के के शर्मा : गांधी ने अछूतों को ठगने के लिए किस प्रकार अपनी कुटिल बुद्धि का इस्तेमाल किया इसके लिए दो घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। एक “गुरुवयूर मंदिर सत्याग्रह” दूसरा “मंदिर प्रवेश बिल”।
गुरुवयूर मंदिर सत्याग्रह गांधी के आशीर्वाद से केरल में कांग्रेस ने 1 नवम्बर 1931 को अछूतों के गुरुवयूर मंदिर प्रवेश के लिए चलाया था। इस मंदिर का ट्रस्टी कालीकट का “जमोरिन” था जिसने अछूतों को मंदिर में प्रवेश करने के लिए साफ इंकार कर दिया।श्री के. केलप्पन जो कि इस सत्याग्रह की अगुआई कर रहे थे उन्होंने मंदिर प्रवेश में सफलता न मिलने पर 21 सितम्बर 1932 को आमरण अनशन आरंभ कर दिया जिसे जमोरिन ने स्थगित करने के लिए गांधी से अपील की। गांधी ने केलप्पन से मिलकर 1 अक्टूबर 1932 को अनशन को स्थगित करवा दिया और 5 नवम्बर 1932 गांधी ने कहा कि अछूतों को 1 जनवरी 1933 तक मंदिर प्रवेश नहीं करने दिया गया तो उन्हें विवश होकर अनशन का समर्थन करना पड़ेगा।पर जमोरिन ने साफ शब्दों में अछूतों के मंदिर प्रवेश के लिए मना कर दिया। जिसके बाद गांधी के लिए भी अनशन करना अावश्यक हो गया था। परन्तु गांधी ने बड़ी ही शातिरता से अपनी स्थिति में परिवर्तन कर जनमत संग्रह कराने का फैसला लिया और कहा कि यदि बहुमत सवर्ण हिन्दू जो अछूतों के मंदिर प्रवेश के खिलाफ हैं उनके पक्ष में आया तो वो अनशन नहीं करेंगे। जब जनमत संग्रह हुआ तो परिणाम अछूतों के मंदिर प्रवेश के पक्ष में आया पर गांधी ने फिर भी अनशन नहीं किया। उसके बाद यह सत्याग्रह एक तरह से समाप्त ही कर दिया गया और अछूतों के लिए मंदिर के दरबाजे बंद ही रहे।तदुपरांत “मद्रास विधान परिषद” में डॉ. सुब्बारॉयन द्वारा “मंदिर प्रवेश बिल” पेश किया गया पर वायसराय से विधायिका में बिल प्रस्तुत करने की अनुमति मिलने से पूर्व ही गांधी ने 21 जनवरी 1933 को एक प्रेस में बयान देते हुए कहा कि राज्य द्वारा धार्मिक मामले में हस्तक्षेप करना सही नहीं है। इसे कानून द्वारा नहीं बल्कि स्वंय हिन्दुओं द्वारा निपटाना चाहिए।इसके बावजूद 23 जनवरी 1933 को लॉर्ड विलिंग्डन ने मद्रास विधान परिषद में रंगा अय्यर को अस्पृश्यता निवारण बिल पेश करने की अनुमति दी जो 24 मार्च 1933 को पेश किया गया पर इसका विरोध किया गया। इसके बाद रंगा अय्यर ने जनमत संग्रह का प्रस्ताव रखा, गांधी ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। जबकि गांधी तो अछूतों को मंदिर में प्रवेश दिलाना चाहते थे, फिर क्यों किया गांधी ने इसका विरोध…? अंततः इस सत्र में बिल पारित नहीं हो सका।
24 अगस्त 1933 को सदन के शरद कालीन सत्र में इस बिल पर पुनः बहस शुरु हुई। इसके बाद एक समिति का गठन किया गया जिसमें सर नृपेन्द्र सरकार, सर हेनरी क्रेक, भाई परमानंद, राव बहादुर एम.सी. राजा, राव बहादुर वी.एल. पाटिल तथा रंगा अय्यर शामिल थे। किंतु कुछ भी निर्णय आता उससे पहले ही सरकार ने असेंबली भंग कर चुनाव की घोषणा करदी।इसके बाद गांधी और कांग्रेस द्वारा हिन्दुओं के वोट लेने के मकसद से गुरुवयूर मंदिर सत्याग्रह और मंदिर प्रवेश बिल को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया। फलतः उन्होंने अछूतों के मंदिर प्रवेश का समर्थन करना ही बंद कर दिया। यहाँ तक कि 31 अगस्त 1933 के “हरिजन” पत्रिका में गांधी ने लिखा था कि बिल तो दफन होना ही था क्योंकि किसी ने भी उसका समर्थन नहीं किया था और ना ही समाज-सुधारकों की तरफ से प्रस्तुत किया गया था।
इससे आसानी से समझा जा सकता है कि गांधी अछूतों के मंदिर प्रवेश के पक्षधर थे ही नहीं। वो नहीं चाहते थे कि अछूत मंदिर में प्रवेश करें बल्कि इस संबंध में गांधी ने मात्र एक कुटिल राजनीतिज्ञ की भूमिका अदा की। अछूतों ने जब भी अपने अधिकारों की बात की तब गांधी उनके मंदिर में प्रवेश के पक्षधर रहे और जहाँ कांग्रेस को हिन्दुओं से कोई खतरा महसूस होता तो गांधी अछूतों के अधिकारों का पक्ष लेना बंद कर देते थे। साथ ही गांधी के दलितोद्धार का निहितार्थ यह भी था कि शोषित-वंचित समाज हिन्दुओं से विद्रोह न करे।