सार्थक है
(वरुण गर्ग, शोध छात्र पंजाब विश्व विद्यालय)